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हिन्दी फिल्म अध्ययन : ‘माधुरी’ का राष्ट्रीय राजमार्ग (दो)

'रिकार्ड तोड़ फीचर' स्तंभ में गानों की पंक्तियों से अटपटे सवाल पूछे जाते थे, या कटुक्तियाँ चिपकाई जाती थीं, कुछ इस बेसाख़्तगी से कि बोल के अपने अर्थ-संदर्भ गुम हो जाते थे, उनमें असली जीवन की छायाएँ कौंध जाती थीं। कुछ मिसालें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:

'रिकार्ड तोड़ फीचर' स्तंभ में गानों की पंक्तियों से अटपटे सवाल पूछे जाते थे, या कटुक्तियाँ चिपकाई जाती थीं, कुछ इस बेसाख़्तगी से कि बोल के अपने अर्थ-संदर्भ गुम हो जाते थे, उनमें असली जीवन की छायाएँ कौंध जाती थीं। कुछ मिसालें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:

क) ओ, पंख होते तो उड़ जाती रे…..
….चिड़िया नहीं तो फ़िल्मी हीरोइन तो हो, हवाई जहाज़ में क्यों नहीं उड़ आतीं?

ख) तख़्त क्या चीज़ है और लालो-जवाहर क्या है,
      इश्क़ वाले तो ख़ुदाई भी लुटा देते हैं….
…..हाँ जी, दूसरे का माल लुटाने में क्या लगता है!

ग) जज़्बा-ए-दिल जो सलामत है तो इंशाअल्लाह
     कच्चे धागे में चले आएँगे सरकार बँधे।

…..जनाब, वो नज़ाकत-नफ़ासत के ज़माने लद गए, अब तो लोहे की हथकड़ियों में बांधकर घसीटना पड़ेगा सरकार को।

घ) और हम खड़े-खड़े गुबार देखते रहे
     कारवाँ गुज़र गया, बहार देखते रहे…
    ….निकम्मों की यही पहचान होती है पुत्तर! (24 सितंबर, 1965).

क्या प्यारा हश्र हुआ है नीरज के पश्चाताप के आँसू रोते इस मशहूर भावुक गीत का! मूलत: हल्के-फुल्के हास्यरस का यह फ़ीचर बहुत लंबा नहीं चल पाया, लेकिन समझने लायक़ बात ये है कि यह उस परम-यथार्थवादी युग की दास्तान भी कहता है, जो तथाकथित फ़ॉर्मूला फ़िल्मों की हवा-हवाई बातों में आने से इन्कार कर रहा था, लिहाज़ा 'ये बात कुछ हज़म नहीं हुई' वाले अंदाज़ में प्रतिप्रश्न कर रहा था। जिसे आगे जाकर 'समांतर' सिनेमा कहा गया, उसका शबाब भी तो अँगड़ाइयाँ ले रहा था इस दौर में, जिसकी घनघोर प्रशंसिका बनकर ख़ुद माधुरी उभरती है। संक्षेप में, सत्यजीत राय, आदि के नक़्शे-क़दम चलकर लोकप्रिय मुख्यधारा की फ़ंतासियों के बरक्स ठोस दलीलें और वैकल्पिक फ़िल्में देने का वक़्त आ गया था, इन फुलझड़ियों से भला क्या होना था! उसके लिए तो उन साहित्यिक कृतियों के नाम गिनाए जाने थे, जो पता नहीं कब से फ़िल्म-रूप में ढल जाने को तैयार होकर बैठी थीं, और निर्माता कहते फिरते थे कि अच्छी कहानियाँ नहीं हैं। दरमियानी धारा की फ़िल्में भी कई बनीं इस समय और साहित्यिक कृतियों पर भी, पर शुद्ध कलात्मक फ़िल्में माधुरी के परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन के बाद भी बहुत नहीं चल पाईं। अपवादों को छोड़ दें तो उनमें से ज़्यादातर के नसीब में सरकारी वित्तपोषण, फ़िल्मोत्सवी रिलीज़ और 'आलोचनात्मक प्रशंसा' ही आई।

