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जॉय मुखर्जी में एक चाकलेटी मेटिनी हीरो की सभी खूबियां थी

गुज़रे जमाने के चाकलेटी अभिनेता ‘जय मुखर्जी’ का जन्म मशहूर शशधर मुखर्जी के परिवार में हुआ था, पिता शशधर व माता सती देवी के परिवार में जय, देब तथा शोमु मुखर्जी को मिलाकर तीन संतानें थी। पिता ‘फिलमिस्तान स्टुडियो’ के मालिक व संचालक थे। हजारों प्रसंशक आज भी उन्हें साठ दशक के चाकलेटी हीरो के रुप में याद करते हैं, विशेष कर ‘लव इन शिमला’ के किरदार ‘देव’ के लिए। दिलकश जय (जॉय) जल्द ही जवां दिलों की धड़कन बन गए, एक चाकलेटी मेटिनी हीरो की सभी खूबियां उनमें थी। फ़ैशन व वेशभूषा के मामले में शम्मी कपूर की परंपरा को एक तरह से विस्तार दिया।

गुज़रे जमाने के चाकलेटी अभिनेता ‘जय मुखर्जी’ का जन्म मशहूर शशधर मुखर्जी के परिवार में हुआ था, पिता शशधर व माता सती देवी के परिवार में जय, देब तथा शोमु मुखर्जी को मिलाकर तीन संतानें थी। पिता ‘फिलमिस्तान स्टुडियो’ के मालिक व संचालक थे। हजारों प्रसंशक आज भी उन्हें साठ दशक के चाकलेटी हीरो के रुप में याद करते हैं, विशेष कर ‘लव इन शिमला’ के किरदार ‘देव’ के लिए। दिलकश जय (जॉय) जल्द ही जवां दिलों की धड़कन बन गए, एक चाकलेटी मेटिनी हीरो की सभी खूबियां उनमें थी। फ़ैशन व वेशभूषा के मामले में शम्मी कपूर की परंपरा को एक तरह से विस्तार दिया।

 
‘लव इन शिमला’ के साथ हालांकि वह रातों रात स्टार बन गए, बाद में यह बात सामने आई कि वो पहली पसंद नहीं थे। उस समय के कुछ उभरते सितारे भी इस रोल के दावेदार थे। हिन्दी सिनेमा के कुछ बेहतरीन फिल्में मसलन शागिर्द, लव इन टोकियो, एक मुसाफ़िर एक हसीना को आज भी याद किया जा सकता है। जय सरीखा क्युट फेस बहुत कम नजर आता है। आलोचक उन्हें एक पक्षीय किरदारों में सिमटा हुआ पाते हैं, लेकिन शायद यह एक तरफा आकलन था। हिन्दी सिनेमा में शहरों के बेकग्राउंड से फिल्में तो बहुत बनी…फिर भी जय मुखर्जी की फिल्मों की बात जुदा थी। कुछ युं मानो उनकी फिल्में शहरों से मिला रही थी। शिमला से टोकियो का सफर हमेशा कहां देखने को मिलता है?
 
‘लव इन शिमला’ की कहानी में सोनिया(साधना) चाचा जनरल राजपाल सिंह(किशोर साहू) के परिवार के साथ रहती है। चाची(शोभना सामर्थ) और शीला(अजरा) उससे भेदभाव करते हैं, हरेक मौके पर एक किस्म का सौतेला व्यवहार उसे सहना पड़ता है। शीला और चाची सोनिया को हरेक मौके पर अपमानित करने की फिराक में रहती हैं। जनरल राजपल के मन में सोनिया के लिए स्नेह है, लेकिन पत्नी के पराए व कटीले व्यवहार पर कुछ नहीं बोलना चाहते। सोनिया को बचाने के बजाए वह अक्सर पत्नी व बेटी का साथ देते नज़र आते हैं, सिवाए दादी (दुर्गा खोटे) के सोनिया का घर पर कोई हमदर्द नहीं था। दादी के मन में सोनिया के लिए बहुत स्नेह था, शीला के जुल्मों का विरोध वही कर पाती थी।
 
देव मेहरा(जय मुखर्जी) और शीला कॉलेज के दोस्त हैं। शीला को देव की बेशुमार दौलत से प्यार है…उसी की खातिर देव से एक रिश्ता बनाती है। मंगनी के बाद देव और शीला का विवाह होने वाला है। रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए देव जेनरल राजपाल सिंह के यहां जाने का मन बनाता है। देव को लेकर सोनिया शीला से एक शर्त तय करती है, सोनिया ने शर्त मे दांव लगाया कि वो देव को शीला से जीत लेगी। शीला को सोनिया की शर्त की परवाह नहीं, उसे भरोसा रहा कि सोनिया ऐसा नहीं कर सकेगी।
 
शीला के झूठे प्यार के बाहर देव एक दिन सोनिया से रुबरु होता। पहली नज़र से ही वो सोनिया का कायल हो जाता है, सिंह परिवार ने देव के स्वागत के लिए ‘डांस कंपीटीशन’ का आयोजन किया है। सभी उसमें शामिल होने को रेडी हैं…सोनिया को घर में ही रहना है। ऐसे में वह मदद के लिए दादी मां पास जाती है, दादी मां को विश्वास है कि किसी लड़के का दिल जीतना एक खास किस्म के इमेज की मांग करता है। पार्टी में जाने के लिए वो सोनिया का ‘मेकओवर’ करना जरूरी समझती है। चेहरे से चश्मा हटा कर नया लुक देकर दादी उसे बदल देती है। सोनिया में खूबसुरत युवती ना होने के गलत भाव को खत्म करने में वह शायद सफल हो।
 
