प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत हरीश जी रावत
माननीय मुख्यमंत्री,
उत्तराखंड शासन, देहरादून।
आदरेय,
श्री रावत जी सादर नमस्कार।
उत्तराखंड राज्य में मुख्यमंत्री मनोनीत होने पर आपको बधाई। यद्यपि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में यहां पर बधाई देना इसलिये उचित प्रतीत नहीं हो रहा है कि प्राकृतिक आपदा की मार और स्थापना के तेरह वर्षों में कुनीति और अदूरदर्शिता से राजनीतिज्ञों और नौकरशाही के हाथों लुट-पिट चुके इस राज्य में बधाई और उत्सव जैसे शब्द बेईमानी साबित होते हैं। चूंकि वर्ष 2002 के चुनावों से आज तक आपकी अभीप्सा भी थी और सही मायने में आपका हक भी था अतः आपको अब मिले ऐसे सुयोग की व्यक्तिशः बधाई।
जैसा कि आप विज्ञ हैं और मेरी स्मृति के अनुसार मैं नब्बे के दशक से आपके राजनैतिक जनसंघर्षों का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं। उत्तराखंड को एक आदर्श पर्वतीय राज्य के रूप में देखने की टीस का मैं भी हम विचारक हूं, परन्तु राज्य स्थापना के तेरह वर्षों में निराशा का जो कुहासा छाया है उसमें आशा की किरण टटोलना एक दुष्कर कार्य है। परन्तु अपने लंबे और गहन राजनैतिक अनुभवों के बाद आपने चुनौती स्वीकार की है तो इसे राज्य के सुखद भविष्य के रूप में देखना इस राज्य की आशावादिता को मजबूत करता है।
यद्यपि यह सब मैं आपके समकक्ष पूर्व महानुभावों को भी लिखना चाहता था, परन्तु लिखने के अवसर इसलिये प्रासंगिक नहीं लगे कि उनमें से तो कुछ तो इतने अनुभवजन्य थे कि उन्हें लिखना उचित प्रतीत नहीं हुआ और बाकी ऐसे थे कि उनके लिए लिखना या न लिखना कोई मायने नहीं रखता।
मुझे याद पड़ता है कि आपकी और मेरी व्यक्तिगत चर्चाओं में आपने कई बार अपनी विपन्न पारिवारिक प्रष्ठभूमि का जो जिक्र किया था वह आज भी मेरा आदर्श है कदाचित इन्ही परिस्थितियों ने आपके संघर्ष को संबल प्रदान किया और मेरी नजर में आपने आशातीत सफलतायें अर्जित की हैं। वस्तुतः उत्तराखंड का वास्तविक आम आदमी (राजनैतिक शब्दावली का आम आदमी नहीं) आज भी विपन्नताओं से जूझ रहा है। इस राज्य के आकाओं ने अंधा बांटे रेवड़ी की तर्ज पर अपने-अपनों की पीढ़ियों का भला कर लिया है परन्तु इस राज्य का आम जन खुद को ठगा-ठगा महसूस कर रहा है। आपने उत्तराखंड को पृथक राज्य की बजाय हिल काउंसिल और केन्द्र शासित राज्य की पुरजोर वकालत की थी काश। ऐसा हुआ होता तो राज्य के भीतर नवधनाढ्य राजनीतिज्ञों की इतनी बड़ी फौज नहीं होती।
आपने सत्ता संभाली है तो निश्चित रूप से पतझड़ के बाद बसन्त ऋतु के आगमन बेला में। सच्चाई भी है कि इस राज्य में पतझड़ की वीरानगी जैसी वास्तविक स्थितियां बनी हैं आपकी ताजपोशी उत्तराखंड के लिये वसन्त ऋतु जैसी खुशहाली का सुखद अहसास करा सके ऐसी मेरी अपेक्षा भी है और परमपिता से प्राथना भी।
राज्य की दशा और दिशा को सुधारने के लिये मेरा विनम्र आग्रह है कि आपको खुद की करनी और कथनी से हिमांचल का वाई.एस. परमार साबित करना होगा वस्तुतः दुर्भाग्य है कि उत्तराखंड को आज तक परमार नहीं मिल सका। चलो, जब जागो तब सवेरा, हम इसे ही उत्तराखंड राज्य की प्रभात बेला मान लें यहीं से नयी नज़ीर शुरू की जा सकती है परन्तु इस सबके लिये क्षेत्र, जाति, वर्ग और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कड़े व ठोस निर्णय लिये जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। मेरी नजर में राज्य के दीर्घकालिक संपोषित विकास हेतु कतिपय मुख्य बिन्दु निम्नवत हैं-
० राज्य द्वारा संचालित कार्यक्रमों और विकास योजनाओं का ईमानदारी पूर्वक नियमित अनुश्रवण, जो आज तक संभव नहीं हो सका है।
० निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की गतिशीलता को बढ़ाकर राज्यव्यापी किया जाना, प्रायः देखा गया है कि राज्य के मंत्री और दायित्वधारी अपने निर्वाचन क्षेत्र से दून तक ही सीमित हो जा रहे हैं।
० मितव्ययिता, स्वागत समारोहों से दूरी, लाव लश्कर में कमी जनआकांक्षाओं को पूरा भी करेगी और राज्य की समृद्धि भी होगी।
० पर्वतीय राज्य की पर्वतीय और भौगोलिक केन्द्र की स्थाई राजधानी।
० जल, जंगल, जमीन इस राज्य के मुख्य संसाधन आंके जरूर गये हैं परन्तु दुर्भाग्य है कि निवेश-विनिवेश के लिये इनकी एक बाजारू वस्तु के रूप में सौदेबाजी की गयी है, जबकि जन-जंगल-जमीन के साथ जन और जानवर का विनियोग कर राज्य में पांच ‘ज’ आधारित दीर्घकालिक प्रबन्धन की दरकार है।
० राज्य के बड़े बजट से संचालित सरकारी स्वास्थ्य और शिक्षा कार्यक्रम जनता का विश्वास खो चुके हैं और उत्तराखंड शिक्षा व स्वास्थ्य माफिया की भेंट चढ़ रही है और जो राशि स्थाई विकास में खर्च होनी चाहिये थी वह सफेद हाथी बन चुके शिक्षा संस्थानों और चिकित्सालयों के अवसंरचनात्मक विकास और संबन्धितों के ऊंचे वेतन और भत्तों में अनावश्यक रूप से खर्च हो रही है।
० सत्ता, नौकरशाही और जनता के बीच आत्मीयता का कोई तारतम्य नहीं है जो कि जनाधारित विकास की कुंजी होता है।
० बेरोज़गारी और पलायन के मुद्दों को समझा ही नहीं गया है। रोजगार के नाम पर सिड़कुल जैसी प्रक्रियायें फौरी तौर पर उद्योगों की आड़ में जमीनें हथियाना ही साबित हो रहा है। रोजगार की आस में युवा वर्ग हताशा और अवसाद में जी रहा है। मोटी कमाई कर रहे राज्य के शैक्षणिक संस्थान अभिभावकों के सांथ-सांथ इन संस्थानों में तैनात कार्मिकों का खुला आर्थिक शोषण कर रहे हैं। राज्य में शिक्षक की योग्यताधारी बेरोजगारों की संख्या एक लाख के आस पास है इतना तो तय है कि इन सबको सरकारी रोजगार नहीं दिया जा सकता परन्तु सरकार के हस्तक्षेप से क्यों न ऐसा हो कि ये संस्थान इन योग्यताधारियों को सम्मानजनक मेहनताने पर रोजगार मुहैया करायें।
० एक आदर्श स्थिति होगी कि यदि अधिकारिक रूप से अनिवार्य कर दिया जाये कि राज्य के राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और राज्य कार्मिक अनिवार्य रूप से राज्य के स्वास्थ्य और शिक्षा का ही उपयोग करें तो राज्य प्रदत्त इन सुविधाओं की महत्ता भी साबित होगी और इन सबके प्रति खोया हुआ जनविश्वास फिर से लौट सकेगा।
राज्य की स्थिरता और दीर्घकालिकता के लिये मुद्दों और सुझावों की फेरहिस्त बहुत लंबी हो सकती है, परन्तु विपरीत पर्वतीय परिस्थितियों जैसे ही आपके राजनैतिक संघर्षों के आलोक में ऐसे बिन्दु गिनाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। परन्तु मेरा लेखन धर्म मुझे रोक न सका और अति विश्वास व आशाओं के अतिरेक में यह सब लिख डाला है।
अन्यथा न लें आशा-विश्वास और सुझावों का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा। वर्ष 1994 के उत्तराखंड आन्दोलन ज्वार में बागेश्वर के सत्ता विरोधी जनाक्रोश में आप द्वारा उद्बोधित पंक्तियां:- बादलों के दरमियां ये कैसी साजिश हुई। मेरा घर मिट्टी का था वहीं सबसे ज्यादा बारिश हुई।।
आपको ही नजर करते हुए विश्वास व्यक्त किया जा सकता है कि अब किसी भी साजिश और बारिश में भी सहजता कायम रह सकेगी। आपके सशक्त, निष्कलंक और यशस्वी सामाजिक-राजनैतिक जीवन की अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ,
सादर,
शुभाकांक्षी
हरीश जोशी
स्वतंत्र पत्रकार,
निवास- ‘स्वातिधाम’ गरूड़
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