साहित्यप्रियता

जितने अभियान माधुरी ने चलाए, जितने पुल इसने सिरजे, उनमें एक पुल और एक अभियान का ज़िक्र ज़रूरी है। साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बनाने में माधुरी ने कोई कसर नहीं उठाई, हिन्दी को हरेक अर्थ में प्रतिष्ठित करने की भी हर कोशिश इसने की। इसने इसरार करके हिन्दी के दिग्गजों से लेख लिखवाए, हरिवंश राय बच्चन से गीतों पर, पंत से फ़िल्मों की उपादेयता, उनके गुण-दोषों पर और 'दिनकर' को तो बाक़ायदा एक फ़िल्म दिखवाकर उसी पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी भी छापी। एक तरफ़ कवि, गीतकार, लेखक और विविध भारती के पहले निदेशक बनकर आए नरेन्द्र शर्मा से फ़िल्मी  गीतों की महत्ता' पर लिखवाया तो दूसरी ओर गुलशन नंदा से यादवेन्द्र शर्मा चंद्र की आत्मीय बातचीत छापी। ये याद दिलाना बेज़ा न होगा कि विविध भारती (ये शर्मा जी का रचनात्मक अनुवाद था अंग्रेज़ी के 'मिस्लेनियस प्रोग्राम' का) की स्थापना एक तरह से केसकर साहब के नेतृत्व वाले सूचना व प्रसारण मंत्रालय की बड़ी हार थी, लोकरंजक फ़िल्मी गीतों की ज़बर्दस्त लोकप्रियता के आगे। क्योंकि 1952 में भारतीय जनता को अपने मिज़ाज के माफ़िक बनाने के चक्कर में उन्होंने आकाशवाणी से फ़िल्मी गीतों के प्रसारण पर अनौपचारिक रोक लगा दी थी। जनता ने रेडियो सीलोन, और रेडियो गोआ की ओर अपने रेडियो की सूई का रुख़ कर दिया। अमीन सायानी इसी दौर में (बिनाका/सिबाका) गीतमाला के ज़रिए जो आवाज़ की दुनिया के महानायक बने तो आज तक हैं। घाटा भारतीय सरकारी ख़ज़ाने का हुआ जो पूरे पाँच साल तक चला, आख़िरकार केसकर साहब ने घुटने टेके, 'विविध भारती' चलायी, जिसे बाद में व्यावसायिक सेवा में तब्दील कर दिया गया। बाक़ी तो देखा-भाला इतिहास होगा आपमें से कइयों के लिए। तो जब नरेन्द्र शर्मा ने माधुरी के लिए लिखा कि 'फ़िल्म संगीत इंद्र का घोड़ा है: आकाशवाणी उसका सम्मान करती है' तो वे भी सरकार की तरफ़ से उसको नकेल कसने की कोशिश की नाकामियों का इज़हार ही कर रहे थे, और क्या ठोस वकालत की उन्होंने फ़िल्मी गानों की। गुलशन नंदा ने, जिनका नाम आज तक हिन्दी साहित्यिक जगत में हिकारत से लिया जाता है, पर जिनके उपन्यासों पर कई सफल और मनोरंजक फ़िल्में बनीं, उस बातचीत में बग़ैर किसी शिकवा-शिकायत के, मुतमइन भाव से, अपनी बात रखी। तो माधुरी जहाँ एक ओर शुद्ध साहित्यिकों से बातचीत कर रही थी, वहीं दूसरी ओर फ़िल्मी लेखकों-शायरों – मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, गुलज़ार, राही मासूम रज़ा, मीना कुमारी, सलीम-जावेद आदि से मुसलसल संवादरत थी। नायक-नायिकाओं के साथ-साथ गायक-गायिकाओं को काफ़ी तवज्जो दी गई तो कल्याणजी-आनंदजी की चुटकुलाप्रियता की स्थानीय शोहरत को राष्ट्रीय में तब्दील करने में उनके माधुरी के स्तंभ का बेशक योगदान रहा होगा। नए-पुराने लिखने वाले निर्माता-निर्देशकों से भी साग्रह लिखवाया गया:  किशोर साहू, बिमल राय, के.एन सिंह आदि की जीवनी/आत्मकथा धारावाहिक छपी तो राधू करमारकर जैसे छायाकार की कहानी को भी प्रमुखता मिली। शैलेन्द्र तो अरविन्द जी के प्रिय गीतकार और मित्र थे ही, तीसरी क़सम के बनने, असफल होने और शैलेन्द्र के उस सदमे से असमय गुज़र जाने की जितनी हृदयछू कहानियाँ माधुरी ने सुनाईं, शायद किसी के वश की बात नहीं थी। इनमें शोकसंतप्त रेणु की आत्मग्लानि से लेकर राजकपूर के अकाल-सखा-अभाव को वाणी देतीं भावभीनी श्रद्धांजलियाँ शुमार की जा सकती हैं।

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लेकिन साहित्य को सिनेमा से जोड़ने के सिलसिले में सबसे रचनात्मक नुस्ख़े जो माधुरी ने कामयाबी के साथ आज़माए उनमें एक-दो ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। हालाँकि नायक-नायिकाओं के चित्रों के साथ काव्यात्मक शीर्षक देने की रिवायत पुरानी थी – उर्दू की मशहूर फ़िल्मी पत्रिका शमा में पचास के दशक में इसकी मिसालें मिल जाएँगी। वैसे ही जैसे कि तीस-चालीस के दशक की साहित्यिक पत्रिकाओं में 'रंगीन' तस्वीरों के साथ दोहा या शे'र डालने का रिवाज था। माधुरी में भी उर्दू के शे'र मिलते थे लेकिन कभी-कभार ही, उनकी जगह यहाँ हिन्दी कवियों को प्रतिष्ठित किया गया। दो-चार उदाहरणों से बात साफ़ हो जानी चाहिए। पूरे पृष्ठ पर 'पत्थरों में प्राण भरने वाले शिल्पी अभिनेता जीतेन्द्र' की सुंदर-सुडौल सफ़ेद-स्याह आवक्ष चित्ताकर्षक तस्वीर छपी है, लेकिन उसमें अतिरिक्त गरिमा डालने के लिए दिनकर की उर्वशी से पुरुरवा का दैहिक वर्णन डाल दिया गया है:

सिंधु सा उद्दाम, अपरंपार मेरा बल कहाँ है?
गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ,
सूर्य के आलोक से दीपित समुन्नत भाल,
मेरे प्यार का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।

जिसे हिन्दी साहित्य पढ़ने-पढ़ानेवालियों ने अवश्य सराहा होगा। उसी तरह सायरा बानो की दिलकश रंगीन तस्वीर के साथ टुकड़ा लगाया 'कनक छरी-सी कामिनी' और जानने वालों ने अपनी तरफ़ से दोहे की दूसरी अर्धाली अनायास जोड़ी होगी, 'काहे को कटि क्षीण'! उससे भी ज़्यादा जाननेवालों ने इस दोहे के साथ औरंगज़ेबकालीन कृष्णभक्त कवि आलम को भी याद किया होगा और उस रंगरेज़न को भी, जिसने कहते हैं, इस दोहे की दूसरी पंक्ति – 'कटि को कंचन काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन' – पूरी कर दी, और उसके बाद तो आलम उसके इश्क़ में गिरफ़्तार ही हो गए। माधुरी को सायरा बानो की आवरण-कथा का सिर्फ़ एक शीर्षक देना था, इसलिए उसका काम पहली अर्धाली से ही हो गया था, लेकिन दूसरी अर्धाली और पंक्ति न देकर शायद इसने अपने 'पारिवारिक' आत्मसंयम का भी परिचय दिया, कि चतुर-सुजान ख़ुद कल्पना कर लें! वरना 'यह शिला सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ' और 'कुचन मध्य धरि दीन' में यही तो फ़र्क़ है कि पहले में पुरुष-देह-सौंदर्य बखाना गया है, और दूसरे में स्त्री-सौंदर्य की ओर इशारा है! वैसे, आगे चलकर जब रंगीन पृष्ठ बढ़ते हैं, तो कई स्थापित या संघर्षशील तारिकाओं की अपेक्षाकृत कम या छोटे कपड़ोंवाली तस्वीरें भी माधुरी छापती है, और पाठकों के पत्रों में सेन्सरशिप की गुहार नहीं मचती दिखती है, तो ये मान लेना चाहिए कि वक़्त के साथ इसके पाठक भी 'वयस्क' हो रहे थे। वैसे फ़िल्म सेन्सरशिप के तंत्र की आलोचना – 'अंधी कैंची, पैनी धार' – बासु भट्टाचार्य जैसे दिग्दर्शक माधुरी के पृष्ठों में कर ही रहे थे, सो पाठकों तक पत्रिका का उदारमना संदेश तो जा ही रहा होगा। मौखिक और लिखित तथा छप-साहित्य की जानी-मानी लोकप्रिय विधा – समस्यापूर्ति – का भी ख़ूब इस्तेमाल किया माधुरी ने। पाठकों से अक्सर किसी (सिर्फ़ बड़े नहीं) सिनेसितारे की दिलचस्प छवि के जवाब में मौलिक कविता माँगी जाती थी, और तीन-चार अच्छी प्रविष्टियों पर नक़द ईनाम भी दिए जाते थे। एक और आवरण कथा थी माला सिन्हा पर, बग़ीचे में लताओं व पेड़ों के बीच इठलाती उनकी तीन रंगीन तस्वीरों के साथ, साथ में छपा था विद्यापति कृत ये काव्यांश;