अब सोनिया की खूबसुरती काबिले तारीफ हो चुकी है, शीला से प्यार की जंग आधी जीतने के लिए यह काफी था। बाक़ी काम शीला का अति व्यवहार कर देता है, मुकाबले में वह देव को डांस पार्टनर रुप में नहीं लेकर बडी भूल कर गयी। देव को चुनने के बजाए वह प्रोफेशनल डांसर्स को ओर जाती है, शीला को कड़ा जवाब देते हुए देव सोनिया को ‘डांस’ फ्लोर पर लाता है। अंतत: देव और सोनिया मुकाबला जीत जाते हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज़ में दोनो कहानी में बार-बार मिलते हैं, पहली नज़र का जादू धोखा नहीं रहा। देव-सोनिया के बीच एक सुंदर सा रिश्ता कायम हो चुका था। मंगेतर को दूसरे का होता देख शीला का आत्म-विश्वास जाता रहा, सोनिया अपनी शर्त जीतने के बहुत करीब थी।
 
जय को अपने समय की नामी नायिकाओं के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ था। साधना(लव इन शिमला-एक मुसाफिर एक हसीना), आशा पारेख(फिर वही दिल लाया हूं) सायरा बानो (शागिर्द) इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। आपने साधना की प्रतिद्वन्दी आशा पारेख के साथ बहुत सी फिल्में की,  तीन हिट फिल्में ‘फिर वही दिल लाया हूं (नासिर हुसैन) प्रमोद चक्रवर्ती की ’जिददी’ और ‘लव इन टोकियो’का यहां जिक्र किया जा सकता है। लेकिन सभी नामी नायिकाओं के साथ काम करते हुए ऐसा नहीं हुआ, मसलन सायरा बानो के साथ भी एक से अधिक बार नजर आए जिसमें दूर की आवाज़, साज़ और आवाज़, यह जिंदगी कितनी हसीन है का नाम लिया जा सकता है। लेकिन यह फिल्में शागिर्द की तरह सफल नहीं रहीं। फिर वैजयंतीमाला के साथ ‘इशारा’ भी नहीं चल सकी। आपने वहीदा रहमान-नूतन-नंदा के साथ भी काम किया।
 
प्रमोद चक्रवर्ती की ज्यादातर फिल्मों में ‘विदेशी मुल्कों’ की भव्यता को कहानी का हिस्सा दिखाया गया, जो उनकी कामयाबी का एक वजह रहीं। सचिन भौमिक की पटकथा में ‘टोकियो’ शहर को निखरने का पूरा स्पेस मिला यहां देखने को मिला था। शंकर-जयकिशन का बेजोड़ संगीत, हसरत जयपुरी की शायरी, शैलेन्द्र की कविताई ने ‘लव इन टोकियो’ को कमाल का बना दिया था। कहानी बांबे के अमीर युवक अशोक(जय मुखर्जी) से शुरू होती है। अशोक की मंगनी बिगड़ी शहजादी सरिता(लता बोस) से जबरदस्ती की जाती है। अशोक की माता गायित्री देवी (ललिता पवार) को नहीं पता कि ‘सरिता’ सिर्फ अशोक की दौलत से प्यार है, रिश्ते से नाखुश अशोक अपने मित्र महेश(महमूद) की मदद से सरिता के जाल से बच निकलता है। लेकिन अशोक की मुश्किले खत्म नहीं हो रहीं, जापान में बसे बड़े भाई का अचानक निधन हो गया। दरअसल भाई ने किसी जापानी लडक़ी से शादी कर ली थी, रिश्ते से एक लड़के का जन्म हुआ। गायत्री देवी अकेले पड़े चीकु को स्वदेश लाने के लिए अशोक को जापान भेजती है।
 
मां-बाप
के बाद अब चीकु की देखभाल वहां कौन कर रहा? यह स्पष्ट नहीं हुआ। अशोक के वहां आने पर चीकु भारत वापस ना आने की जिद कर लेता है। अशोक बालक को मनाने की पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन सब तरकीब बेकार ही निकली। मुसीबत यह कि अशोक की नज़र से बच ‘चीकु’ वहां से निकल कर आशा( आशा पारेख) पास निकल लिया। अब हमें संकेत मिला कि चीकु की देखभाल कौन करता था। अशोक व आशा की कहानी यहीं सांस ले रही थी। शंकर-जयकिशन की सुंदर कम्पोजीशन भी ‘लव इन टोकियो’ को खास बनाती है। गानों की फेहरिस्त में ‘मुझे तुम मिल गए हमदम सहारा हो तो ऐसा हो’ फिर रफी की दिलकश आवाज़ ‘अए मेरे साहिबे खुदा’ खास कहे जा सकते हैं।
 
सत्तर दशक मे ढलते कैरियर में जान फूंकने की कोशिश में एहसान-अनजान-पुरस्कार सरीखा फिल्में को किया। दुर्भाग्यवश यह सभी प्रयास विफल रहे…एक बार मुस्कुरा दो से हांलाकि सफलता जरूर मिली लेकिन अब वह दौर बाक़ी ना था। रोमांटिक राजेश खन्ना के उदयीमान सफर से बहुत से रोमांटिक नायकों का समय थोड़ी मुश्किल में पड़ गया था, दूसरे की फिल्मों में अब काम मिलने की आशा नहीं रही थी। खुद को सिनेमा में एक बार फिर आजमाते हुए जय ने ‘हमसाया’ का निर्माण किया। हमसाया में जय का डबल रोल था, प्रोजेक्ट में शर्मिला टैगोर व माला सिन्हा भी थी । टीवी धारावाहिक ‘अए दिल-ए-नादान’ में वो आखिरी बार नजर आए थे।

 

सैयद एस. तौहीद, संपर्कः [email protected]

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