Connect with us

Hi, what are you looking for?

No. 1 Indian Media News PortalNo. 1 Indian Media News Portal

विविध

अनुसूचित जाति आयोग जैसा न हो लोकपाल का हाल

संसद के दोनों सदनों से मंजूरी मिलने के बाद आखिरकार देश को पांच दशक बाद भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बहुप्रतीक्षित लोकपाल मिल गया। आज का सवर्णपरस्त समाज अन्ना को दूसरे महात्मा की उपाधि दे दी है। प्रश्न ये है कि यह किसका लोकपाल है? सरकार का या फिर  अन्ना का? पता नहीं! फिर भी चालीस साल से इसकी मांग हो रही थी क्यों? अन्ना को अनशन क्यों करने पड़े? सांसदों को आधी-आधी रात तक माथापच्ची क्यों करनी पड़ी? अब जब यह बन गया है, अन्ना कह रहे हैं कि यह लोकपाल जिसका भी है, अच्छा है। कम से कम चालीस-पचास फीसदी भ्रष्टाचार तो इससे कम हो ही जाएगा। बताते हैं कि राहुल गांधी ने इस मामले में अगुवाई की। अब अन्ना कम से कम लोकपाल को लेकर तो अनशन नहीं करेंगे। बाकी देखा जाएगा। अन्ना अब राहुल गांधी की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं।

संसद के दोनों सदनों से मंजूरी मिलने के बाद आखिरकार देश को पांच दशक बाद भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बहुप्रतीक्षित लोकपाल मिल गया। आज का सवर्णपरस्त समाज अन्ना को दूसरे महात्मा की उपाधि दे दी है। प्रश्न ये है कि यह किसका लोकपाल है? सरकार का या फिर  अन्ना का? पता नहीं! फिर भी चालीस साल से इसकी मांग हो रही थी क्यों? अन्ना को अनशन क्यों करने पड़े? सांसदों को आधी-आधी रात तक माथापच्ची क्यों करनी पड़ी? अब जब यह बन गया है, अन्ना कह रहे हैं कि यह लोकपाल जिसका भी है, अच्छा है। कम से कम चालीस-पचास फीसदी भ्रष्टाचार तो इससे कम हो ही जाएगा। बताते हैं कि राहुल गांधी ने इस मामले में अगुवाई की। अब अन्ना कम से कम लोकपाल को लेकर तो अनशन नहीं करेंगे। बाकी देखा जाएगा। अन्ना अब राहुल गांधी की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं।

    
वैसे
लोकपाल का जो भी स्वरूप सामने आया है उससे पता चल रहा है, कि यह तो कोई जेल भेजने वाला कानून भर है। मगर इसमें गलत शिकायत पाये जाने पर सजा और जुर्माने का जो प्राविधान किया गया है, उसे लेकर आम आदमी की चिंता वाजिब लगती है। अगर लोकपाल जेल भेजने के लिए ही बनना था, तो उसके लिए तो पहले ही बहुत से कानून थे। बेचारे लालू तो बिना लोकपाल के ही कई बार जेल हो आये हैं। राजा, कनिमोझी, कलमाड़ी भी बिना लोकपाल के जेल हो आये हैं। अरविंद केजरीवाल ने साफ हाथ झाड़ लिये हैं कि जी, हमारा वाला तो है नहीं और अन्ना जी वाला तो बिल्कुल भी नहीं है। वह तो जनलोकपाल था। पर यह तो जोकपाल है। इससे नेता तो क्या चूहा भी जेल नहीं जा पायेगा। यह जानकर चूहे मस्त हैं। अब वे सरकारी गोदामों का अनाज एकदम तनावमुक्त होकर चट कर सकते हैं। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि चूहा तो क्या, इससे तो शेर भी जेल जायेगा। इससे शेर बेचारे और डर गये हैं। शिकारियों-तस्करों के चलते जिंदगी तो उनकी पहले ही खतरे में थी, पर अब तो देर-सबेर जेल भी जाना पड़ेगा। नेताओं ने समझा था कि लोकपाल उनके खिलाफ है, लेकिन उन्हें लोकपाल मिल गया। इस चक्कर में राजनीति थोड़ी-बहुत उनके हाथ से खिसक गई हो। यानी जो जिसको नहीं चाहिए था, वही उन सबको मिला।
    
