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हिन्दी फिल्म अध्ययन : ‘माधुरी’ का राष्ट्रीय राजमार्ग (एक)

बहुतेरे लोगों को याद होगा कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की फ़िल्म पत्रिका माधुरी हिन्दी में निकलने वाली अपने क़िस्म की अनूठी लोकप्रिय पत्रिका थी, जिसने इतना लंबा और स्वस्थ जीवन जिया। पिछली सदी के सातवें दशक के मध्य में अरविंद कुमार के संपादन में ''सुचित्रा'' नाम से बंबई से शुरू हुई इस पत्रिका के कई नामकरण हुए, वक़्त के साथ संपादक भी बदले, तेवर-कलेवर, रूप-रंग, साज-सज्जा, मियाद व सामग्री बदली तो लेखक-पाठक भी बदले, और जब नवें दशक में इसका छपना बंद हुआ तो एक पूरा युग बदल चुका था।

बहुतेरे लोगों को याद होगा कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की फ़िल्म पत्रिका माधुरी हिन्दी में निकलने वाली अपने क़िस्म की अनूठी लोकप्रिय पत्रिका थी, जिसने इतना लंबा और स्वस्थ जीवन जिया। पिछली सदी के सातवें दशक के मध्य में अरविंद कुमार के संपादन में ''सुचित्रा'' नाम से बंबई से शुरू हुई इस पत्रिका के कई नामकरण हुए, वक़्त के साथ संपादक भी बदले, तेवर-कलेवर, रूप-रंग, साज-सज्जा, मियाद व सामग्री बदली तो लेखक-पाठक भी बदले, और जब नवें दशक में इसका छपना बंद हुआ तो एक पूरा युग बदल चुका था।

इसका मुकम्मल सफ़रनामा लिखने के लिए तो एक भरी-पूरी किताब की दरकार होगी, लिहाजा इस लेख में मैं सिर्फ़ अरविंद कुमार जी के संपादन में निकली ''माधुरी'' तक महदूद रहकर चंद मोटी-मोटी बातें ही कह पाऊँगा। यूँ भी उसके अपने इतिहास में यही दौर सबसे रचनात्मक और संपन्न साबित होता है।

माधुरी से तीसेक साल पहले से ही हिन्दी में कई फ़िल्मी पत्रिकाएँ निकल कर बंद हो चुकी थीं, कुछ की आधी-अधूरी फ़ाइलें अब भी पुस्तकालयों में मिल जाती हैं, जैसे, रंगभूमि, चित्रपट, मनोरंजन आदि। ये जानना भी दिलचस्प है कि हिन्दी की साहित्यिक मुख्यधारा की पत्रिकाओं – मसलन, सुधा, सरस्वती, चाँद, माधुरी – में भी जब-तब सिनेमा पर गंभीर बहस-मुबाहिसे, या, चूँकि चीज़ नई थी, बोलती फ़िल्मों के आने के बाद व्यापक स्तर पर लोकप्रिय हुआ ही चाहती थी, तो सिनेकला के विभिन्न आयामों से ता'रुफ़ कराने वाले लेख भी छपा करते थे। फ़िल्म माध्यम की अपनी नैतिकता से लेकर इसमें महिलाओं और साहित्यकारों के काम करने के औचित्य, उसकी ज़रूरत, भाषा व विषय-वस्तु, नाटक/पारसी रंगकर्म/साहित्य से इसके संबंध से लेकर विश्व-सिनेमा से भारतीय सिनेमा की तुलना, सेंसरशिप, पौराणिकता, श्लीलता-अश्लीलता, सार्थकता/अनर्थकता/सोद्देश्यता आदि नानाविध विषयों पर जानकार लेखकों ने क़लम चलाई। इनमें से कुछ शुद्ध साहित्यकार थे, पर ज़्यादातर फ़िल्मी दुनिया से किसी न किसी रूप से जुड़े लेखक ही थे।

इन लेखों से हमें पता चलता है कि पहले भले हिंदू घरों की औरतों का फ़िल्मी नायिका बनना ठीक नहीं समझा जाता था, वैसे ही जैसे कि उनका नाटक करना या रेडियो पर गाना अपवादस्वरूप ही हो पाता था। पौराणिक-ऐतिहासिक भूमिकाएँ करने वाली मिस सुलोचना, मिस माधुरी आदि वस्तुत: ईसाई महिलाएँ थीं, जिन्होंने बड़े दर्शकवर्ग से तादात्म्य बिठाने के लिए अपने नाम बदल लिए थे। पारसी थिएटर का सूरज डूबने लगा था, ऐसी स्थिति में रेडियो या सिनेमा के लिए गानेवालियाँ 'बाई' या 'जान' के प्रत्यय लगाने वाली ही हुआ करती थीं। पुराने ग्रामोफोन रिकॉर्डों पर भी आपको वही नाम ज़्यादातर मिलेंगे। अगर आपने अमृतलाल नागर की बेहतरीन शोधपुस्तक ये कोठेवालियाँ पढ़ी है, तो आपको अंदाज़ा होगा कि मैं क्या अर्ज़ करने की कोशिश कर रहा हूँ।

