दिल्ली रेप कांड को आज एक साल पूरा हो गया। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आखिरकर इस एक साल में देश की महिलाओं की स्थिति में क्या बदलाव आये। क्या महिलाएं देश में सुरक्षित हो गयी हैं। क्या महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों का ग्राफ नीचे आया है। क्या महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के लिये बने कानून अपराधियों पर नकेल कस पा रहे हैं। क्या पुलिस, प्रशासन और सरकार महिला अपराधों के प्रति पहले से ज्यादा संवेदनशील और संजीदा हुई है। क्या समाज का नजरिया बदला है? क्या महिलाएं अपनी सुरक्षा को लेकर सचेत हुई हैं? क्या महिलाओं ने रेप जैसे मामलों में चुप होकर घर बैठ जाने की बजाय इनके विरूद्व आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है? क्या देश भर में रेप के मामले की रिपोर्ट दर्ज करवाने की दर में बढ़ोतरी हुई है?
ये वो तमाम सवाल है जो देश के सामने मुंह बाए खड़े हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली रेप कांड ने देश की आत्मा को झकझोरने, महिलाओं और बच्चियों के प्रति संवेदनशल तरीके से सोचने और सम्मान देने को विवश किया है। वहीं महिलाओं को भी अपने हक और हुकूक के लिए लड़ने की शक्ति प्रदान की है। दामिनी तो आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उसके बलिदान ने देश भर में महिला अधिकारों के प्रति नये सिरे से बहस शुरू करने के साथ ही नयी पीढ़ी को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम भी किया है। आंकड़ों की जुबानी यह कहा जा सकता है कि दामिनी कांड के बाद देश में बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी हुई है लेकिन इस तस्वीर का उजला पक्ष यह भी है कि ऐसे मामलों को लेकर समाज का नजरिया बदला है और अब महिलाएं ऐसे मामलों में बदनामी के डर से घर बैठने की बजाय अपराध व अपराधी की खिलाफ आवाज बुलंद करने से डरती नहीं हैं। सुधार व विकास एक सतत प्रक्रिया है दामिनी ने अपने प्राण देकर देश में महिला अधिकारों, सशक्तीकरण, समाज के नजरिये को बदलने और महिलाओं को शक्ति संपन्न बनाने और खुद महिलाओं की सोच बदलने प्रक्रिया को जन्म देने का महान काम किया है।
वहीं तस्वीर का स्याह पक्ष यह है। कि 16 दिसम्बर की घटना और उसके बाद पूरे देश में हुये भारी विरोध प्रदर्शन के बाद भी राजधानी दिल्ली में बलात्कार की घटनायें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मुंबई में प्रेस फोटोग्राफर के साथ घटी घटना ने दुनियाभर में देश का मान सम्मान गिराने का काम किया। जब देश की राजधानी और मुंबई जैसे आधुनिक शहर में महिलाएं सुरक्षित नहीं है तो वो कहां सुरक्षित होंगी ये बड़ा सवाल है। दामिनी हत्याकांड के चौबीस घण्टे में दिल्ली में बलात्कार की तीन जघन्यतम घटनायें प्रकाश में आयी थीं। इन घटनाओं ने मानवता को तार-तार कर दिया है। दिल्ली के विभिन्न इलाकों से एक 19 साल की युवती समेत एक पांच साल की बच्ची और एक ढाई साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म का मामला प्रकाश में आया है। दिल्ली के गांधीनगर इलाके में पांच साल के बच्ची को अपहृत कर उसके साथ जिस प्रकार की निर्ममता एवं निर्दयता हुई है उसे सुनकर आत्मा कांप उठती है। आज बच्चियां अपने आंगन तक में सुरक्षित नहीं हैं। समाज में महिलाओं के प्रति इस तरह बढ़ते अत्याचारों को रोकने में पुलिस, प्रशासन समेत सरकार पूरी तरह असफल सिद्ध हुई है तभी तो दिसम्बर में घटित घटना के बाद जिस पर पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुआ था, लगभग हर दिन दिल्ली एक नहीं कई बलात्कार की घटनायें लगातार प्रकाश में आ रही हैं। पुलिस-प्रशासन द्वारा किये गये वादे केवल हाथी दांत सिद्ध हो रहे हैं। वे किसी भी प्रकार से महिलाओं की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं हैं। आज देश की राजधानी का कोई भी कोना महिलाओं के लिये सुरक्षित नहीं है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं। दिल्ली में 2010 में 507, 2011 में 572, 2012 में 706 बलात्कार के मामले दर्ज किये गये थे। 2012 में दिल्ली रेप कांड के बाद दिल्ली में ऐसी घटनाओं में कमी की बजाय इजाफा हुआ है। इस साल 31 अक्टूबर तक दिल्ली में 1330 मामले दर्ज हुए हैं। दामिनी रेप कांड के बाद पुलिस ऐसे मामलों में संवेदनशील हुई है इसलिए ऐसे अपराध रिकार्ड में दर्ज होने लगे है यह भी हो सकता है कि अब महिलाएं चुप रहने की बजाय अपने प्रति हुये अत्याचार को जाहिर करने में झिझकती नहीं है। आसाराम, नारायण साईं, तरूण तेजपाल का बलात्कार के मामलों में जेल जाना इस बात को पुख्ता करता है कि महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत हुई हैं।
