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मीडिया और मुसलमान

मुसलमान बदल गए मगर मीडिया के कैमरों का मुसलमान आज तक नहीं बदला। उसके लिए मुसलमान वही है जो दाढ़ी, टोपी और बुढ़ापे की झुर्रियाँ के साथ दिखता है। इस चुनाव के कवरेज में मीडिया ने एक और काम किया है। मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष बना दिया है। जैसे बाक़ी समुदायों में मोदी को लेकर शत् प्रतिशत सहमति है सिर्फ मुसलमान विरोध कर रहे हैं। पूरे मुस्लिम समुदाय का एक ख़ास तरह से चरित्र चित्रण किया जा रहा है ताकि वह मोदी विरोधी दिखते हुए सांप्रदायिक दिखे। जिसके नाम पर मोदी के पक्ष में ध्रुवीकरण की बचकानी कोशिश हो।

मुसलमान बदल गए मगर मीडिया के कैमरों का मुसलमान आज तक नहीं बदला। उसके लिए मुसलमान वही है जो दाढ़ी, टोपी और बुढ़ापे की झुर्रियाँ के साथ दिखता है। इस चुनाव के कवरेज में मीडिया ने एक और काम किया है। मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष बना दिया है। जैसे बाक़ी समुदायों में मोदी को लेकर शत् प्रतिशत सहमति है सिर्फ मुसलमान विरोध कर रहे हैं। पूरे मुस्लिम समुदाय का एक ख़ास तरह से चरित्र चित्रण किया जा रहा है ताकि वह मोदी विरोधी दिखते हुए सांप्रदायिक दिखे। जिसके नाम पर मोदी के पक्ष में ध्रुवीकरण की बचकानी कोशिश हो।

जिन सर्वे में बीजेपी विजयी बताई जा रही है उन्हीं में कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ बीजेपी को शून्य से लेकर दो सीटें मिल रही हैं। तो क्या मीडिया का कैमरा उड़ीसा के ब्राह्मणों या दलितों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं। क्या मीडिया का कैमरा तमिलनाड के पिछड़ों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं। क्या मीडिया लालू या मुलायम समर्थक यादवों से पूछ रहा है कि आप मोदी को वोट क्यों नहीं दे रहे हैं। मीडिया का कैमरा सिर्फ मुसलमानों से क्यों पूछ रहा है।

ऐसे सवालों से यह भ्रम फैलाने का प्रयास होता है कि मोदी के साथ सब आ गए हैं बस मुसलमान ख़िलाफ़ हैं। जबकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। ग़ैर मुस्लिम समाज में भी अलग अलग दलों को वोट देने का चलन है उसी तरह मुस्लिम समाज भी अलग अलग दलों को वोट देता है। अलग अलग दलों को एक एक मुस्लिम वोट के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जबकि यह भी एक तथ्य है कि मुसलमान बीजेपी को वोट देते हैं। हो सकता है प्रतिशत में बाक़ी समुदायों की तुलना में कम ज़्यादा हो।

लेकिन ऐसे सवालों के ज़रिये मुसलमानों की विशेष रूप से पहचान की की जा रही है कि अकेले वही हैं जो मोदी का विरोध कर रहे हैं। सब जानते हैं कि मुसलमान वोट बैंक नहीं रहा। उसने यूपी में बसपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी को इसलिए चुना क्योंकि अन्य समुदायों की तरह उसे लगा कि सपा ही स्थिर सरकार बना सकती है। बिहार में उसने शहाबुद्दीन जैसे नेताओं को हराकर नीतीश का साथ इसलिए दिया क्योंकि वह एक समुदाय के तौर पर विकास विरोधी नहीं है। वह भी विकास चाहता है। मुसलमान सांप्रदायिकता का विरोधी ज़रूर है जैसे अन्य समुदायों में बड़ी संख्या में लोग सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं। जहाँ बीजेपी सरकार बनाती है वहाँ मुसलमान उसके काम को देखकर वोट करते हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के बारे में तो कोई नहीं कहता कि मुसलमान उन्हें वोट नहीं करता । राजस्थान में मुसलमानों ने कांग्रेस की नरम सांप्रदायिकता को सबक़ सीखाने के लिए बीजेपी को वोट किया। वहां बीजेपी ने चार उम्मीदवारों को टिकट दिया था और दो जीते।

इस पूरे क्रम में बीजेपी और संघ परिवार की नीतियों के संदर्भ में उसे नहीं देखा जाता है। किसी नेता या विचारधारा से उसका एतराज़ क्यों नहीं हो सकता। क्या मुसलमान सिर्फ एक राज्य के दंगों की वजह से संदेह करता है। राजनीति का इतना भी सरलीकरण नहीं करना चाहिए। क्या मीडिया को मुसलमानों से ऐसे सवाल करने से पहले उसके एतराज़ के इन सवालों को नहीं उठाना चाहिए। टीवी की चर्चाओं में युवा मतदाता है पर उनमें युवा मुस्लिम मतदाता क्यों नहीं है। दलित युवा आदिवासी युवा क्यों नहीं है। इसलिए मीडिया को किसी समुदाय को रंग विशेष से रंगने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

बीजेपी ने यूपी के जिन चौवन उम्मीदवारों को टिकट दिये उनमें एक भी मुसलमान नहीं है। बिना भागीदारी मिले सिर्फ मुसलमानों से यह सवाल क्यों किया जाता है कि आप अमुक पार्टी को वोट क्यों नहीं करते। राजनीतिक गोलबंदी बिना भागीदारी के कैसे हो सकती है। देवरिया से कलराज मिश्र को टिकट मिले पर शाही समर्थकोँ को नाराज़ होने की छूट है तो एक भी टिकट न मिलने पर मुसलमानों को नाराज़ होने की छूट क्यों नहीं है।

मीडिया को मुसलमानों को चिन्हित नहीं करना चाहिए। उसके हाथ से यह काम जाने अनजाने में हो रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि चुनाव मुद्दों से भटक रहा है। ध्रुवीकरण के सवालों में उलझ रहा है जिससे हिन्दू को लाभ है न मुस्लिम को। अब मीडिया को बनारस बनाम आज़मगढ़ के रूप में ऐसे रूपक गढ़ने के और बहाने मिल गए हैं। पाठक दर्शक और मतदाता को इससे सचेत रहना चाहिए। मतदान के साथ साथ सामाजिक सद्भावना कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

 

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के ब्लॉग 'कस्बा' से साभार।

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