हिन्दी लेखकों ने ज़्यादा अनुभवी नारायण प्रसाद 'बेताब' या राधेश्याम कथावाचक या फिर बलभद्र नारायण 'पढ़ीस' की इल्तिजा पर ग़ौर न करते हुए प्रेमचंद जैसे लेखकों के मुख़्तसर तजुर्बे पर ज़्यादा ध्यान दिया, जो कि हक़ीक़तन कड़वा था। उन्होंने आम तौर पर फ़िल्मी दुनिया को भ्रष्ट पूंजीपतियों की अनैतिक अय्याशी का अड्डा माना, माध्यम को संस्कार बिगाड़ने वाला 'कुवासना गृह' समझा, उसे छापे की दुनिया में होने वाले घाटे की भरपाई करके वापस वहीं लौट आने के लिए थोड़े समय के लिए जाने वाली जगह समझा। पर पूरी तरह चैन भी नहीं कि उर्दू वालों ने एक पूरा इलाक़ा क़ब्ज़िया रखा है। हिन्दी और उर्दू के साहित्यिक जनपद के बुनियादी फ़िल्मी रवैये में अगर फ़र्क़ देखना चाहते हैं तो मंटो को पढ़ें, फिर उपेन्द्रनाथ अश्क और भगवतीचरण वर्मा के सिनेमाई संस्मरण, रेखाचित्र या उपन्यास पढ़ें। भाषा के सवाल पर गांधी जी से भी दो-दो हाथ कर लेने वाले हिन्दी के पैरोकार, अपवादों को छोड़ दें तो, अपने सिनेमा-प्रेम के मामले में काफ़ी समय तक गांधीवादी ही रहे।   

बेशक स्थिति धीरे-धीरे बदल रही थी, पर 1964 में जब माधुरी निकली तब तक इसके संस्थापक संपादक के अपने अल्फ़ाज़ में "सिनेमा देखना हमारे यहाँ क़ुफ़्र समझा जाता था।" उन्होंने इस क़ुफ़्र सांस्कृतिक कर्म को हिन्दी जनपद में पारिवारिक-समाजिक स्वीकृति दिलाने में अहम ऐतिहासिक भूमिका अदा की। माधुरी ने कई बड़े-छोटे पुल बनाए, जिसने सिनेमा जगत और जनता को तो आपस में जोड़ा ही, सिनेमा को साहित्य और राजनीतिक गलियारों से, विश्व-सिनेमा को भारतीय सिनेमा से, हिन्दी सिनेमा को अहिन्दी सिनेमा से, और सिनेमा जगत के अंदर के विभिन्न अवयवों को भी आपस में जोड़ा। पत्रिका की टीम छोटी-सी थी, और इतनी बड़ी तादाद में बन रही फ़िल्मों की समीक्षा, उनके बनने की कहानियों, फ़िल्म समाचारों, गीत-संगीत की स्थिति, इन सबको अपनी ज़द में समेट लेना सिर्फ़ माधुरी की अपनी टीम के ज़रिए संभव नहीं था। अपनी लगातार बढ़ती पाठक संख्या का रुझान भाँपते हुए, उसके सुझावों से बराबर इशारे लेते हुए माधुरी ने उनसे सक्रिय योगदान की अपेक्षा की और उसके पाठकों ने उसे निराश नहीं किया। प्रकाशन के तीसरे साल में प्रवेश करने पर छपा यह संपादकीय इस संवाद के बारे में बहुत कुछ कहता है:

हिन्दी में सिनेपत्रकारिता सभ्य, संभ्रांत और सुशिक्षित परिवारों द्वारा उपेक्षित रही है। सिनेमा को ही अभी तक हमारे परिवारों ने पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है। फ़िल्में देखना बड़े-बूढ़े उच्छृंखलता की निशानी मानते हैं। कुछ फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों के सस्तेपन से इस धारणा की पुष्टि की है। ऐसी हालत में फ़िल्म पत्रिका का परिवारों में स्वागत होना कठिन ही था।

सिनेमा आधुनिक युग का सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक मनोरंजन बन गया है। अत: इससे दूर भागकर समाज का कोई भला नहीं किया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसमें गहरी रुचि लेकर इसे सुधारें, अपने विकासशील राष्ट्र के लायक़ बनाएँ। नवयुवक वर्ग में सिनेमा की एक नयी समझ उन्हें स्वस्थ मनोरंजन का स्वागत करने की स्थिति में ला सकती है। इसके लिए जिम्मेदार फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता स्पष्ट है। मैं कोशिश कर रही हूँ फ़िल्मों के बारे में सही तरह की जानकारी देकर मैं यह काम कर सकूँ। परिवारों में मेरा जो स्वागत हुआ है उसको देख कर मैं आश्वस्त हूँ कि मैं सही रास्ते पर हूँ। आत्मनिवेदन: (11 फ़रवरी, 1966).

