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ममता के लिए मॉडलिंग कर जन आंदोलनों को चोट पहुंचा रहे हैं आन्ना

राजनीति की मंडी में अन्ना एक बिकाऊ मॉडल की तरह खड़े नजर आ रहे है, आज तृणमूल कांग्रेस बेच रहे है, तो एक आशा अंडरवियर बनाने वाली कम्पनी के दिल में भी पैदा होती है कि मोहनदास करमचंद गांधी के बाद जिसे देश ने गांधी मान लिया था, उसके माध्यम से साबुन, तेल, कंघी इत्यादि सामान वे राष्ट्रहित में उपभोक्ताओं तक पहुंचाने में सफल रहेंगे। अन्ना ने संभवतः कभी नहीं सोचा होगा कि उनका उपयोग इस देश में एक पोस्टर की तरह किया जायेगा।

राजनीति की मंडी में अन्ना एक बिकाऊ मॉडल की तरह खड़े नजर आ रहे है, आज तृणमूल कांग्रेस बेच रहे है, तो एक आशा अंडरवियर बनाने वाली कम्पनी के दिल में भी पैदा होती है कि मोहनदास करमचंद गांधी के बाद जिसे देश ने गांधी मान लिया था, उसके माध्यम से साबुन, तेल, कंघी इत्यादि सामान वे राष्ट्रहित में उपभोक्ताओं तक पहुंचाने में सफल रहेंगे। अन्ना ने संभवतः कभी नहीं सोचा होगा कि उनका उपयोग इस देश में एक पोस्टर की तरह किया जायेगा।

अन्ना में गांधी में देखने वाले निराश हैं, तो राजनीति की मंडी में दलाली करके अपना कद ऊँचा करने वाले अतिप्रसन्न हैं। आने वाले दिनों में अन्ना ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के लिए कहीं कांग्रेस को, कहीं भाजपा को, तो कहीं अपने पुराने सिपहसालार अरविन्द केजरीवाल की आप पार्टी को कोसते हुए नजर आयेंगे। उनके हर वाक्य की एक कीमत होगी, जो उनके इर्द-गिर्द बैठा तंत्र वसूल करेगा। अन्ना को यह मालूम ही नहीं होगा कि किस शब्द की कीमत बाजार में कब कितनी लगाई गई। अन्ना तो कठपूतली की तरह बिना विवेक का सहारा लिए अपनी अस्मिता और सम्मान को क्रमशः सरेराह नीलाम करने का उपक्रम करेंगे।

प्रश्न यह है कि चुनाव के बाद अन्ना नामक व्यक्ति भारतीय समाज में कितना प्रासांगिक रह जायेगा, क्या गांधी के बाद जयप्रकाश और उसके बाद अन्ना यह सिलसिला अब भारत में इतिहास बन जायेगा। प्रश्न कई हैं, जो अन्ना के अस्तित्व के समाप्त होने के साथ ही विराम लेते है। आम आदमी अन्ना के साथ खड़ा होने के बाद भी स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। जहाँ तृणमूल कांग्रेस का कोई अस्तित्व नहीं है, जहां ममता को कोई पहचानता नहीं है, वहां सौदेबाजी करके पार्टी के उम्मीदवार खड़े किए जायेंगे और अन्ना के माध्यम से कांग्रेस या भाजपा के चुने हुए उम्मीदवारों को आप पार्टी के प्रकोप से बचाने की कोशिश की जायेगी। इन लाभांवितों में कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी, नरेन्द्र गड़करी आदि इत्यादि नेता यदि शामिल हो, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
 
वास्तव में आप के अस्तित्व से निपटने के लिए इससे सरल मार्ग नहीं था। जब रालेगण सिद्धि में अनशन के दौरान अन्ना ने कांग्रेस के जनलोकपाल विधेयक की मुक्तकण्ठ से तारीफ की तब से ही यह अनुमान लगाया जाने लगा कि इस राजनैतिक सौदेबाजी का आकार क्या है। आज अन्ना ठगे गये है, उन्हें बीच बाजार में लाकर एक मॉडल की तरह उनकी कीमत लगाई जा रही है, परंतु यह सब संभव केवल इसलिए है कि अन्ना स्वयं इस मंडी में बिकने के लिए तैयार हो गये। आज आम आदमी इस प्रश्न को पुनः दोहरा रहा है, क्या ये वही अन्ना है, जिन्होंने गांधी की तरह राजनीति से दूर रहकर आम आदमी की सेवा का संकल्प लिया था।
 