कालिन्दी पुलिन-कुंज बन शोभन।
नव नव प्रेम विभोर।
नवल रसाल-मुकुल-मधु मातल।
नव-कोकिल कवि गाय,
नव युवति गन चित उमता भई।
नव रस कानन धाय।

जिसे उद्धृत करने के पीछे मेरा ध्येय सिर्फ़ माधुरी के काव्य-चयन का विस्तृत दायरा दिखाना है। कुछ मिसालें उर्दू शायरी से भी। शर्मीला टैगोर का चित्र है, शीर्षक में मजरूह का शे'र:

यह आग और नहीं, दिल की आग है नादाँ,
शमअ हो के न हो, जल मरेंगे परवाने।

एक और जगह रंगीन, जुड़वाँ पृष्ठों पर शर्मीला और मनोज कुमार आमने सामने हैं, एक ही ग़ज़ल के दो अश'आर से जुड़े हुए:

शर्मीला: किस नजर से आज वह देखा किया।
            दिल मेरा डूबा किया उछला किया।।
मनोज:  उनके जाते ही ये हैरत छा गई।
          जिस तरफ़ देखा किया, देखा किया।।(10 सितंबर, 1965)

वाह! वाह!!

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हिन्दीप्रियता
इन उद्धरणों से यह साफ़ हो गया होगा कि हिन्दुस्तानी सिनेमा और उर्दू के बीच जो पारंपरिक दोस्ताना रिश्ता था, उसके बीच माधुरी हिन्दी के लिए भी जगह तलाशने की कोशिश कर रही थी। इस तरह की कोशिशें हिन्दी की तरफ़ से कई पीढ़ियाँ कम-से-कम सौ साल से करती आ रही थीं : चाहे वह छापे की दुनिया के भारतेन्दु और उनके बाद के दिग्गज रहे हों, जो कविता में हिन्दी को ब्रजभाषा-अवधी वग़ैरह के बरक्स 'खड़ी' करने में, या पारसी नाटक-लेखन के क्षेत्र में पं. राधेश्याम कथावाचक के सचेत प्रयास हों, या फिर रेडियो की दुनिया में पं. बलभद्र नारायण दीक्षित 'पढ़ीस' के परामर्श हों या पं. रविशंकर शुक्ल की आक्रामक राजनीतिक मुहिम हो, इन सबका एक सामान्य सरोकार उन इलाक़ों में हिन्दी की पैठ बनाना रहा जो उसके लिए नए थे। ये इलाक़े हिन्दीवादियों को भाषायी नुक्ता-ए-नज़र से ख़ाली बर्तन की तरह नज़र आते थे, जिन्हें हिन्दी की सामग्री से भरना इन्हें परम राष्ट्रीय कर्तव्य लगता था। अगर ग़लती से किसी और ज़बान, और ख़ुदा न करे उर्दू का वहाँ पहले से क़ब्ज़ा हो, तब तो मामला और संगीन हो उठता था, युद्ध-जैसी स्थिति हो उठती थी, कि हमें इस 'विदेशी' ज़बान को अपदस्थ करना है, अपनी ज़मीन पर निज भाषा का अख़्तियार क़ायम करना है। बेशक आज़ादी के बाद स्थिति तेज़ी से बदली, हिन्दी का अधिकार-क्षेत्र बढ़ा, उर्दू विभाजन और मुसलमानों की भाषा बनकर हिन्दुस्तान में बदनाम और बेदख़ल कर दी गई, लेकिन, जैसा कि हम नीचे देखेंगे, तल्ख़ियाँ अभी बाक़ी हैं, घाव अभी तक ताज़ा हैं। माधुरी 'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' के लिए चले इस लंबे संघर्ष में हिन्दूवादी बनकर तो शायद नहीं, लेकिन कम-से-कम फ़िल्मक्षेत्रे हिन्दी राष्ट्रवादी हितों का हामी बनकर ज़रूर उभरती है।

अपनी बात की पुष्टि के लिए चलिए एक बार फिर एक संपादकीय, 'हमारी बात' से ही यात्रा शुरू की जाए, जिसका शीर्षक था 'हिन्दी की फिल्में और हिन्दी':