इस आत्मनिवेदन को हम पारंपरिक उच्च-भ्रू संदर्भ की आलोचना के साथ-साथ पत्रिका के घोषणा-पत्र और इसकी अपनी आकांक्षाओं के दस्तावेज़ के रूप में पढ़ सकते हैं। पत्रिका गुज़रे ज़माने के पूर्वग्रहों से जूझती हुई नयी पीढ़ी से मुख़ातिब है, सिनेमा जैसा है, उसे वैसा ही क़ुबूल करने के पक्ष में नहीं, उसे 'विकासशील राष्ट्र के लायक़' बनाने में अपनी सचेत जिम्मेदारी मानते हुए पारिवारिक तौर पर लोकप्रिय होना चाहती है। कहना होगा कि पत्रिका ने घोर आत्मसंयम का परिचय देते हुए पारिवारिकता का धर्म बख़ूबी निभाया, लेकिन साथ ही 'करणीय-अकरणीय' की पारिभाषिक हदों को भी आहिस्ता-आहिस्ता सरकाने की चतुर कोशिशें भी करती रही। भले ही इस मामले में यह अपने भगिनी प्रकाशन 'फ़िल्मफ़ेयर'-जैसी 'उच्छृंखल' कम से कम समीक्षा-काल में तो नहीं ही बन पाई। बक़ौल अरविंद कुमार, जब पत्रिका की तैयारी चल रही थी, तो सुचित्रा की पहली प्रतियाँ सिनेजगत के कई बुज़ुर्गों को दिखाई गईं। उनमें से वी शांताराम की टिप्पणी थी कि इस पर फ़िल्मफ़ेयर का बहुत असर है। यह बात अरविंद जी को लग गई गई, और उन्हें ढाढ़स भी मिला। लिहाज़ा, माधुरी ने अपना अलग हिन्दीमय रास्ता अख़्तियार किया, और मालिकों ने भी इसे पर्याप्त आज़ादी दी। अनेक मनभावन सफ़ेद स्याह, और कुछ रंगीन चित्रों और लोकार्षक स्तंभों से सज्जित माधुरी जल्द ही संख्या में विस्तार पाते बड़े-छोटे शहरों के हिन्दी-भाषी मध्यवर्ग की अनिवार्य पत्रिका बन गई, जिसमें इसके शाफ़-शफ़्फ़ाफ़ और मेहनतपसंद संपादन – मसलन, प्रूफ़ की बहुत कम ग़लतियाँ होना – का भी हाथ रहा ही होगा। यहाँ 'मध्यवर्ग की पत्रिका' का लेबल चस्पाँ करते हुए हमें उन चाय और नाई की दुकानों को नहीं भूलना चाहिए, जहाँ पत्रिका को व्यापकतर जन समुदाय द्वारा पढ़ा-देखा-पलटा-सुना जाता होगा। अभाव से प्रेरित ही सही, लेकिन हमारे यहाँ ग्रामोफोन से लेकर सिनेमा-रेडियो-टीवी, पब्लिक फोन, और इंटरनेट(सायबर कैफ़े, ई-चौपाल) तक के आम अड्डों में सामूहिक श्रवण-वाचन-दर्शन-विचरण का तगड़ा रिवाज रहा है। संगीत रसास्वादन वॉकमैन और मोबाइल युग में आकर ही निजी होने लगा है। तो इस वृहत्तर पाठक-वर्ग तक फ़िल्म जैसे माध्यम को संप्रेषित करने के लिए माक़ूल शब्दावली जुटाने में मौजूदा शब्दों में नये अर्थ भरने से लेकर नये शब्दों की ईजाद तक की चुनौती संपादकों और लेखकों ने उठाई लेकिन अपरिचित को जाने-पहचाने शब्दों  और साहित्यिक चाशनी में लपेट कर कुछ यूँ परोसा कि पाठकों ने कभी भाषायी बदहज़मी की शिकायत नहीं की। शब्दों से खेलने की इस शग़ल को गंभीरता से लेते हुए अरविंद जी ने अगर आगे चलकर शब्दकोश-निर्माण में अपना जीवन झोंक दिया तो किमाश्चर्यम, कि यह काम भी क्या ख़ूब किया!

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सिने-जनमत सर्वेक्षण

बहरहाल, पूछने लायक़ बात है कि माधुरी के लिए सिनेमा के मायने क्या थे। ऊपर के इशारे में ही जवाब था – विशद-विस्तृत। पत्रिका ने न केवल दुनिया-भर में बन रहे महत्वपूर्ण चित्रों या चित्रनिर्माण की कलात्मक-व्यावसायिक प्रवृत्तियों पर अपनी नज़र रखी, बल्कि कैसे बनते थे/बन रहे हैं,  इनका भी गाहे-बगाहे आकलन पेश किया, ताकि फ़िल्मी दुनिया में आने की ख़्वाहिश रखने वाले – लेखक, निर्देशक, अभिनेता, गायक – ज़रूरी हथियारों से लैस आएँ, या जो नहीं भी आएँ, वे जादुई रुपहले पर्दे के पीछे के रहस्य को थोड़ा बेहतर समझ पाएँ। इस लिहाज से ये ग़ौरतलब है कि माधुरी ने अपने पन्नों में सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेताओं को जगह नहीं दी, बल्कि तकनीकी कलाकारों – छायाकारों, ध्वनि-मुद्रकों और 'एक्स्ट्राज़' को भी, ठीक वैसे ही जैसे कि महमूद जैसे 'हास्य'-अभिनेताओं को आवरण पर डालकर, या फ़िल्म और टेलीविज़न इंस्टीट्यूट, पुणे से उत्तीर्ण नावागंतुकों की उपलब्धियों को समारोहपूर्वक छापकर अपनी जनवादप्रियता का पता दिया। उनकी कार्य-पद्धति समझाकर, उनकी मुश्किलों, मिहनत को रेखांकित करते हुए उनकी मानवीयता की स्थापना कर सिनेमा उद्योग के इर्द-गिर्द जो नैतिक ग्रहण ज़माने से लगा हुआ था, उसको काटने में मदद की।   

