पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत में दलित- पिछडे और आदिवासियों के बीच 'महिषासुर और दुर्गा' के मिथक को ले कर एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन चल रहा है। पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, मुंबई की टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज समेत 60 शहरों में 'महिषासुर शहादत दिवस' का आयोजन किया गया था। 17 अक्टूबर, 2013 को दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में ‘बैकवर्ड स्टूडेंटस फोरम’ द्वारा आयोजित ‘महिषासुर शहादत दिवस‘ पर 'किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन ? महिषासुर : एक पुनर्पाठ' शीर्षक से पुस्तिका जारी की गई थी। फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन द्वारा संपादित इस पुस्तिका में प्रेमकुमार मणि, अश्विनी कुमार पंकज, इंडिया टुडे (हिंदी) के प्रबंध संपादक दिलीप मंडल समेत 7 प्रमुख लेखकों, पत्रकारों व शोधार्थियों के लेख हैं।
ख्यात मार्क्सवादी आलोचक राजकुमार राकेश ने पुस्तिका की समीक्षा की है। वे लिखते हैं कि सदियों से विजेताओं ने विजितों को बर्बर, क्रूर, विद्रोही, अमानवीय घोषित किया है। यह हारे हुए लोगों के प्रति विजेताओं का न्याय है। यही कुछ महिषासुर के साथ किया गया था। सदियों से उसकी ऐसी अमानवीय छवियां गढी गईं हैं, जो विश्वासघात से की गई उस शासक की मौत को जायज ठहराने का काम करती रही हैं। हमलावर आर्यों, जो इंद्र के नेतृत्व में बंग प्रदेश को कब्जाने के लिए यहां के मूल निवासी अनार्यों से बार-बार हारते चले गए थे, उन्होंने अंततः विष्णु के हस्तक्षेप से दुर्गा को भेजकर महिषासुर को मरवा डाला था। आर्यों (सुरापान करने वाले और पालतू पशुओं को अपने यज्ञों के नाम पर वध करके उनके मांस को खा जाने वाले सुरों) ने खुद को देवता घोषित कर दिया और बंग प्रदेश के मूल निवासियों को असुर। महिषासुर इन्हीं असुरों (अनार्यों) का बलशाली और न्यायप्रिय राजा था। ये आर्य इन अनार्यों के जंगल, जमीन की भू-संपदा और वनस्पति को लूट लिए जाने और अनार्यों के दुधारु जानवरों को हवन में आहुत कर देने के लिए कुख्यात थे। महिषासुर और उनकी अनार्य प्रजा ने आर्यों के इन कुकर्मों को रोकने के लिए इंद्र की सेना को इतनी बार परास्त कर डाला कि उसकी रीढ़ ही ध्वस्त हो गई। ऐसे में इंद्र ने विष्णु से हस्तक्षेप करवाकर एक रुपसी दुर्गा को महिषासुर को मार डालने का जिम्मा सौंपा। जब दुर्गा पूरे नौ दिन और नौ रातों तक उस महल में मौजूद थी, तो सुरों का टोला उसके गिर्द के जंगलों में भूखा प्यासा छिपा बैठा, दुर्गा के वापस आने का इंतजार कर रहा था। आखिर इतने अर्से में दुर्गा ने छलबल से महिषासुर का कत्ल कर दिया। इस पाठ की पुष्टि बंगाल में की जाने वाली नवरात्रि दुर्गा पूजा और नौ दिनों तक व्रत कर भूखे रहने के आधुनिक पाठों से होती है। हालांकि इन विजेताओं ने दुर्गा के लिए पशुबलि का प्रावधान रखा है। तर्क दिया जाता है कि यह पशुबलि दुर्गा के वाहन शेर के लिए है। बाकी वे खुद को शाकाहारी घोषित करते हैं ताकि असुरों को मांसाहारी सिद्ध करने का तर्क उनके पास मौजूद रहे।