बच्चियों के साथ बढ़ती हुई आपराधिक घटनायें एवं ऐसी घटनाओं में परिचितों की संलिप्तता बहुत ही चिन्ता का विषय है कि समाज आखिर किस ओर बढ़ रहा है? समाज का इस तरह नैतिक पतन एक बहुत बड़ी खतरे की घण्टी है। सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब सुरक्षा की बात करने वाले हमारे रक्षक पुलिस-प्रशासन घटना घटने के बाद भी सजग नहीं दिखते। सजगता की तो बात तक दूर है एफआईआर तक दर्ज करने में आनाकानी करते हैं। प्रशासन की अक्षमता देखकर यही लगता है कि कहीं न कहीं पुलिस-प्रशासन एवं सरकार में ऐसी घटनाओं को रोकने के प्रति इच्छाशक्ति में कमी है और वे आंख मूंदकर यही सोच रहे हैं कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो या कोई अलादीन का चिराग आकर सारी समस्याओं को खत्म कर देगा। सरकार को इन घटनाओं को न रोक पाने का जवाब देना ही होगा। ऐसे ढुलमुल रवैये से काम नहीं चलेगा। कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा और कोई कारगर कदम उठाने के बाजय केवल बातें होती रहेंगी। यह साफ जाहिर है कि केवल कानून बना देने से घटनाओं पर अंकुश नहीं लगने वाला। आवश्यकता है उन कानूनों को सख्ती से लागू करने की और समाज में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति के मूल कारण पहचानने और उस तक जाने की।
देश में महिलाओं के प्रति अत्याचार, दुष्कर्म व यौन उत्पीड़न की घटनाओं की चर्चा खूब हो रही है। केवल चर्चा ही न हो इन घटनाओं को रोकने के सार्थक उपाय भी हों, क्योंकि ऐसी घटनाओं को कोई महिला या लड़की जीवनभर भूल नहीं पाती है। बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य की शिकार महिलाओं व बालिकाओं का जीवन उनके लिए अभिशाप बन जाता है। कुछ महिलाएं तो इन घटनाओं के बाद इतनी विक्षिप्त हो जाती हैं कि वे आत्महत्या तक कर लेती हैं। बालिकाओं व महिलाओं के साथ छेड़छाड़, उन पर ताने, व्यंग्य व फब्तियां कसना तो एक आम बात हो गई है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रति मिनट 106 महिलाएं छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। एक अन्य अनुमान में भी देश में महिलाओं के प्रति बढ़ते उत्पीड़न व अत्याचारों की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया गया है कि देश में प्रत्येक 29 मिनट में एक दुष्कर्म, 19 मिनट में एक हत्या, 77 मिनट में एक दहेज मृत्यु, 23 मिनट में एक अपहरण, 3 मिनट में हिंसा व 10 मिनट में एक धोखाधड़ी होती है।
आंकडों पर गौर करें तो बलात्कार के अधिकतर मामले में अपराधी सजा से बच जा रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं पर होने वाले समग्र अत्याचारों में सजा केवल 30 फीसदी गुनाहगारों को ही मिल पाती है। बाकी तीन चौथाई बच जाते हैं। इसका कारण वे सबूतों को मिटाने में सफल रहते हैं या पैसे के बल पर पीड़ित पक्ष से समझौता कर अपनी जान बचा लेते हैं। ऐसे में अगर गुनाहगारों का हौसला बुलंद होता है या वे दूसरों के लिए जुल्म की नजीर बनते हैं तो अस्वाभाविक नहीं है। दिल्ली की गैंगरेप की घटना केवल एक व्यक्ति या कुछ लोगों की घिनौनी कारस्तानी व नीचता की पराकाष्ठा नहीं है बल्कि यह हमारे समूचे सामाजिक तंत्र की विद्रुप सोच, असंवेदनशील आचरण और अस्थिर चरित्र की घटिया बानगी भी है। 16 दिसंबर की घटना को रोका जा सकता था यदि पुलिस वास्तव में थोड़ा सचेत होती और प्रशासन मुलायम तकियों पर सिर रखकर गहरी नींद नहीं सो रहा होता। घटनायें घटित होंने पर बयानबाजी की झड़ी लग जाती है, लेकिन जमीनी तौर पर सुधार के लिये कोई कोशिश नहीं होती। इसी का दुष्परिणाम है रोज इतने मासूमों की जिन्दगियां बर्बाद हो रही हैं और वे बिना किसी अपराध के बलात्कार का शारीरिक और मानसिक कष्ट भोगने को विवश हैं। दिल्ली रेप कांड ने देश में महिलाओं के प्रति होने वाले जघन्य अपराधों के प्रति समाज को सोचने को मजबूर किया है और कुछ सुधारात्मक कार्रवाइयां सरकार और समाज के स्तर पर हुई भी हैं। जरूरत महिलाओं के प्रति समाज, सरकार, पुलिस व प्रशासन को और ज्यादा संवेदनशील बनाने की है।