मोदी के खिलाफ केजरीवाल का गुस्सा जायज है। पर उस गुस्से को जाहिर करने की सीमा कहां खत्म होती है, यह गहरा सवाल है। ….बनारस आये केजरीवाल आखिर चुनाव लड़ने का ही तो गुनाह कर रहे हैं, तो क्या इस अपराध के लिए उनको डराने की कोशिश की जायेगी, सार्वजनिक तौर पर अण्डे फेंके जायेंगे, कालिख पोती जायेगी? अगर उठती आवाजों को दबाने का यह भगवा तरीका कोई संकेत है, तो इस संकेत को इस देश को समझने की जरूरत है। लेखों में, फेसबुकिया विचारों में और बहसों में भी कई बार लोगों को कहते सुना है कि केजरी पलायनवादी हैं, 49 दिनों में ही सरकार छोड़कर भाग गये, आदि आदि। भली कही, पर अगर बौने बनकर सरकार चलाते तो क्या अलग करते?
आडवाणी, राजनाथ, मोदी, जोशी सियासत में न जाने कितने नाम हैं जो एक अदद कुर्सी के लिए मर-मार रहे हैं, ऐसे में कोई शख्स तो है जो पाई हुई कुर्सी को छोड़ने की हिमाकत कर सकता है। रही हौसले की बात, तो साथियों यह केजरीवाल का हौसला ही था जो पन्द्रह सालों से जमी शीला के खिलाफ चुनावी खुदकुशी की हिम्मत कर सकता था, और अब यह केजरीवाल ही हो सकते हैं जो मोदी की हवा को नजदीक से थामने का हौसला कर सकते हैं।
तो साथियों, इस हौसले के साथ नहीं चल सकते/ नहीं चलना चाहते, तो कोई बात नहीं, पर इस हौसले को सलाम जरुर कीजिए।
क्योंकि, घर फूंक तमाशा देखना सबके बूते की बात नहीं।
ये हौसला न मैं कर सकता हूं, और न आप….तो बस अपने-अपने सुरक्षित पनाहगाहों, आशियानों में टीवी सेटों से चिपके हुए, चलो इन बंजारों को सलाम ही कर लें।
आलोक वर्मा। संपर्कः [email protected]