कुछ पुरानी और कुछ आनेवाली फिल्मों के नाम इस प्रकार हैं: 'फ्लाइट टू बैंकाक', 'गर्ल फ्राम चाइना', हण्डरेड एण्ड एट [डेज़] इन कश्मीर', 'पेनिक इन पाकिस्तान', 'द सोल्जर', द कश्मीर रेडर्स', 'अराउण्ड द वर्ल्ड', 'लव इन टोकियो', 'ईवनिंग इन पेरिस', 'जौहर एण्ड जौहर इन चाइना', 'लव इन शिमला', मदर इंडिया', सन आफ इंडिया', मिस्टर एण्ड मिसेज फिफ्टी फाइव', मिस्टर एक्स इन बाम्बे, लव मैरिज', होलीडे इन बाम्बे'….। इन नामों को पढ़कर क्या आपको भ्रम नहीं होता कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है और कुछ सिरफिरे लोग बिना मतलब 'हिन्दी-हिन्दी' की रट लगाए रहते हैं? यह छोड़िये। सिनेमाघर में जब आप फिल्म देखते हैं तो आपको इतना तो अवश्य ही लगता होगा कि यदि भारत की भाषा हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी या इससे मिलती जुलती कोई और भाषा हो भी तो उसकी लिपि नागरी अरबी नहीं, रोमन है। इस सन्देह की पुष्टि तब और मिलती है, जब सड़कों, मुहल्लों के रोमन लिपि में लिखे नामपटोंपर कोलतार पोतने वाली राजनीतिक पार्टियाँ फिल्मोंकी रोमन नामावली पर चुप्पी साध लेती हैं। इन पार्टियों के सदस्य फिल्में नहीं देखते होंगे – इस पर तो विश्वास नहीं होता।
आपने अकसर यह दावा सुना होगा : हिन्दी के प्रचार में सबसे बड़ा योगदान फिल्मों का है। फिल्मकार इस आत्मछलपूर्ण दावेसे अपनेको हिन्दी सेवकोमें सबसे अगला स्थान देना चाहें तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तब होता है जब आम लोग हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता देखकर इस दावे को सत्य मान लेते हैं। यह ऐसा ही है कि पूर्व में सूर्योदय और पश्चिम में सूर्यास्त देख कर लोग समझते रहे कि सूर्य धरतीकी परिक्रमा करता है।

इस तरह की कोपरनिकसीय भाषावैज्ञानिक क्रांति को स्थापित करने के बाद हिन्दी फिल्मकारों के 'हिन्दी-प्रेम' की पोल ये कहकर खोली जाती है कि फ़िल्म कला का एक तरह का थोक व्यवसाय है, जिसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाकर ही लाभ कमाया जा सकता है, लिहाज़ा, इसकी ज़बान औसत अवाम की ज़बान रखी जाती है। लेकिन अफ़सोस कि नामावली और प्रचार-प्रसारमें एक प्रतिशत अंग्रेज़ी-भाषी जनता की लिपि को प्रश्रय दिया जाता है, जबकि 35 प्रतिशत पढ़े-लिखे लोग टूटी-फूटी हिन्दी और देवनागरी जानते हैं। "ऐसा करके निर्माता वस्तुत: अपने पाँव में आप कुल्हाड़ी मार रहे होते हैं। बेहतर प्रचार होता अगर वे कुछ और पैसे ख़र्च करके भारत की दीगर लिपियों में भी फिल्म का नाम दें: हाल ही में निर्माता-निर्देशक ताराचंद बड़जात्या ने अपनी फिल्म 'दोस्ती' के प्रचारमें इस नीतिको अपनाकर उचित लाभ उठाया था। बंगला फिल्मोंके अधिकांश निर्माता नामावलीमें बंगला लिपि ही काम में लाते हैं। लेकिन हिन्दीमें हाल यह है कि भोजपुरी फिल्मों में भी रोमन नामावली होती है (जबकि ये फिल्में हिन्दी क्षेत्रके बाहर कहीं नहीं देखी जाती)। यहाँ तक कि उन मारकाट वाली स्टण्ट फिल्मोंमें भी, जिन्हें अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग नहीं देखते। कई बार यह देखकर निर्माताओं की व्यावसायिक बुद्धिहीनता पर हंसी ही आती है।"

इस संपादकीय से आरंभ करके माधुरी ने जैसे रोमन नामावली के ख़िलाफ़ बाक़ायदा जिहाद ही छेड़ दिया, जिसका कई पाठकों ने भी खुले दिल से समर्थन किया। मसलन जब वे पत्र लिखते तो ये शिकायती स्वर में बताना नहीं भूलते कि फ़लाँ-फ़लाँ फिल्म में नामावली रोमन में दी गई है। लेकिन इस मुहिम की सबसे सनातन रट तो फ़िल्म समीक्षा के स्तंभ 'परख' में सुनाई पड़ती है। चाहे समीक्षक की राय में पूरी फ़िल्म अच्छी ही क्यों न हो, अगर नामावली नागरी में नहीं है तो उस पर एक टेढ़ी टिप्पणी तो चिपका ही दी जाती थी। माधुरी के अंदरूनी पृष्ठों पर सिने-समाचार नामक एक अख़बार भी होता था, अख़बारी काग़ज़ पर अख़बारी साज-सज्जा लिए, जिसमें 'जानने योग्य हर फिल्मी खबर' छपती थी। उसका 15 दिसंबर, 1967 का अंक मज़ेदार है क्योंकि इसके मुख्य पृष्ठ पर सुर्ख़ी ये लगाई गई थी: 'फिल्म उद्योग में हिन्दी नामों की जोरदार लहर: हिन्दी के विरुद्ध दलीलें देने वालों को चुनौती'। उपशीर्षक भी हमारे काम का है: 'उपकार, संघर्ष, अभिलाषा, विश्वास, समर्पण, जीवन मृत्यु, परिवार, धरती, वासना, भावना आदि फिल्मों के कुछ ऐसे शीर्षक हैं जो इस मत का खण्डन करते हैं कि केवल उर्दू या अंग्रेजी के नाम ही सुंदर होते हैं'। जैसा कि ऊपर उद्धृत संपादकीय से भी ज़ाहिर है, भाषा की माधुरी की अपनी आधिकारिक समझ वैसे तो आम तौर पर व्यापक है, पर कुछ और मिसालें लेने पर हमें उस आबोहवा का अंदाज़ा लग जाएगा, जिसमें हस्तक्षेप करने की चेष्टा वो कर रही थी। संपादकीय इस पंक्ति के साथ ख़त्म होता है: "अहिन्दी भाषी क्षेत्रोंके लिए फिल्म का नाम व अन्य मुख्य नाम हिन्दी के साथ दो-तीन अन्य प्रमुख भारतीय लिपियों(जैसे बंगला व तमिल)में भी दिए जा सकते हैं।" पूछना चाहिए कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में नाम नागरी में क्यों दिए जाएँ, केवल स्थानीय भाषा में ही क्यों नहीं। लेकिन ऐसा मानना हिन्दी-हित के साथ समझौता करना होता, चूँकि इस भाषा की पहचान इसकी लिपि से नत्थम-गुत्था है, आख़िरकार लिपि की लड़ाई लड़कर ही तो भाषा अपनी स्वतंत्र इयत्ता बना पाई थी। ठीक है हिन्दी-विरोध की हवा है, ख़ासकर दक्षिण में तो इतना मान लिया जाता है कि उनकी लिपि भी चलेगी: 'भी'; 'ही' – कत्तई नहीं। इस सिलसिले में दिलचस्प है कि माधुरी ने किसी प्रोफ़ेसर मनहर सिंह रावत से दक्षिण का दौरा करवाके एक लेख लिखवाया जिसका मानीख़ेज़ शीर्षक था – 'दक्षिण का नारा: हमें फिल्मों में हिन्दी चाहिए'। लब्बेलुवाब ये था कि भारत की ज़्यादातर भाषाएँ संस्कृत के नज़दीक हैं, दक्षिण की भी। इसलिए वहाँ के लोगों के लिए संस्कृत के तत्सम-तद्भव शब्द सहज ग्राह्य हैं। साथ ही संस्कार का सनातन सवाल भी है:

एक सामान्य भारतीय के लिए गुरू-उस्ताद, रानी-बेगम, विद्यालय-मदरसा, कला-फन, ज्ञान-इल्म,, धर्म-मजहब, कवि-सम्मेलन-मुशायरा, हाथ-दस्त, पाठ-सबक, आदि शब्द युग्मोंमें बिम्ब ग्रहण या संस्कार शीलताकी दृष्टि से बहुत बड़ा अंतर आ जाता है जो कि अनुभूत सत्य है।
पर इसके साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जन-साधारणकी भाषामें जो शब्द सदियों से घुलमिलकर उनके जीवन संस्कार के अंग बन चुके हैं, उन्हें जबरदस्ती हटाकर एक नयी बनावटी भाषाका निर्माण करना भी बहुत हानिकारक होगा। फिर वे प्रचलित शब्द या प्रयोग कहीं से क्यों न आये हों। मातृभाषा के प्रति अनावश्यक पूर्वाग्रह, ममत्व… द्वेषनात्मक दृष्टिकोण का ही सूचक है। सरल भाषाकी तो केवल एक ही कसौटी होनी चाहिये कि किसी शब्द प्रयोग या मुहावरेसे सामान्य जनता कितनी परिचित या आसानिसे भविष्य में परिचित हो सकती है। उदाहरणके लिये यदि हम कहें – “यह बात मुझे मालूम है।" तो साधारण हिन्दीसे परिचित श्रोताओंको भी समझनेमें कोई कठिनाई नहीं होती। पर इसी बातको अगर हम अनावश्यक रूप से अल्प परिचित संस्कृतनिष्ठ भाषामें कहें कि – "प्रस्तुत वार्ता मुझे विदित है।" तो यह भाषाका मज़ाक उड़ाने-जैसा हो जाता है।
इसके साथ-साथ कुछ सुन्दर सरल, उपयुक्त तथा अर्थ व्यंजक शब्द हमें जहां कहीं भी प्रादेशिक भाषाओं से मिलें, विशेषत: एसे शब्द जिनके समानार्थी या पर्यायवाची शब्द हिन्दीमें उतने निश्चित प्रभावोत्पादक एवं व्यापक अर्थोंको देनेवाले नहीं होते तो उन्हें नि:संकोच स्वीकार कर लेना चाहिये। (30 जुलाई, 1965)

रावत साहब से पूछने लायक़ बात यह है कि ये सामान्य भारतीय कौन है, और क्या पूरे दक्षिण की भाषाओं-उपभाषाओं की  संस्कृतमयता यकसाँ है? अगर हाँ तो इतनी सदियों तक वे संस्कृत से अलग अपनी इयत्ता बनाकर क्यों रख पाईं? अगर हाँ तो ये सभी भाषाएँ संस्कृत ही क्यों नहीं कही जातीं। क्या तमिल भाषा के अंदर कई तरह की अंतर्विरोधी धाराएँ नहीं बह रही थीं, एक पारंपरिक ब्राह्मणवादी किंचित संस्कृतनिष्ठ तमिल के साथ-साथ दूसरी, दलित तमिल, भी तो उन्हीं दिनों अपने को राजनीतिक, साहित्यिक और फ़िल्मी गलियारों में स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। तो दार्शनिक धरातल पर जहाँ रावत साहब उदारमना हैं, वहीं 'संस्कार' का सनातन सवाल उन्हें भाषाओं की उचित व्यावहारिक स्थिति का आकलन करने से रोक-रोक देता है। सवाल अंतत: शुद्धता का है, जैसा कि पटना की कुमुदिनी सिन्हा के इस ख़त से ज़ाहिर हो जाएगा:

माधुरी' एक एसी जनप्रिय पत्रिका है, जिसने हम जैसे हजारों पाठकों का दिल जीत लिया है। 10 सितंबर के अंक में 'आपकी बात' स्तंभ में प्रकाशित मधुकर राजस्थानी के विचार पढ़े…. वास्तव में आज अच्छे से अच्छे कलाकार, लेखक, कवियों का फिल्म जगत में प्रवेश आवश्यक है। फिल्म ही आज एक ऐसा माध्यम है, जो जन-जन तक पहुँचता है।
इसी स्तंभ में कलकत्ता के भाई निर्मल कुमार दसानी का पत्र पढ़ा, उन्हें भी धन्यवाद देती हूँ। इस लोकतंत्र राष्ट्र में हिन्दी के नाम पर खिचड़ी अधिक चल नहीं सकती। उसका एक अपना अलग रूप होना ही चाहिए और इसमें फिल्मों का सहयोग आवश्यक है। फिल्म के हरेक कलाकार, गीतकार को चाहिए कि फारसी-उर्दू मिश्रित भाषा त्यागकर यथाशक्ति संशोधित, परिमार्जित और मधुर हिन्दी व्यवहृत कर उसे फैलाने में अपना सहयोग दें।
अंत में पुन: माधुरी की लोकप्रियता और सफलता की कामना करती हूँ। (ज़ोर हमारा)