इस सिलससिले में घुमंतू परिचर्चाओं की दो शृंखलाएँ मार्के की हैं: पहली, जब माधुरी ने मुंबई महानगरी से निकलकर अपना रुख़ राज्यों की राजधानियों और उनसे भी छोटे शहरों की ओर किया ये टटोलने के लिए कि वहाँ के बाशिंदे बन रही फ़िल्मों से कितने मुतमइन हैं, उन्हें उनमें और क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए, आदि-आदि। जवाब में मध्यवर्गीय समाज के वाक्पटु नुमाइंदों ने अक्सरहाँ फ़िल्मों की यथास्थिति से असंतोष जताया, अश्लीलता और फ़ॉर्मूलेबाज़ी की भर्त्सना की, सिनेमा के साहित्योन्मुख होने की वकालत की। इन सर्वेक्षणों के आयोजन में ज़ाहिर है कि माधुरी का अपना सुधारवादी एजेंडा था, लेकिन इनसे हमें उस समय के फ़िल्म-प्रेमियों की अपेक्षाओं का भी पता मिलता है। हमारे पास उनकी आलोचनाओं को सिरे से ख़ारिज करने के लिए फ़िलहाल ज़रूरी सुबूत नहीं हैं, लेकिन ये सोचने का मन करता है कि इन पिटी-पिटाई, और एक हद तक अतिरेकी प्रतिक्रियाओं में उस ढोंगी, उपदेशात्मक सार्वजनिक मुखौटे की भी झलक मिलती है, जो अक्सरहाँ जनता के सामने आते ही लोग ओढ़ लिया करते हैं, भले ही सिनेमा द्वारा परोसे गए मनोरंजन का उन्होंने भरपूर रस लिया हो। मामला जो भी हो, माधुरी ने अपने पाठकों को भी यदा-कदा टोकना ज़रूरी समझा : मसलन, फ़िल्मों में अश्लीलता को लेकर हरीश तिवारी ने जनमत से बाक़ायदा जिरह की और उसे उचित ठहराया। उस अंक में तो नहीं, लेकिन गोया एक सामान्य संतुलन बनाते हुए लतीफ़ घोंघी ने हिन्दी सिनेमा के तथाकथित फ़ोहश दृश्यों की एक पूरी परंपरा को दृष्टांत दे-देकर बताना ज़रूरी समझा। लेकिन फिल्मेश्वर ने चुंबनांकन को लेकर जो मख़ौलिया खिलवाड़ किस न करने वाली भारतीय संस्कृति के साथ किया, वह तो अद्भुत था। थोड़े मुख़्तलिफ़ तरह का एक दूसरा सर्वेक्षण भौगोलिक था। याद कीजिए कि उस ज़माने में कश्मीर फ़िल्मकारों का स्वर्ग जैसा बन गया था। एक के बाद एक कई फ़िल्में बनी थीं, जिनका लोकेशन वही था, और पूरा कथानक नहीं तो कम-से-कम एक-दो गाने तो वहाँ शूट कर ही लिए जाते थे। जान पड़ता है कि लोगों को कश्मीर के प्रति निर्माताओं की यह आसक्ति थोड़ी-थोड़ी ऊब देने लगी थी। माधुरी ने एक पूरी शृंखला ही समूचे हिन्दुस्तान की उन अनजान आकर्षक जगहों पर कर डाली जहाँ फ़िल्मों को शूट किया जा सकता है, बाक़ायदा सचित्र और स्थानीय इतिहास और सुविधाओं की जानकारियों मुहैया कराते हुए। इस तरह 'भावनात्मक एकता' का जो नारा मुल्क के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने उस ज़माने में बुलंद किया था,  उसकी किंचित वृहत्तर परिभाषा कर कश्मीरेतर दूर-दराज़ की जगहों को फ़िल्मों के भौतिक साँचे में ढालने की ठोस वकालत माधुरी ने बेशक की।   

