लगभग समूचे हिंदी प्रिंट मीडिया में जनसंदेश टाइम्स, बनारस जैसा हाल है। बड़े अखबार भी मजीठिया वेतन आयोग अपने कर्मचारियों को नहीं दे रहे। भड़ास का कोई पाठक किसी एक हिंदी अखबार का नाम बताए जो अपने कर्मचारियों को मजीठिया वेतनमान दे रहा है। इससे पाठकों को नई जानकारी मिलेगी। साथ ही अखबारों में काम करने वालों को यह पता चलेगा कि उनके साथ कितना अन्याय हो रहा है। अखबारों में पदों को सिलसिलेवार ढंग से समाप्त कर दिया गया है और मनमाने तरीकों से नए नए पद ईजाद किए जा रहे हैँ। ग्रूप एडीटर, डिप्टी एडीटर, डिप्टी न्यूज एडीटर, जूनियर सब एडीटर आदि इसी खुराफात का नतीजा है। इस तरह के पदों का जिक्र मजीठिया में नहीं है।
काम के घंटे लगातार बढ़ रहे हैं। नियमों के अनुसार एक पत्रकार को दिन की शिफ्ट में 6 घंटे और रात की शिफ्ट में 5.5 घंटे काम करना चाहिए। रात में काम करने पर नाइट एलाउंस मिलना चाहिए। हालत यह है कि दिन की शिफ्ट तो खत्म जैसी ही हो गई है। रात की शिफ्ट ही सभी की हो गई है। आज पत्रकार 11-11 घंटे काम कर रहा है। छुटिटयां लेना गुनाह माना जा रहा है।
दरअसल जो मुट्ठी भर लोग अत्यधिक वेतन पा रहे हैं उन्हें छुट्टियों की जरूरत नहीं होती क्योंकि वे पैसा देकर छोटे छोटे काम करवा लेते हैं। लेकिन हिंदी प्रिंट मीडिया का औसत पत्रकार निम्न मध्यम वर्गीय है। वह एक एक पैसा बचाने की कोशिश करता है क्योंकि उसे इतना मिलता ही नहीं। वह ट्रेन से सफर करता है सेकंड क्लास में इससे सफर में वक्त लगता है और पैसा बचता है। जबकि उंचे लोग विमानों में सफर करते हैं। दरअसल सरकार को ऊंची तन्ख्वाह पर एक सीलिंग लगा देनी चाहिए कि देश में किसी का भी वेतन राष्ट्रपति के वेतन से ज्यादा नहीं होगा। इससे अखबारों में अधिक तनख्वाह वालों की संख्या में कमी आएगी और कम वेतन वाले अपने हक के लिए प्रतिरोध दर्ज कर सकेंगे।
पत्रकारों को शोषण से बचने के लिए यह कदम उठाए जाने चाहिए…
– हिंदी पत्रकारों को अविलम्ब एक नेशनल ट्रेड यूनियन बनाना चाहिए
–सदस्यता शुल्क 50-50 रुपए भी लिया जाए तो कार्यकारिणी के पास इतना कोष हो जाएगा कि वह पत्रकारों के हितों के लिए बड़ा आंदोलन कर सके।
– एक बार पत्रकार संगठित हो जाएं तो उन्हें देश व्यापी हड़ताल करनी चाहिए।
– कम से कम 7 दिन तक एक भी अखबार न छपे न बिके न वितरित है। इस हड़ताल में हाकर्स बंधुओं को भी शामिल करना चाहिए।
यदि पत्रकारों को अपने आर्थिक हितों की रक्षा करनी है तो बड़ी हड़ताल ही एकमात्र विकल्प है।
-पत्रकार हमेशा दूसरे मुद्दों को दूसरों की मांगों को राष्ट्रीय अंतररारष्ट्रीय मसलों पर बड़ा ध्यान देते हैं लेकिन खुद के लिए न तो कलम उठाते हैं न ही झंडा।
-पत्रकार कार्यालयों में 6 घंटे की पाबंदी से काम करें। 6 घंटे में काम जितना हो पूरा करते आ जाएं। यदि मैनेजमेंट को लगता है कि 10 व 12 घंटे काम करना जरूरी है तो वह और पत्रकारों की भर्ती करे और दूसरी पाली में काम करवाए। या फिर पत्रकारों को ओवरटाइम दे।
-अखबारों में एक ही व्यक्ति से सारे काम करवाने की प्रवृत्ति शुरू हो गई है। यानी कि वेतन एक आदमी का काम 4 लोगों का। पत्रकारों को 4 आदमियों का काम करने से इंकार करना चाहिए। यह काम एक या दो पत्रकार करेंगे तो असर नहीं पड़ेंगा यह काम सामूहिक रूप से करना हो
-रविवार को सारे अखबार बंद रहने चाहिए।
-सभी पत्रकारों के परिवारों का हैल्थ इंश्योरेंस हो जिसमें तकरीबन हर बड़ी बीमारी कवर हो।
सरकारी मान्यता का लाभ कुछ पत्रकारों को और अखबारों के मालिकों को ही क्यों मिले। शासकीय राशि व लाभ व सुविधा वितरण हर पत्रकार को बराबर बराबर हो। क्या जनसंपर्क विभाग कुछ पत्रकारों व मालिकों की बपौती है। सारे अखबारों को डीएवीपी के विज्ञापन बंद कर दिए जाएं। इसके बदले यह विज्ञापन की राशि पत्रकारों को अकाउंट में आधार के जरिए डायरेक्ट ट्रांसफर हो ।
यह कमेंट 'बनारस में जनसंदेश टाइम्स के पेजीनेटरों का सेलरी के लिए हंगामा' शीर्षक से प्रकाशित खबर पर किसी ने पोस्ट किया, जिसे अलग से यहां प्रकाशित किया जा रहा है.