मरने के बाद सरदार खुशवंत सिंह की तारीफ का एंगल समझ में नही आया। बड़ी-बड़ी फोटो और एक जैसे चर्चे, किसी को जैसे पता ही नही की क्या कहे? सही भी है आखिर खुशवंत ने या उनके परिवार ने इस देश को दिया ही क्या। लेकिन चूँकि छपना है सो सब के सब लग गए अपने छपास के ट्रीटमेंट में। एक ने तो हद ही कर दी, अमर उजाला के गोरखपुर संस्करण में एक ने कहा कि खुशवंत इसलिए महान थे क्योंकि उन्होंने मुझे बड़ी आत्मीयता से गले लगाया था, गोया कोई कांटे का पेड़ हों। सब जगह एक ही बात कि खुशवंत ने अपनी शर्तों पे जीवन जिया और सबका इशारा वही कि लिखा अपने मन का और दारु पीया अपने मन का। पीने को लेकर इतने मशहूर कि मरने वाले दिन भी IBN-7 पर संजय पुगलिया ने कह दिया कि मरने से ठीक एक दिन पहले शाम में भी उन्होंने जरुर पी होगी।
हाय रे!! साहित्य जगत, याद भी किया तो दारु के पैमाने से। अरे अभी होलिये में तो केतना लोग मन भर दारु पिए और उलट गये, तो क्या वे खुशवंत हो गए। वास्तव में हिम्मत हो तो कहिये कि खुशवंत का जीवन सिर्फ शब्दों का मायाजाल रहा और वो सिर्फ दिल्ली वाली सेटिंग के साथ। जब खुशवंत के पिता सरदार सोभा सिंह पर आरोप लगा कि कोर्ट में उनकी गवाही और पहचान के कारण भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी हुई तो कह दिया कि मेरे पिता ने तो केवल बम फेंकने वाले के रूप में उनकी पहचान की थी। अंग्रेजों की गिरफ़्तारी से बचने के लिए अरुणा आसफ़ अली ने रात में जब खुशवंत से घर में शरण मांगी तो कह दिया कि मकान के मालिक मेरे पिता हैं, मैं कैसे शरण दूँ। वाह रे शब्दों की बाजीगरी!! जिंदगी भर सेटिंग।
इमरजेंसी लगी तो इंदिरा और संजय गांधी के पैरोकार बन इमरजेंसी को जायज माना, और वो भी इस क़दर कि उस ज़माने में उनका नाम ही कुछ लोगों ने ख़ुशामद सिंह तक रख दिया था, पर जब भिंडरावाले के खिलाफ स्वर्ण मंदिर में कार्यवाही हूई तो सच्चे सिख का जामा पहन कार्यवाही का विरोध किया, हालाँकि वे भिंडरावाले के विरोधी थे पर कारण: क्योंकि सिख इतिहास पर लिखी दो किताबों ने ही उनकी इमेज को चमकाया था। इंदिरा की हत्या के बाद जब सिख विरोधी दंगे हुए तो दिल्ली में सिखों के साथ खड़े होने की बजाय भागकर विदेशी दूतावास में शरण ले ली। इसी तरह इमरजेंसी के दौरान खुशवंत जब इलेस्ट्रेटेड वीकली में थे तो कुलदीप नैय्यर जो इंडियन एक्सप्रेस में लगातार सरकार विरोधी लेख लिख रहे थे, को इंडियन एक्सप्रेस से तोड़ने को कहा कि मेरे साथ आ जाओ, इतना पैसा दिलवाऊंगा कि नौकरी जाने के बाद भी खर्चे चलते रहे।
खुद इंडियन एक्सप्रेस के मालिक गोयनका से जीवन भर इसलिए नाराज हो गए कि इमरजेंसी में सरकारी दबाव से बचने को गोयनका ने खुशवंत को चीफ एडिटर का ऑफर दिया और बाद में जब चुनाव बाद इमरजेंसी हटने की उम्मीदें बढ़ी तो गोयनका ने उन्हें ज्वाइन नहीं करने दिया। हर समय दोहरे मापदंड पर हर बार लेखनी के दम पर अपने को जस्टिफाई करते गए, समीकरण तोड़ते-जोड़ते-बनाते गए। कभी लेक्चरर बन गए तो कभी विदेश सेवा में नौकरी की, कभी राजनीति की तो कभी एडिटर बन अखबारों और मैगजीनों में पहुँच गए। योग्य थे, सो जहाँ जैसा मिला उसको अपने अनुसार ढाल लिया, जो सेटिंग बैठी उसे अपना लिया। वास्तव में खुशवंत ने खूब लिखा, मन भर लिखा और कईयों को लिख लिख के साधा। खूब पी, मन भर पी, खूब मेहमानवाजी की और करवायी, लेकिन अनुशासन ऐसा कि सुबह भोर में उठ कर चार बजे खुद चाय बना कर पीते रहे।