‘दुर्गा सप्तशती‘ पुस्तक में मौजूद पाठ हालांकि सुरों के पक्ष में लिखा गया है, मगर यह महिषासुर वध के छल छद्म और सुरों के चरित्र पर बहुत कुछ कह जाता है ‘‘प्राचीन काल के देवी-देवता तथा दैत्यों में पूरे सौ बरस युद्ध होता रहा। उस समय दैत्यों का स्वामी महिषासुर और देवताओं का राजा इंद्र था। उस संग्राम में देवताओं की सेना दैत्यों से हार गई। तब सभी देवताओं को जीतकर महिषासुर इंद्र बन बैठा। हार कर सभी देवता ब्रह्माजी को अग्रणी बनाकर वहां गए जहां विष्णु और शंकर विराज रहे थे। वहां पर देवताओं ने महिषासुर के सभी उपद्रव एवं अपने पराभव का पूरा-पूरा वृतांत कह सुनाया। उन्होंने कहा, महिषासुर ने तो सूर्य, अग्नि, पवन, चंद्रमा, यम और वरुण और इसी प्रकार अन्य सभी देवताओं का अधिकार छीन लिया है। स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बन बैठा है। उसने देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। महिषासुर महादुरात्मा है। देवता पृथ्वी पर मृत्यों की भांति विचर रहे हैं। उसके बध का कोई उपाय कीजिए। इस प्रकार मधुसूदन और महादेव जी ने देवताओं को वचन सुने, क्रोध से उनकी भौंहे तन गईं।‘‘ इसके बाद उन्होंने दुर्गा को महिषासुर का वध करने को भेजा। जब युद्ध चल रहा थो तो ‘‘देवी जी ने अपने बाणों के समूह से महिषासुर के फेंके हुए पर्वतों को चूर-चूर कर दिया। तब सुरापान के मद के कारण लाल-लाल नेत्रवाली चण्डिका जी ने कुछ अस्त-व्यस्त शब्दों में कहा – हे मूढ़! जब तक कि मैं मधुपान कर लूं, तब तक तू भी क्षण भर के लिए गरज ले। मेरे द्वारा संग्रामभूमि में तेरा वध हो जाने पर तो शीघ्र ही देवता भी गर्जने लगेंगे।‘‘ इस धमकी के बावजूद उस दैत्य ने युद्ध करना नहीं छोड़ा। तब देवीजी ने अपनी तेज तलवार से उसका सिर काटकर नीचे गिरा दिया….देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। दिव्य महर्षियों के साथ देवता लोगों ने स्तुतियां की। गंधर्व गायन करने लगे। अप्सराएं नाचने लगीं। बहरहाल, इस कथा में देवी का ‘सुरापान‘ स्वयं अनेक अनुमानों को जन्म देता है!
राजकुमार राकेश आगे लिखते हैं कि उपरोक्त तथ्यों, इनके अर्थ संकेतों पर गौर किया जाए, तो असल में ये आज की भारतीय राजनीति का बहुत गंभीर पाठ प्रस्तुत करते हैं। इंद्र अगर प्रधानमंत्री था, तो ये विष्णु, शिव वगैरह कौन हैं, जिनके सामने गंधर्व गाते हैं और अप्सराएं नाचती हैं। पिछड़ा, दलित, औरत, वंचित लोगों के इस व्यापक अर्थपाठ के बीच जो ये नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल जमीन से हांका जा रहा है – इसके अध्ययन और पुनर्पाठ की प्रस्तुति से कितना कुछ सामने आएगा, यह कोई कल्पना से परे की चीज नहीं है। अब तो पश्चिम पार से आने वाले आर्यों को सेना की जरुरत भी नहीं है। उनकी पूंजी ही अनार्यों को खदेड़ देने के लिए काफी है और अपने देश के शासक उस पूंजी के गुलाम बने हैं ही।
बहुत हद तक प्रस्तुत पुस्तिका में उठाए गए विषय पर अधिकाधिक व्यापक शोध की जरुरत है, जिसके चलते बहुत से छिपे सत्य उद्घाटित होने की संभावना बनती है, जिन्हें नकारा जाना आज के आर्यपुत्रों के लिए मुमकिन नहीं रहेगा।
पुस्तक का मूल्य: 30 रूपये
संपर्क: ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंटस फोरम, जेएनयू
मो: 097716839326ए 09430083588