सिने-माहौल और नागर चेतना

चलिए, आगे बढ़ें। सिनेमाघरों की दशा पर केन्द्रित माधुरी का तीसरा सर्वेक्षण अपेक्षाकृत ज़्यादा दिलचस्प था। इसकी प्रेरणा पाठकों से मिले शिकायती ख़तों से ही आई मालूम पड़ती है: जब पत्रों में अपने शहर के सिनेमा हॉल के हालात को लेकर करुण-क्रंदन थमा नहीं तो माधुरी ने उसे एक वृहत्तर अनुष्ठान और मुहिम का रूप दे दिया। इस मुहिम की अहमियत समझने के लिए आजकल की मल्टीप्लेक्स-सुविधा-भोगी हमारी पीढ़ी को मनसा उस ज़माने में और उन छोटे शहरों में लौटना होगा, जब सिनेमा देखने को ही समाज में सम्मानजनक नहीं माना जाता था तो देखनेवालों को सिने-मालिक लुच्चा-लफ़ंगा मान लें तो उनका क्या क़ुसूर। जैसे दारू के ठेकों पर सिर-फुटव्वल आम बात थी, या है, वैसे ही पहले दिन/पहले शो में हॉल के बाहर टिकट खिड़की पर लाठियाँ चल जाना भी कोई अजीब बात नहीं होती थी। आप ख़ुद देखिए, लोगों ने फ़िल्म देखने के लिए कितने त्याग किए हैं, पूंजीवादी समाज की कैसी बेरुख़ी झेली है, एक-दूसरे को कितना प्रताड़ित किया है। माधुरी का शुक्रिया कि इसने सिनेमा हॉल को साफ़-सभ्य-सुसंस्कृत-पारिवारिक जगह बनाने की दिशा में पहल तो की। नीचे पेश है एक बानगी उज्जैन, झाँसी, कानपुर, जमशेदपुर जैसे शहरों से दर्ज शिकायतनामों की। चक्रधर पुर, बिहार, से किसी ने लिखा कि हॉल में पीक के धब्बों और मूँगफली के छिलकों की सजावट आम बात है। सीटों पर नंबर नहीं और, लोग तो जैसे 'धूम्रपान निषेध' की चेतावनी देखते ही नहीं। फ़िल्म प्रभाग के वृत्तचित्र हमेशा अंग्रेज़ी में ही होते हैं, और जनता राष्ट्रगान के समय भी चहलक़दमी करती रहती है। (8 सितंबर,1967). इसी अंक में होशंगाबाद से ख़बर है कि किसी ने गोदाम को सिनेमा हॉल बना दिया है, पीने को पानी नहीं है, हाँ, खाने की चीज़ ख़रीदने पर ज़रूर 'मुफ़्त' मिल जाता है। फ़रियादी की दरख़्वास्त है कि महीने में कम-से-कम एक बार तो कीटनाशक छिड़का जाए, मूतरियों को साफ़ रखा जाए, और टिकट ख़रीदने के बाद के इंतज़ार को आरामदेह बनाया जाए। झाँसी से एक जनाब फ़रमाते हैं कि वहाँ दो-ढाई लाख की आबादी में कहने को तो सात सिनेमाघर हैं, लेकिन एक को छोड़कर सब ख़स्ताहाल। फटी सीटें, पीला पर्दा, गोया किसी फोटॉग्रफर का स्टूडियो हो; लोग बहुत शोर मचाते हैं, जैसे ही बिजली जाती है या रील टूटती है, 'कौन है बे' की आवाज़ के साथ सीटियों का सरगम शुरू हो जाता है; गेटकीपर ख़ुद ब्लैक करता है और मना करने पर रौब झाड़ता है; पार्किंग में भी टिकट मिलता है, लेकिन साइकिल वहीं लगाने पर; अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों ही फ़िल्में काफ़ी देर से लगाई जाती हैं। 'महारानी लक्ष्मीबाई ने नगर' के इस शिकायती ने क्रांतिकारी धमकी के साथ अपनी बात ख़त्म की : अगर संबंधित अधिकारी कुछ नहीं करते तो झाँसी की जनता को फ़िल्म देखना छोड़ देना पड़ेगा। वाह! इसी तरह तीन सिनेमाघरों वाले बीकानेर से एक जागरूक सज्जन ने लिखा: एक हॉल तो कॉलेज से बिल्कुल सटा हुआ है, टिकटार्थियों की क़तार सड़क तक फैल जाती है, ब्लैक वालों के शोर-ओ-गुल से कक्षाएँ बाधित होती हैं; फ़र्स्ट क्लास की सीटें भी जैसे कष्ट देने के लिए ही बनाई गई हैं, एयरकंडीशनिंग ऐसी कि उससे बेहतर धूप में रहें, कभी सफ़ाई नहीं होती, कचरे के ढेर लगे होते हैं; तीसरे सिनेमा हॉल में तो बालकनी की हालत फ़र्स्ट क्लास से भी बदतर है।  फ़र्स्ट क्लास का दर्शक जब 'सिनेमा देखने में मग्न हो तब अचानक ऐसा लगता है कि किसी सर्प ने काट खाया हो या इंजेक्शन लगा दिया गया हो।  बरबस दर्शक उछल पड़ता है। पीछे देखता है तो मूषकदेव कुर्सियों पर विराजमान हैं। हॉल में कई चूहों के बिल देखने को मिल सकते हैं। सरदार शहर के एक सिनेमची ने शिकायत की कि वहाँ हॉल के अति सँकरे दरवाज़े से घुसने के बाद दर्शक और बदरंग पर्दे के बीच में दो-एक खंभे खड़े होकर फ़िल्म देखते हैं, ध्वनि-यंत्र ख़राब है, उससे ज़्यादा शोर तो छत से लटके पंखे कर देते हैं; बारिश में छत चूती है, कुर्सियों के कहीं हाथ तो कहीं पैर नहीं, कहीं पीठ ही ग़ायब है; आदमी ज़्यादातर ख़ुद को सँभालता रहता है: कोई नया हॉल बनाना भी चाहे तो लाइसेन्स नहीं मिलता। दरभंगा से रपट आई कि चार में से तीन सिनेमाहॉल तो 'उच्च वर्गों' के लिए हैं ही नहीं; नैशनल टॉकीज़ पूरा कबूतरख़ाना है; लोग हॉल में आकर अपनी सीट से ही टिकट ख़रीदते हैं, सीट संख्या नहीं होने पर काफ़ी कोहराम मचा होता है; मेरा साया शुरू हुआ तो पंखे की छड़ ऐन पर्दे पर नमूदार हो गई, और जिस तरह की फ़िल्म थी, हमें लगा ज़रूर कुछ रहस्य है इस साये में! लेकिन बात हँसने वाली नहीं। कौन इनका हल करेगा – सरकार या व्यवस्थापक? कोई नहीं, क्योंकि उनकी झोलियाँ तो भर ही रही हैं। सिनेमा का बहिष्कार ही एकमात्र रास्ता बचता है। एप्रील फ़ूल देखकर आए गुरदासपुर के एक सचेत नागरिक ने हॉल वालों को तो आड़े हाथों लिया ही कि वहाँ निर्माण कार्य कभी बंद ही नहीं होता और पुराने प्रॉजेक्टर का शोर असह्य है, साथ ही दर्शकों के व्यवहार से भी घोर असंतोष ज़ाहिर किया:  'कामुक दृश्यों पर भद्दी आवाज़ों का शोर तमाम नैतिक मापदंडों की हत्या करके भी शांत नहीं होता। शायद यही कारण है कि कोई भी भलामानुस माँ-बहनों के साथ फ़िल्म देखने का साहस नहीं जुटा पाता…राष्ट्रगान के समय दरवाज़ा खुला छोड़ दिया जाता है, लोग बाहर निकल जाते हैं, जो अंदर भी रहते हैं, वे या तो बदन खुजाते या जम्हाइयाँ लेते दिखाई देते हैं।…अच्छी और सफल फ़िल्में जो पंजाब के बड़े शहरों में वर्ष के आरंभ में प्रदर्शित होती हैं, यहाँ अंत तक पहुँचती हैं, नतीजा ये होता है कि गणतंत्र दिवस की न्यूज़ रीलें हम स्वतंत्रता दिवस पर देखते हैं: हमें अभी तक अनुपमा और आए दिन बहार के का इंतज़ार है!