लोकपाल पर अन्ना और केजरीवाल के बयानों और सोच में जमीन-आसमान का अन्तर है। इस अन्तर की समीक्षा में जब हम अन्य संवैधानिक संस्थाओं के गठन के पूर्व के संघर्षों, घोषणाओं, नियमों और उसके अमल करने के तरीके पर आते हैं तो केजरीवाल की बातों में कुछ दम नजर आने लगता है । उल्लेखनीय है कि समाज के सबसे पीडि़त तबके अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के लिए संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत गठित एक सदस्यीय आयोग सन् 1951 से कार्य कर रहा था जिसे अनुसूचित जातियों एवं जन जातियों के आयुक्त के नाम से जाना जाता था। उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। उसके स्तर को ऊंचा उठाने तथा विस्तृत अधिकार देने के लिए जनता पार्टी के शासनकाल में सन् 1978 में कार्यकारी आदेश के तहत श्री भोला पासवान शास्त्री की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय आयोग बनाया गया। उसे संवैधानिक दर्जा देने एवं शक्तिशाली बनाने के लिए सत्तारूढ़ दल के साथ विपक्षी दलों एवं दलितों के उदीयमान नेता राम विलास पासवान ने लगातार ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए रखा। बहुसदस्यीय आयोग को 65वें संविधान संशोधन द्वारा सन् 1992 में संवैधानिक दर्जा मिला और आयुक्त का पद समाप्त कर दिया गया।
    
तत्कालीन केन्द्र की सरकार ने संविधान के विरूद्ध चुपके से नियमावली बनाते समय आयोग के कार्यकाल को 5 वर्ष से घटाकर 3 वर्ष और उसमें राजनीतिक व्यक्ति को भी आयोग में पदस्थापित करने का प्राविधान कर दिया। जबकि संविधान के अनुच्छेद 338 का अवलोकन करने पर पता चलता है कि इसमें कहीं भी राजनीतिक नियुक्ति का प्राविधान नहीं है। जब कुछ लोगों और संगठनों द्वारा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के दलीय राजनीति में भाग लेने का मामला उठाया गया तो सरकार ने मंत्रिमंडल से राजनीतिक नियुक्ति के समर्थन में नियमावली बनवा ली। यह आयोग व्यवहार में अपनी प्रभावशीलता, निष्पक्षता, पारदर्शिता और उपयोगिता को खो चुका है। राम विलास पासवान, उदित राज और दलितों के बड़े प्रतिनिधियों ने सरकार से मिली भगत कर ली और इसके विरूद्ध कोई आवाज नहीं उठायी।

आज सैद्धान्तिक तौर पर अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए बनाए गए शक्तिशाली आयोग व्यवहार में किसि भी सत्तारूढ़ दल का अनुसूचित जाति/जनजाति प्रकोष्ठ(सेल) के रूप में बंधुआ मजदूर आयोग बन कर रह गया है। नियमतः आयोग को स्वायत्त, निष्पक्ष और पारदर्शी बनाया गया है। इसे सिविल कोर्ट के अधिकार दिये गये हैं। इसे प्रतिवर्ष अपनी वार्षिक रिपोर्ट तथा बीच में भी आवश्यकतानुसार रिपोर्ट देने का अधिकार है। राष्ट्रपति को ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद और संबंधित विधान सभाओं में एक्शन टेकेन रिपोर्ट के साथ रखवाने और चर्चा करने का संवैधानिक अधिकार है। पर यह वार्षिक रिपोर्ट भी चार-पांच साल के अन्तराल पर ही दी जाती है और उसे भी सरकार चार-पांच साल तक अपने पास रखे रहती है। आज पी. एल. पूनिया, बाराबंकी से कांग्रेस सांसद, को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर सरकार द्वारा संवैधानिक प्राविधानों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। पूनिया राष्ट्रीय आयोग का कांग्रेस पार्टी के सेल के रूप में बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं।
        