साहित्य जब शराब और सुन्दरी के इर्द-गिर्द घूमता है तो लोग रातों-रात स्थापित साहित्य सम्राट बन जाते है, और एक बार आप सम्राट बने तो दरबारी भी अवश्य खोज लेंगे। ये दरबारी ही फिर आपके साम्राज्य को स्थापित करने लगते हैं। सत्तर के दशक की शुरुआत से लेकर नब्बे के पूर्वार्ध तक, जब तक टीवी का बोलबाला नहीं था, लोग रातों-रात अपने ड्राईंगरूम से साहित्य सम्राट बन गए। इन पीने-पिलाने वालों की इसी जमघट और ब्रांडिंग ने बहुत सारे ऐसे गीत, गजल, कहानी और उपन्यास दिए कि अब वो मौलिकता नहीं आ सकती, मेरी इन बातों को अन्यथा न लीजियेगा। खुशवंत ने अंग्रेजों से सटे रहस्यमयी पारिवारिक अतीत के बावजूद केवल अपने कलम और साहित्यिक साम्राज्य और दरबारियों के सहारे ऐसे अनुकूल समीकरण बनाये कि आज़ाद भारत में वो हमेशा चाव से पढ़े गए और सम्मान पाये।
भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण काले अध्यायों में से एक अंग्रेजो का शासन काल और दूसरे इमरजेंसी में उनकी और उनके परिवार की अजीबो गरीब भूमिका के बाद भी खुशवंत सिर्फ शब्दों के जाल से इन कलंको से स्वयं भी मुक्त हुए और अपने परिवार को भी मुक्त किया। ये खुशवंत के शब्दों के मायाजाल का कमाल ही था कि मेरे इंजिनियर पिता मुझे किशोरावस्था में पठन-पाठन में रूचि पैदा करने को हिंदी अखबारो में छपने वाले 'न काहु से दोस्ती, न काहु से बैर' और अंग्रेजी में छपने वाले 'With Malice Towards One and All' पढ़ने को कहते थे। ईमानदारी से कहूं तो क्या खूब लिखते और साधते थे खुशवंत। वास्तव में तमाम इफ एंड बट के बाद भी खुशवंत सिंह एक सच्चे सरदार थे, एक ऐसे सरदार जिसके बारे के कहा जाता है कि सरदार संसार में कहीं भी और किन्ही भी सम-विषम परिस्थिति में जी सकता है, खुशवंत सिंह भी आज़ाद भारत में वैसे ही जिये और वैसे ही शान से 99वाँ जन्मदिन मना सौवें साल में मरे।
खुद खुशवंत के शब्दों में जो उन्होंने अपनी पुस्तक खुशवंतनामा: द लेसन ऑफ़ माय लाईफ में लिखा और जो आज अमर उजाला के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा…. मैंने अपना जीवन भरपूर जिया, दुनिया घूमी, अपनी इन्द्रियो का आनंद उठाया, प्रकृति की सुंदरता का आनंद उठाया और हर उस चीज का जो उसके पास देने को था। मैंने सर्वश्रेष्ठ भोजन का स्वाद लिया, बेहतरीन संगीत सुना और बेहतरीन औरतों के साथ संभोग किया। जो समय मुझे मिला मैंने उसका बेहतर उपयोग किया। …. ईश्वर में मेरा कोई विश्वास नही, न ही न्याय के सिद्धांत में, न पुनर्जन्म में इसलिए मृत्यु रूपी पूर्णविराम वाली बात माननी पड़ेगी। …फिर लिखते हैं … मैं उन लोगों की आलोचना भी कर देता हूँ, जो मर चुके हैं, लेकिन मृत्यू किसी को पवित्र नहीं कर देती, और अगर मुझे यह पता चला कि वह आदमी भ्रष्ट है, तो मैं उसके बारे में उसके जाने के बाद भी लिखूंगा।
खुशवंत जी मैं भी कुछ ऐसा ही कर रहा हूँ, जो आलोचनीय है उसकी आलोचना और जो प्रशंसनीय है उसकी प्रशंसा…न काहु से दोस्ती न काहु से बैर। अलविदा खुशवंत सिंह जी।
अजित कुमार राय। संपर्कः 9450151999, 9807206652