आरा से आकर एक सज्जन बड़े नाराज़ थे:

छुट्टियाँ बिताने आरा गया हुआ था। यहाँ के सिनेमा-हॉल और व्यवस्थापकों की लापरवाही देखकर दुख हुआ। सिनेमा हॉल के बाहर कुछ लोग लाइन में खड़े रहते हैं जबकि टिकट पास के पान की दुकान पर मिल जाता है। नोस्मोकिंग आते ही लोग बीड़ी जला लेते हैं। अगर कोई रोमाण्टिक सीन आ जाए तो उन्हें चिल्लाकर ही संतोष होता है, जिन्होंने अभी सीटी बजाना नहीं सीखा है। सिनेमा शुरू होने का कोई निश्चित समय नहीं है। अगर किसी अधिकारी की फ़ेमिली आने वाली है तो सिनेमा उनके आने के बाद ही शुरू होगा। हॉल में घुसते ही कुछ नवयुवक इतनी हड़बड़ी में आते हैं कि जल्दबाज़ी में फ़ेमिली स्वीट्स में घुस जाते हैं। (29 दिसंबर 1967).

डेविड धवन की हालिया फ़िल्म राजा बाबू की बरबस याद आ जाती है, जिसमें तामझाम से सजे लाल बुलेट पर घूमने वाला गोविंदा का किरदार सिनेमा हॉल में जाकर अपने मनपसंद दृश्य को 'रिवाइन्ड' करवाके बार-बार देखता है। साठ के दशक में छोटे शहरों के असली बाबू भी राजा बाबू से कोई कम थे! लेकिन ये शिकायती स्वर इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि सिनेदर्शक अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा था, और सिने-प्रदर्शन में हो रही अँधेरगर्दी की पोल खोलने पर आमादा था। लेकिन इस तरह की परेशानियाँ सिर्फ़ छोटे शहरों तक सीमित नहीं थीं। एक आख़िरी उद्धरण देखिए, राजकुमार साहब के हवाले से:          

दिल्ली के कुछ सिनेमा हॉल जो कि पुरानी दिल्ली में हैं बहुत ख़राब दशा में हैं। महिलाओं को केवल एक सुविधा प्राप्त है, और वो है टिकट मिल जाना। और इसके अलावा कोई सुविधा नहीं। अन्दर जाकर सीट पर बैठे तो क्या देखेंगे कि पीछे के दर्शक महोदय बड़े आराम से सीट पर पैर रख कर बैठे हुए हैं। ऐसा करना वे अपना अधिकार समझते हैं। आसपास के लोग बड़े प्रेम से घर की या बाहर की बातें करते नज़र आएँगे जबकि फ़िल्म चल रही होगी। मना किया जाय तो वे लड़ने लगेंगे और आप (जो कि माँ या बहन के साथ बैठे होंगे) लोगों की नज़रों के केन्द्र बन जाएँगे। यदि कोई प्रेम या उत्तेजक सीन होगा तो देखिए कितनी आवाज़ें कसी जाती हैं, गालियाँ दी जाती हैं, और सीटियाँ तो फ़िल्म के संगीत का पहलू नज़र आती हैं। यदि पास बैठी महिला के साथ छेड़छाड़ करने का अवसर मिल जाए तो वे हाथ से जाने नहीं देते। ये सब बातें सिर्फ़ इसलिए होती हैं कि सिनेमा हॉल में आगे बैठे लोग सिर्फ़ दो-तरफ़ा मनोरंजन चाहते हैं। इस तरह सिनेमा देखना तो कोई सहनशील व्यक्ति भी गवारा नहीं करेगा।  (29 दिसंबर 1967, पत्र).

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क़िस्सा कोताह ये कि दर्शकों की इन दूर-दराज़ की – सिनेव्यापार की भाषा में 'बी' 'सी' श्रेणी के शहरों-क़स्बों से आती –  आवाज़ों को राष्ट्रीय गलियारों तक पहुँचाने का काम करते हुए माधुरी ने निहायत कार्यकर्तानुमा मुस्तैदी और प्रतिबद्धता दिखाई। इसका कितना असर हुआ या नहीं, कह नहीं सकते, लेकिन सिनेमा देखने वाले लोग भी नागरिक समाज की बुनियादी सहूलियतों और दैनंदिन सदाचरण के हक़दार हैं, अंक-दर-अंक यह चीख़ने के पीछे  कम-से-कम माधुरी का तो वही भरोसा रहा, जो फ़ैज़ का था: 'कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएँगे'। और नहीं तो कम-से-कम शेष पाठकों तक तो नाले गए ही होंगे क्योंकि चंद संजीदा क़िस्म की शिकायतें तो आम जनता, ख़ासकर पुरुषों, को ही संबोधित हैं! एक और दिलचस्प बात आपने नोट की होगी इन ख़तों में कि हिन्दी-भाषी पुरुष उस ज़माने में सिर्फ़ 'माँ-बहनों' के साथ फ़िल्म देखने जाता था!