अन्ना, भारत की राजनैतिक व्यवस्था कितनी दूषित हो चुकी है और दलालों का साम्राज्य राजनीति को किस तरह नियंत्रित कर रहा है, इसका आभास आपको लोकसभा चुनावों के बाद स्वयं होगा, परंतु तब तक इस राष्ट्र में अन्ना की छवि पूरी तरह धूमिल हो चुकी होगी। दलाल नदारद होंगे और स्वयं आप चैराहे पर सर पर लगी हुई टोपी से स्वयं को हवा करते हुए नजर आयेंगे। गांधीवादियों की यह जमात उम्र की ढलान में पहुंचने के बाद जितनी ईमानदार है, उतनी ही ईमानदारी की उम्मीद भारत के समाज से भी करती है। इस पीढ़ी का सबसे बड़ा दोष यह है कि जीवन के अंतिम क्षणों में जनसेवा की गांधीवादी परिभाषा को पूर्ण करने के लिए संघर्ष करने की जज्बा अत्यंत प्रबल होता है।
 
इस
तरह के जन आंदोलनों को कुचलने के लिए लगभग हर राजनैतिक दल में या उसके बाहर दलालों का गिरोह सक्रिय रहता है, जो राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के कार्यों के ठेके लिया करता है। यही कारण है कि एक शालीन और सौम्य गांधीवादी अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए दलाली के इस चंगुल में फंस जाता हैं अन्ना के साथ भी यही हुआ। आज अन्ना के फौजी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल सभी राजनीति के मुहाने पर अपने-अपने लाभ को खोजने में लगे हुए है। बचे हुए अन्ना आज दलालों की जमात में राजनीति की नई परिभाषा खोज रहे है।
 
अन्ना को यह भ्रम है कि वे जिसे ईमानदार होने का प्रमाण पत्र देंगे उसे यह देश स्वीकार कर लेगा। आज यदि उसी रामलीला मैदान में गांधी टोपी के भरोसे अन्ना पुनः दिल्ली का आवाहन करें, तो लाखों के स्थान पर सैकड़ों की भीड़ का जमा हो पाना भी असंभव होगा। इसका प्रमुख कारण है, कल तक अन्ना राष्ट्र के आम जनमानस की संपत्ति थे, आज वही अन्ना ममता बनर्जी और चंद दलालों की प्रोपर्टी बन चुके है। अन्ना की आवाज का वो दम खो चुका है। उनकी आवाज पर किसी भी चुनाव क्षेत्र में परिणाम बदलना तो दूर सैकड़ों की तादाद में वोट पड़ पाना भी संभव नहीं रहा। अन्ना अब केवल अपनी आका तृणमूल कांग्रेस के क्षेत्र में ही समय व्यतीत करें, संभवतः यही उपयुक्त होगा। इसके अतिरिक्त मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए जिन लोकसभा चुनाव से दलालों का समूह हार-जीत में अंतर घटाने या बढ़ाने के लिए अन्नारूपी औजार का उपयोग करना चाहता है, वहां अन्ना अपनी मौजूदगी मजबूरी में ही सही, दरशा सकते है।
 
इस देश से अहिंसक गांधीवादी आंदोलनों की परम्परा का अंतिम दृश्य समाप्त हो चुका है। अब यह दावा कोई नहीं कर सकता कि आने वाले समय में अपनी ईमानदार छवि को प्रदर्शित करके कोई भी व्यक्ति देश की राजनीति में जन आंदोलन की भूमिका को मजबूती से रख पायेगा। राजघाट में आज एक अजीब सी शांति होगी। गांधी स्वयं से प्रश्न कर रहा होगा कि भारतीय संस्कारों को लेकर जिस अन्ना ने देश की रक्षा का संकल्प लिया था, वो ममता का चैकीदार आखिर कैसे बन गया।

लेखक सुधीर पाण्डे से [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।

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