एक तरफ़ जहाँ दशकों पुरानी गुहार – कि हिन्दी साहित्यकार सिनेमा की ओर मुड़ें – को बदस्तूर दुहराया गया है, वहीं लोकतंत्र की अद्भुत परिभाषा भी की गई है कि यहाँ फ़ारसी-उर्दू मिश्रित खिचड़ी भाषा नहीं चलेगी। एक तरफ़ लोकप्रियता की अभिलाषा, दूसरी तरफ़ परिमार्जित, संशोधित और परिनिष्ठित हिन्दी की वकालत – ज़ाहिर है कि लेखिका को इन दोनों चाहतों में कोई विरोधाभास नहीं दिखाई देता। लेकिन भाषायी ज़मीन पर क़ब्ज़े की युयुत्सा तब ख़ासी सक्रिय हो उठती है जब मुक़ाबले में हिन्दी की पुरानी जानी दुश्मन उर्दू खड़ी हो जाए, और कुछ नहीं बस अपना खोया हुआ नाम ही माँग ले तो यूँ लगता था गोया क़यामत बरपा हो गई।  मिसाल के तौर पर एक विवाद का ज़िक्र करना उतना ही ज़रूरी है जितना कि उसकी तफ़सील में जाना।  सिने-समाचार में छपी इस ख़बर को देखें:

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साहिर द्वारा हिन्दी के विरुद्ध विष वमन: फिल्म उद्योग में आक्रोश
(माधुरी के विशेष प्रतिनिधि द्वारा : तथाकथित प्रगतिशील शायर साहिर लुधियानवीकी उर्दू-हिन्दी का विवाद उठाकर साम्प्रदायिक तनाव पैदा करनेकी कोशिशशों की फिल्म उद्योग में सर्वत्र निंदा की जा रही है।)

हाल ही में एक मुशायरे में साहिरने कहा कि भारतमें 97 प्रतिशत फिल्में उर्दू में बनती हैं, इसलिए इन फिल्मोंकी नामावली उर्दू में होनी चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि 'हिन्दी साम्राज्यवाद' नहीं चलने दिया जायेगा।
सारी दुनियाके शोषित वर्ग का रहनुमा बननेवाले इस शायर की साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने की यह कोई पहली हरकत नहीं है। कुछ ही मास पूर्व बिहारके बाढ़ पीड़ितोंकी सहायताके लिए चन्दा एकत्रित करने के उद्देश्यसे साहिर, ख्वाजा अहमद अब्बास, सरदार जाफरी आदि ने बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान, पंजाब आदि प्रदेशों का दौरा किया था। लेकिन बिहारके अकाल का सिर्फ एक बहाना बन रह गया। हर मुशायरेमें सम्बन्धित प्रदेश की द्वितीय राजभाषा बनायी जानेका प्रचार किया गया।
आम चुनाव से पूर्व बम्बईके कुछ उर्दू पत्रकारों को इन्हीं शायर महोदय ने सलाह दी थी कि उत्तर प्रदेश के साथ महाराष्ट्र में भी द्वितीय राजभाषा का स्थान उर्दू को देने के लिए आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए। उनका तर्क था कि महाराष्ट्र में सम्मिलित मराठवाड़ा क्षेत्र के निजामके आधीन था और वहाँ के वासी उर्दू बोलते हैं। इस आंदोलन में तन-मन-धनसे सहायता देनेका आश्वासन भी उन्होंने दिया था।
साहिर द्वारा साम्प्रदायिक आग भड़कानेकी इन कोशिशों से फिल्म उद्योगमें आक्रोश फैल गया है। फिल्म लेखक संघ के अध्यक्ष ब्रजेन्द्र गौड़ने साहिर की निन्दा करते हुए कहा कि फिल्म उद्योग में साम्प्रदायिकता फैलाने की यह कोशिश सफल नहीं हो सकेगी।       
सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोजकुमार, निर्माता शक्ति सामंत, गीतकार भरत व्यास, मजरूह सुल्तानपुरी, पं. गिरीश, संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी आदि ने भी 'माधुरी' प्रतिनिधि से हुई भेंट में साहिर की इन हरकतों की निन्दा की। (16 दिसंबर, 1967)

देखा जा सकता है कि माधुरी का हिन्दी राष्ट्रवाद जागकर गोलबंदी शुरू कर चुका है। साहिर ने अक्षम्य अपराध जो किया है, उर्दू की अपनी ज़मीन को अपना कहने का, इसके आगे उनके सारे प्रगतिशील पुण्य ख़ाक हो जाते हैं, अब तक के सारे भजन-कीर्तन बेकार, सारी लोकप्रियता ताक पर। आज का पाठक यह पूछ सकता है कि अगर हिन्दी के लिए आंदोलन चलाना साम्प्रदायिक नहीं था तो उर्दू में ऐसी क्या ख़ास बात थी जिसके स्पर्श मात्र से आपकी तरक़्क़ीपसंदगी मशकूक हो जाती थी? यह उसी 'शूच्याग्रे न दत्तव्यं' वाले युयुत्सु उत्साहातिरेक का लक्षण था जो हिन्दी के हिमायतियों में पचास और साठ के दशक में ज़बर्दस्त तौर पर तारी था, जो कुछ राज्यों में उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा देने के नाम पर ही अलगाववाद सूँघने लगता था। पाठकों ने एक बार फिर माधुरी के मुहिम की ताईद करते हुए कई ख़त लिखे, सिर्फ़ एक लेते हैं:

'साहिर का असली चेहरा'  शीर्षक-पत्र में कहा गया: "साहिरकी लोकप्रियता प्रगतिशील विचारोंके कारण ही बढ़ी है। एक प्रगतिशील साहित्यजीवी अगर संकीर्णता और अलगाववादी लिजलिजी विचारधाराको प्रोत्साहन देता है तो ऐसी प्रगतिशिलता को 'फ्राड' ही कहा जाएगा। साहिर निश्चय ही उर्दू का पक्षपोषण कर सकते हैं, लेकिन राष्ट्रभाषा का अपमान करके या अपमान की भाषा बोलकर नहीं। साहिर साहब को यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की क्या अहमियत होती है। उर्दू को हथियार बनाकर हिन्दीपर वार करना कौन देशभक्त हिन्दुस्तानी पसंद करेगा?…फिरकापरस्तों की यह कमजोरी होती है कि वे वतन की मिट्टी के साथ, उसकी पाकीजा तहजीब के साथ, उसकी भावनात्मक एकता के साथ गद्दारी ही नहीं बलात्कार तक करने की कोशिश करते हैं।…अच्छा हो साहिर साहब अपने रुख में परिवर्तन कर लें अन्यथा प्रगतिशीलता का जो नकाब उन्होंने चढ़ा रखा है, वह हमेशा के लिए उतार फेंके ताकि असली चेहरे का रंग-रोगन तो नजर आए।"

इस धौंस-भरे विमर्श में राष्ट्रभाषा हिन्दी तो सदा-सर्वदा लोकाभिमुख रही है, वह तो जनवाद के ऊँचे नैतिक सिंहासन से जनता से बोलती हुई जनता की अपनी भाषा है, उसको साम्राज्यवादी भला कहा कैसे जा सकता है! ऐसा पूर्वी बंगाल में बांग्ला के साथ पाकिस्तान भले कर सकता है, जबकि भारत की पूरी तवारीख़ में आक्रामकता के उदाहरण नहीं मिलते। दिलचस्प यह भी है कि इस विवाद के दौरान साहिर को कभी अपनी स्थिति साफ़ करने का मौक़ा नहीं दिया, हाँ चौतरफ़ा उनपर हल्ला अवश्य बोला गया। इस विवाद की अनुगूँज अंग्रेजी फ़िल्मफ़ेयर में भी उठी, पर वहाँ कम-से-कम कुछ ऐसी चिट्ठियों को भी छापा गया जो उर्दू व हिन्दुस्तानी यानि साहिर का पक्ष लेती दिखीं, जबकि एक भी ऐसी चिट्ठी माधुरी की उपलब्ध फ़ाइलों में नहीं दिखी।

माधुरी से ही एक आख़िरी ख़त – चूँकि यह इस मुद्दे पर सबसे उत्कृष्ट बयान है – देकर इस विवाद और लेख की पुर्णाहुति की जाए। फिल्मेश्वर ने अपने अनियत स्तंभ 'चले पवन की चाल' में 'हिन्दी-उर्दू के नाम पर नफरत के शोले भड़काने वाले साहिर के नाम एक खुला पत्र' लिखा, जिसमें सिद्ध किया गया कि हिन्दी-उर्दू दो अलहदा भाषाएँ नहीं हैं, गोकि उनकी लिपियाँ एक नहीं हैं: ग़ालिब ने अपने को हिन्दी का कवि कहा, और ख़ुद साहिर की नागरी में छपी किताबें उर्दू संस्करणों से ज़्यादा बिकी हैं, वो भी बग़ैर अनुवाद के, तो हिन्दी साम्राज्यवादी कैसे हो गई? और फिल्मों की भाषा अगर 97 प्रतिशत उर्दू है, तो वो हिन्दी हुई न? पिर झगड़ा कैसा!  इस ख़त में साहिर के पूर्व-जन्म के पुण्य को बेकार नहीं मानकर उनके 'अलगाववादी' उर्दू-प्रेम पर एक छद्म अविश्वास, एक मिथ्या आहत भाव का मुजाहिरा किया गया है, कि 'साहिर, आप तो ऐसे न थे' या 'आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी'। छद्म और मिथ्या विशेषणो का सहारा मैंने इसलिए लिया है क्यूँकि शीर्षक में ही निर्णय साफ़ है, बाक़ी पत्र तो एक ख़ास अंदाज़े-बयाँ है, कोसने का एक शालीन तरीक़ा, बस। बहरहाल, पत्र-लेखक बेहद हैरत में है:

आख़िर बात क्या है? हिन्दी और उर्दू की? या हिन्दी और उर्दू के नाम पर सम्प्रदाय की? इस धर्मनिरपेक्ष राज्यमें आजादी के बीस सालोंमें इतना करिश्मा तो किया ही है कि हमारे अन्दर जो संकुचित भावनाओं की आग घुट रही है, हमने उसे उसके सही नाम से पुकारना बंद कर दिया है, और उसे हिन्दी-उर्दूका नाम दे कर हम उसे छिपाने की कोशिश करते [रहते] हैं।

आप अपनी भावुक शायरी में कितनी ही लफ्फाजी करते रहते हों, यह सही है कि आपके दिल में एक दिन इनसान के प्रति प्रेम भरा था। आप सब दुनियाके लोगों को एकसाथ कंधे से कंधा मिलाकर खुशहाली की मंजिल की तरफ बढ़ते हुए देखना चाहते थे। लेकिन दोस्त, आज ये क्या हो गया? इनसान को इनसान के करीब लाने के बजाए, आप हिन्दी-उर्दूकी आड़ में किस नफरत के शोलेसे खेलने लगे? सच कहूँ तो आपकी आवाज से आज जमाते-इस्लामी की घिनौनी बू आती है। आपने पिछले दिनों वह शानदार गीत लिखा था:

नीले गगन के तले,
धरती का प्यार पले  

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यह पत्र लिखते समय मुझे उस गीत की याद हो आयी, इसलिए आपको देशद्रोही कहनेको मन नहीं होता। पर मुशायरे में आपकी तकरीरको पढ़कर आपको क्या कहूँ यह समझ में नहीं आता। पूरे हिन्दुस्तानकी एक पीढ़ी, जिसमें पाकिस्तान की भी एक पीढ़ी शामिल की जा सकती है, आपकी कलम पर नाज करती थी, आपके खयालोंसे(खयालों उर्दू का नहीं हिन्दी का शब्द है, उर्दू में इसे खयालात कहते हैं, हुजूरेवाला) प्रभावित थी। आपने उस पीढ़ी की तमाम भावनाओं को अपनी साम्प्रदायिकता की एक झलक दिखा कर तोड़ दिया।…आपने एक बार लिखा था:

तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा
इनसान की औलाद है इनसान बनेगा

लेकिन आपकी आजकलकी गतिविधि देखते हुए तो ऐसा लगता है कि ये आपकी भावनाएँ नहीं थीं, आप सिर्फ फिल्म के एक पात्रकी भावनाएँ लिख रहे थे…सारे हिन्दुस्तान में फिल्म उद्योग एक ऐसी जगह थी जहां जाति, प्रदेश और धर्म का भेदभाव काम के रास्ते में नहीं आता था। और आप इन्सानियत के हामी थे। पर आपने इस वातावरण में साम्प्रदायिकता का जहर घोल दिया। लगता है इनसान की औलाद का भविष्य आपकी नजर में सिर्फ एक है:

तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा
शैतान की औलाद है शैतान बनेगा

मैं आख़िरमें इतनी ही दुआ करना चाहता हूँ: खुदा उर्दूको आप जैसे हिमायतियों से बचाये! (15 दिसंबर 1967).

एक झटके में साहिर लुधियानवी जैसा लोकप्रिय शायर 'फ़्राड', 'फिरकापरस्त', 'साम्प्रदायिक' और अमूमन 'देशद्रोही' क़रार दिया जाता है। इसमें इतिहास के विद्यार्थी को कोई हैरत नहीं होती क्योंकि फिल्मेश्वर की आलोचना चिरपरिचित ढर्रे पर चलती है, और इसको अपने मंत्रमुग्ध पाठक-समूह पर पूरा भरोसा है। कई दशकों से साल-दर-साल चलते आ रहे मुख्यधारा के राष्ट्रवादी विमर्श ने एक ख़ास तरह की परंपरा का सृजन किया था, और उसमें जो कुछ पावन, महान और उदात्त था, उसे अपनी झोली में डाल लिया था, और जो अल्पसंख्यक एक ख़ास तरह के सांस्कृतिक वर्चस्व को मानने से इन्कार करते थे, वे अलगाववादी कह कर अलग-थलग कर दिए गए थे। ये दोनों धाराएँ परस्पर प्रतिद्वंद्वी मानी गईं जबकि दोनों एक ही राष्ट्रवादी नदी के दो किनारे-भर थे। हिन्दी राष्ट्रवाद इस प्रवृत्ति का एक अतिरेकी विस्तार-मात्र था, वैसे ही जैसे कि उर्दू राष्ट्रवाद। जब इन दो किनारों को मिलाने वाली फ़िल्मी दुनिया की बिचौलिया पुलिया ज़बान को उर्दू के शायर ने उर्दू नाम दिया तो इस हिमाकत पर उन्हें वैसे ही संगसार होना ही था, जैसे एक-डेढ़ पीढ़ी पहले गांधी को उनकी हिन्दुस्तानी की हिमायत के लिए।

बतौर निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि माधुरी ने सिनेमा को हिन्दी जनपद में सम्मानजनक, लोकप्रिय और चिंतन-योग्य वस्तु बनाने में अभूतपूर्व, संयमित, रचनात्मक योग दिया। लेकिन जिस तरह फ़िल्म-निर्माताओं की व्यावसायिक चिंताओं को समझे बग़ैर मुख्यधारा का सिनेमा नहीं समझा जा सकता, उसी तरह माधुरी की हिन्दी-प्रियता का आकलन किए बग़ैर इसके सिनेमा-प्रेम और सिने-अध्ययन की इसकी विशिष्ट प्रविधि का जायज़ा नहीं लिया जा सकता।

इस विशिष्ट पद्धति की एक आख़िरी मिसाल। हम मुख्यधारा के फ़िल्म अध्ययन में कथानक को संक्षेप में कहते हैं, और जल्द ही काम के दृश्य के विश्लेषण पर बढ़ जाते हैं। लेकिन अरविंद कुमार ने बक़लम ख़ुद फ़िल्म को क़िस्सागोई के अंदाज़ में पेश किया। फ़िल्मों को शॉट-दर-शॉट, बआवाज़, शब्दों में पेश करने की पहल करके उन्होंने एक नई विधा को ही जन्म दे दिया, जो आप कह सकते हैं कि किसी हिन्दुस्तानी सिनेमची के हाथों ही संभव था। क्योंकि यहीं पर आपको ऐसे लोग बड़ी तादाद में मिल सकते हैं जो कि फ़िल्म देखकर आपसे तफ़सील से उसकी कहानी बयान करने को कहेंगे। ख़ास तौर पर उस ज़माने में, जब आप ये नहीं कह सकते थे कि देख लेना, टीवी पर आ जाएगा, या देता हूँ, है मेरे पास। इस क़दर विस्तार से सुनने के लिए, और कहने के लिए वक्ता-श्रोता के पास फ़ुर्सत का वक़्त होना भी ज़रूरी है। ये बात भी याद रखने की है कि आठवें दशक के उस दौर में एक मौखिक लोकाचार को अपनी पसंद की पुरानी फ़िल्मों को कहन शैली में ढालकर उन्होंने अपने चिर-सहयोगी और नए संपादक विनोद तिवारी का हाथ भी मज़बूत किया, कि संपादकी का संक्रमण-काल सहज गुज़र जाए, पत्रिका वैसी ही लुभावनी व ग्राह्य बनी रहे। धारावाहिक रूप में छपने वाली इस शृंखला में आदमी, प्यासा, महल, बाज़ी, देवदास, जैसी शास्त्रीय बन चुकी कई लोकप्रिय फ़िल्मों का पुनरावलोकन किया, और यह लेखमाला 'शिलालेख' के नाम से जानी गई।

और भी बहुत कुछ ऐतिहासिक और दिलकश था माधुरी में, पर बाक़ी पिक्चर फिर कभी।

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…..समाप्त….

(इसके पहले का यहां पढ़ें- पार्ट एक)

लेखक रविकांत इतिहासकार हैं और सीएसडीएस में एसोसिएट फेलो के रूप में जुड़े हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ के दीवाली विशेषांक, 2011 में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है.

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