मधुर संगीतप्रियता

अच्छा साहब, बहुत हो लीं रोने-धोने की बातें। आइए अब कुछ गाने की भी की जाएँ। माधुरी ने यह बहुत जल्द पहचान लिया था कि रेडियो और ग्रामोफोन के ज़रिए लोग सिनेमा को सिर्फ़ देखते नहीं हैं, उसे सुनते भी हैं, वैसे लोग भी जो नहीं देखते, गुनगुनाते ज़रूर हैं, और इसके लिए वे बोलती फ़िल्मों के शुरुआती दिनों से ही सस्ते काग़ज़ पर छपे चौपतिया मार्का 'कथा-सार व गीत' या बाद में नारायण ऐण्ड को., सालिमपुर अहरा, पटना जैसे प्रकाशकों द्वारा मुद्रित 'सचित्र-गीत-डायलॉग' के बेहद शौक़ीन थे, बल्कि उन पर मुनहसर थे। क्योंकि इससे बार-बार सिनेमा जाकर या रेडियो पर सुन-सुनकर कॉपी पे उतारने की उनकी अपनी मेहनत बचती थी। सिनेमा के गीतों ने  एक अरसे से रोज़ाना की अंत्याक्षरी से लेकर औपचारिक, शास्त्रीय हर तरह की महफ़िलों में अपना रंग जमा रखा था, तो जो लोग राग-आधारित गाने गाना चाहते थे, उनके लिए गीत के बोल के साथ-साथ स्वराक्षरी देने का काम संपादक ने संगीत-मर्मज्ञ श्रीधर केंकड़े से काफ़ी लंबे अरसे तक करवाया। उन पृष्ठों पर संगीतकार-गीतकार-गायक-गायिका का नाम बड़े सम्मान से छापा जाता था। लेकिन जल्द ही 'रिकार्ड तोड़ फ़ीचर' और पैरोडियाँ भी स्तंभवत छपने लगीं, जो जनता के हाथों पुराने-नए मशहूर गानों के अल्फ़ाज़ की रीमिक्सिंग (= पुनर्मिश्रण, पुनर्रचना) के लोकाचार का ही एक तरह से साहित्यिक विस्तार था। इसलिए स्वाभाविक ही था कि हुल्लड़ मुरादाबादी और काका हाथरसी जैसे मशहूर कवियों के अलावा बेनाम तुक्कड़ों ने अच्छी तुकबंदियाँ पेश कीं। इस तरह की हास्य-व्यंग्य से लबरेज़ नक़्क़ाली के विषय अक्सर सामाजिक होते थे, कई बार फ़िल्मी, पर बाज़ मर्तबा राजनीतिक भी, जैसे कि सदाबहार मौज़ू 'महँगाई' को लेकर सीधे-सीधे भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री से पूछा गया सवाल, जो कि बतर्ज़ 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं' गुनगुनाये जाने पर सामान्य से किंचित अतिरिक्त फैलती मुस्कान की वजह बनता होगा:

इतना महँगा गेहूँ, औ इतना महँगा चावल

बोल इन्द्रा बोल सस्ता होगा कि नहीं

कितने घंटे बीत गए हैं मुझको राशन लाने में

साहब से फटकार पड़ेगी देर से दफ़्तर आने मे

इन झगड़ों का अन्त कहीं पर होगा कि नहीं॥ बोल इन्द्रा बोल…

दो पाटों के बीच अगर गेहूँ आटा बन जाता है

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क्यों न जहाँ पर इतने कर हों, दम सबका घुट जाता है

कभी करों का यह बोझा कम होगा कि नहीं।। बोल इन्द्रा बोल…

हम जीने को तड़प रहे ज्यों बकरा बूचड़ख़ाने में

एक नया कर और लगा दो साँस के आने-जाने में

आधी जनता मरे चैन तब होगा कि नहीं? बोल इन्द्रा बोल…(22 सितंबर 1967).

अब आप ही बताइए साहब कि ये नक़ल, असल से कविताई में कहीं से उन्नीस है? इसी तरह काका ने एक पैरोडी बनाई थी संत ज्ञानेश्वर के मशहूर गीत 'ज्योति से ज्योति जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो' पर, 'नोट से नोट कमाते चलो, काले धन को पचाते चलो, जिसका थीम इतना शाश्वत है कि कभी पुराना नहीं होगा। पता नहीं हम ऐसे ख़ज़ाने का जमकर इस्तेमाल क्यों नहीं करते। पुनर्चक्रण पर्यावरण-प्रिय युग की माँग है। माधुरी ने तो अपनी पुनर्चक्रण-प्रियता का सबूत इस हद तक दिया कि एक पूरा फ़िल्मी पुराण और एक संपूर्ण फ़िल्मी चालीसा ही छाप दिया,  जिसमें फ़िल्मी इतिहास के बहुत सारे अहम नाम सिमट आए हैं। कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, आप ख़ुद पाठ करें, तर्ज़ वही है गोस्वामी तुलसीदासकृत हनुमान चालीसा वाली:

दोहा:  सहगल चरण स्पर्श कर, नित्य करूँ मधुपान
सुमिरौं प्रतिपल बिमल दा निर्देशन के प्राण
स्वयं को काबिल मानि कै, सुमिरौ शांताराम
ख्याति प्राप्त अतुलित करूँ, देहु फिलम में काम

चौपाई:  जय जय श्री रामानंद सागर, सत्यजीत संसार उजागर
दारासिंग अतुलित बलधामा, रंधावा जेहि भ्राता नामा
दिलीप 'संघर्ष' में बन बजरंगी, प्यार करै वैजयंती संगी
मृदुल कंठ के धनी मुकेशा, विजय आनंद के कुंचित केशा।

विद्यावान गुनी अति जौहर, 'बांगला देश' दिखाए जौहर
हेलन सुंदर नृत्य दिखावा, लता कर्णप्रिय गीत सुनावा
हृषीकेश 'आनंद' मनावें, फिल्मफेयर अवार्ड ले जाएं
राजेश पावैं बहुत बड़ाई, बच्चन की वैल्यू बढ़ जाई