आज तक किसी भी राजनीतिक पार्टी और दलितों के किसी भी सामाजिक राजनीतिक संगठन ने इसका सक्रिय रूप से विरोध नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी नेता देर-सबेर इस कुर्सी को पाने की आशा लगाये बैठे हैं। राष्ट्रीय आयोग के बारे में ‘‘पिंजरे का शेर है राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/जन जाति आयोग’’ संबंधी एक महत्वपूर्ण शोधपरक आलेख ‘‘सम्यक भारत’’ नई दिल्ली मासिक पत्रिका के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित हुआ था। यह आलेख सरकार की दुर्भावना और राजनीतिक दलों की चुप्पी को बड़े ही सिलसिलेवार ढ़ंग से उजागर करता है।
        
आज हमें राष्ट्र को सार्थक दिशा मे ले जाने के लिए नेक-नीयत, इच्छाशक्ति और आत्मबल की ज़रूरत है। जहां तक लोकपाल कानून की बात है यह लोकपाल को जांच, अभियोजन और दंड के अधिकार देता है। कुछ लोग इसे लोकतंत्र और देश की सम्प्रभुता के लिए खतरा कह रहे हैं। यह अनुच्छेद 245 के तहत भारत के संविधान के खिलाफ है। अन्तर्राष्ट्रीय फंडिंग से ताकतवर बने कुछ एनजीओ वालों ने मीडिया और ग्लोबलाईजेशन की अर्थनीति से जिस तरह भ्रष्टाचार के खात्मे की आड़ में लोगों को भ्रमित कर बहुजन राजनीति को हाशिये पर पहुंचाने का काम किया है वह विचारणीय है। लोकपाल के पीछे छिपा एजेंडा राजनीतिक प्रणाली के रूप में लोकतंत्र का निजीकरण है। देश इस समय दोराहे पर खड़ा है। राजनीतिक लोग अपना स्वार्थ तलाश रहे हैं। इसके अलावा लोकपाल के सामने आने वाले मामलों को यदि समयबद्ध तरीके से नहीं निपटाया जा सका, तब इसकी स्थिति हमारी अदालतों जैसी ही हो जायेगी, जहां आज तीन करोड़ से अधिक मामले वर्षों से लंबित हैं। मगर यह छद्म आभास क्या लोगों की सोच को बदल सकता है, या वे अपनी समझ और अनुभव पर यकीन करेंगे? उपर्युक्त पर नजर डालने पर अतीत का अनुभव बताता है कि लोकपाल के साथ भी ऐसा हो सकता है। क्या केजरीवाल की बात सच होने जा रही है ?

लेखक अमित सिंह से संपर्क उनके मोबाइल-9457357300 पर किया जा सकता है।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

… अपनी भड़ास [email protected] पर मेल करें … भड़ास को चंदा देकर इसके संचालन में मदद करने के लिए यहां पढ़ें-  Donate Bhadasमोबाइल पर भड़ासी खबरें पाने के लिए प्ले स्टोर से Telegram एप्प इंस्टाल करने के बाद यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia 

Advertisement

You May Also Like

विविध

Arvind Kumar Singh : सुल्ताना डाकू…बीती सदी के शुरूआती सालों का देश का सबसे खतरनाक डाकू, जिससे अंग्रेजी सरकार हिल गयी थी…

सुख-दुख...

Shambhunath Shukla : सोनी टीवी पर कल से शुरू हुए भारत के वीर पुत्र महाराणा प्रताप के संदर्भ में फेसबुक पर खूब हंगामा मचा।...

विविध

: काशी की नामचीन डाक्टर की दिल दहला देने वाली शैतानी करतूत : पिछले दिनों 17 जून की शाम टीवी चैनल IBN7 पर सिटिजन...

प्रिंट-टीवी...

जनपत्रकारिता का पर्याय बन चुके फेसबुक ने पत्रकारिता के फील्ड में एक और छलांग लगाई है. फेसबुक ने FBNewswires लांच किया है. ये ऐसा...

Advertisement