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बेदी 'दस्तक' फिलम बनावें, पबलिक से ताली पिटवावें
पृथ्वीराज नाटक चलवाना, राज कपूर को सब जग जाना
शम्मी तुम कपिदल के राजा, तिरछे रोल सकल तुम साजा
हार्कनेस रोड शशि बिराजें, वाम अंग जैनीफर छाजें

अमरोही बनायें 'पाकीजा', लाभ करोड़ों का है कीजा
मनोज कुमार 'उपकार' बनाई, नोट बटोर ख्याति अति पाई
प्राण जो तेज दिखावहिं आपैं, दर्शक सभी हांक ते कांपै
नासैं दुख हरैं सब पीड़ा, परदे पर महमूद जस बीरा

आगा जी फुलझड़ी छुड़ावैं, मुकरी, ओम कहकहे लगावैं
जुवतियों में परताप तुम्हारा, देव आनंद जगत उजियारा
तुमहिं अशोक कला रखवारे, किशोर कुमार संगित दुलारे
राहुल बर्मन नाम कमावें, 'दम मारो दम' मस्त बनावें

नौशादहिं मन को अति भावें, शास्त्रीय संगीत सुनावें
रफी कंठ मृदु तुम्हरे पासा, सादर तुम संगित के दासा
भूत पिशाच निकट पर्दे पर आवें, आदर्शहिं जब फिल्म बनावें
जीवन नारद रोल सुहाएं, दुर्गा, अचला मा बन जाएं

संकट हटे मिटे सब पीड़ा, काम देहु बलदेव चोपड़ा
जय जय जय संजीव गुसाईं, हम बन जाएं आपकी नाईं
हीरो बनना चाहे जोई, 'फिल्म चालीसा' पढ़िबो सोई
एक फिलम जब जुबली करहीं, मानव जनम सफल तब करहीं

बंगला कार, चेरि अरु चेरा, 'फैन मेल' काला धन ढेरा
अच्छे-अच्छे भोजन जीमैं, नित प्रति बढ़िया दारू पीवैं
बंबई बसहिं फिल्म भक्त कहाई, अंत काल हालीवुड जाई
मर्लिन मनरो हत्या करईं, तेहि समाधि जा माला धरईं

दोहा: बहु बिधि साज सिंगार कर, पहिन वस्त्र रंगीन
राखी, हेमा, साधना, हृदय बसहु तुम तीन. (वीरेन्द्र सिंह गोधरा, 15 सितंबर 1972.)

मज़ेदार रचना है न, बाक़ायदा दोहा-चौपाई से लैस, भाषा व शिल्प में पुरातन, सामग्री में यकलख़्त ऐतिहासिक और अद्यतन, फ़िल्म भक्ति के सहस्रनाम-गुण-बखान में निहायत समावेशी, नामित आराध्य की भक्ति में सराबोर लेकिन साथ ही अमूर्त देवी-देवताओं के 'काले कार्य-व्यापार' से आधुनिक आलोचनात्मक दूरी बनाती हुई भी, जो आख़िरी चौपाई में मुखर हो उठती है। हमारे ज़माने में 'चोली के पीछे क्या है', के कई काँवड़िया संस्करण बन चुके हैं – अगले सावन में 'मुन्नी बदनाम हुई' के भी बन जाएँगे – अब अगर प्रामाणिक धर्म-धुरंधरों को इस तथाकथित अश्लील आयटम गीत की तर्ज़ पर शिवभक्ति अलापने में परहेज़ नहीं है तो उस ज़माने में माधुरी को इसकी उलट पैरोडी पेश करने में भला क्यों होता। फ़िल्म का एहतराम करना तो उसका घोषित धर्म ही ठहरा, और पाठक अगर धार्मिक पैकेजिंग में ही सिनेमा को घर ले जाना चाहते हैं तो वही सही। उन्हीं दिनों की बात है न जब जय संतोषी माँ आई थी तो लोग श्रद्धावश पर्दे पर पैसे फेंककर अपनी भक्ति का इज़हार कर रहे थे, जैसे कि किसी आयटम गाने पर ख़ुश होकर वे हॉल में सिक्के फेंकते पाए जाते थे, गोया किसी तवायफ़ की महफ़िल में बैठे हों। कैसा मणिकांचन घालमेल, कैसी अजस्र निरंतरता पायी जाती है हमारे लोक के धर्म-कर्म, नाच-गाने, और रुपहली दुनिया में कि शुद्धतावादियों का दम घुट जाए। वैसे माधुरी ने चंद बहसें धार्मिक फ़िल्मों के इतिहास व वर्तमान, उसके निर्माण के औचित्य-अनौचित्य पर भी चलाईं, एक ऐसे विशेषांक में अपना जवाब ख़ुद देता सवालिया प्रस्थान-बिंदु याद आता है: क्या धार्मिक फ़िल्मों के रथ को व्यावसायिकता का छकड़ा ढो रहा है? ये तय है कि धर्म को लेकर माधुरी न तो भावुक थी न ही संवेदनशील; अगर किसी एक धर्म में इसकी अदम्य आस्था देखी जा सकती है, तो उसका नाम हमें राष्ट्रधर्म देना होगा। इसपर कुछ बातें, थोड़ी देर में।

…जारी…

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लेखक रविकांत इतिहासकार हैं और सीएसडीएस में एसोसिएट फेलो के रूप में जुड़े हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ के दीवाली विशेषांक, 2011 में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है.

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