संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व को हो सकता है कि कुछ चैन मिल गया हो। क्योंकि, दो दिन से रुठे चले आ रहे लालकृष्ण आडवाणी मान गए हैं। तमाम मनुहार के बाद वे गांधीनगर से ही चुनाव लड़ने की ‘कृपा’ पार्टी पर करने को राजी हुए हैं। जबकि, इसी सीट को लेकर पार्टी के अंदर सियासी महाभारत शुरू हो गया था। इसी के चलते उन्होंने कह दिया था कि वे गांधीनगर के बजाए भोपाल की सीट से लड़ना पसंद करेंगे। उनके बयान के बाद ही भोपाल में उनके ‘स्वागत’ में पोस्टर और होर्डिंग्स रातों-रात लग गए थे। इस ड्रामे के चलते भाजपा नेतृत्व के अंदर काफी बवाल बढ़ा था। ‘डैमेज कंट्रोल’ के लिए बड़े नेताओं ने आडवाणी के घर की गणेश परिक्रमा बढ़ा दी थी। यहां तक कि ‘पीएम इन वेटिंग’ नरेंद्र मोदी को भी उनके दरबार में मत्था टेकने जाना पड़ा। इसके बाद भी बात बनती नहीं दिखी, तो संघ प्रमुख मोहन भागवत के सीधे दखल से आडवाणी पार्टी लाइन मानने को तैयार हुए।
इस प्रकरण के बाद भाजपा की राजनीति में एक अहम सवाल यह खड़ा हुआ है कि क्या वाकई में पार्टी के पितृ पुरुष आडवाणी की नाराजगी वाकई में दूर हो गई है? क्योंकि, भाजपा के लोग अच्छी तरह समझ रहे हैं कि आडवाणी खेमा पार्टी में मोदी के बढ़े कद को हजम नहीं कर पा रहा। इन नेताओं को इस बात की कसक है कि पार्टी के सभी महत्वपूर्ण फैसले मोदी के जरिए ही हो रहे हैं। इस चक्कर में आडवाणी की हैसियत एकदम हाशिए पर पहुंचा दी गई है। यदि ऐसा नहीं होता, तो टिकटों की पहली सूची में ही आडवाणी की टिकट का भी ऐलान कर दिया जाता। लेकिन, ऐसा नहीं किया गया। इसके चलते गांधीनगर सीट पर मीडिया से लेकर पार्टी के राजनीतिक हल्कों में कयासाबाजी का दौर चलता रहा। इस तरह का प्रचार भी तेज किया गया कि मोदी खेमा नहीं चाहता कि आडवाणी गांधी नगर से चुनाव लड़ें। हालांकि, मोदी ने कभी भी इस संदर्भ में कोई टीका-टिप्पणी नहीं की है। लेकिन, उनकी चुप्पी से भी कई सवाल जरूर उठते रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि आडवाणी 1991 से ही गांधीनगर से चुनाव लड़ते आए हैं। 2002 से गुजरात की राजनीति में मोदी का दबदबा बढ़ गया है। यह दबदबा इतना बढ़ा कि यहां मोदी के सामने पार्टी का कद बौना पड़ गया। गुजरात दंगों के बाद मोदी संघ परिवार के लिए हिंदुत्व राजनीति के ‘नायक’ के रूप में जाने गए। अपनी इस छवि को मोदी ने गुजरात में जमकर भुनाया भी है। इसी लिए वे तीन चुनाव शानदार ढंग से जीतते गए। इससे पार्टी के अंदर उनका राजनीतिक कद बढ़ता ही गया। गुजरात की राजनीति में उनके सफल प्रयोग ने ही उन्हें ‘पीएम इन वेटिंग’ बनने के मुकाम तक पहुंचाया है। 2009 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। चुनाव के काफी पहले उनके नाम का ऐलान हो गया था। जोरदार चुनावी अभियान चला था। आडवाणी ने काले धन के मुद्दे को जमकर उछाला था। फिर भी, भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा। इसके चलते ही संघ नेतृत्व ने उन्हें भाजपा की राजनीति से हाशिए में डालने की रणनीति बनाई। हार के बाद उनसे नेता विपक्ष की कुर्सी भी ले ली गई थी।
इसी से साफ संदेश हो गया था कि अब संघ चाहता है कि आडवाणी की जगह किसी नए चमकदार चेहरे पर दांव लगाया जाए। जब मोदी ने एक बार फिर विधानसभा का चुनाव जितवा दिया, तो मोदी पर ही दांव लगाने की तैयारी शुरू हुई थी। पिछले वर्ष जून में गोवा में भाजपा कार्यकारिणी की चर्चित बैठक हुई थी। इसी बैठक में मोदी के बारे में महत्वपूर्ण फैसला होना था। इसका पूर्वानुमान आडवाणी को भी था, तो वे कार्यकारिणी में हिस्सा लेने के लिए गए ही नहीं। उनकी अनुपस्थिति को लेकर इस तरह की चर्चा हुई कि आडवाणी नहीं चाहते हैं कि मोदी को चुनावी चेहरा बनाया जाए। आडवाणी की नाराजगी के बावजूद मोदी को पार्टी ने चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान सौंपी थी। इसी से साफ हो गया था कि ‘पीएम इन वेटिंग’ वही बन जाएंगे। सितंबर में उन्हें औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना भी दिया गया। लेकिन, आडवाणी खेमे की नाराजगी किसी न किसी तरह झलकती ही रही।
‘पीएम इन वेटिंग’ बनने के बाद मोदी ने देशव्यापी प्रचार अभियान तेज किया था। पांच-छह बड़ी रैलियों के बाद ही संकेत मिलने लगे थे कि मोदी की लोकप्रियता अंदर-बाहर तेजी से बढ़ रही है। यहां तक कि रैलियों में आई भीड़ मोदी के अलावा किसी और को सुनना नहीं चाहती थी। एक-दो मौकों पर आडवाणी जैसे कद्दावार नेताओं को भी अपमान के घूंट पीने पड़े। क्योंकि, रैली में आई भीड़ मोदी के अलावा किसी और का भाषण नहीं सुनना चाहती थी। इन स्थितियों ने आडवाणी जैसे नेताओं की नाराजगी और बढ़ा दी। भाजपा सूत्रों के अनुसार, टिकट वितरण में जिस तरह से मोदी और उनके कुछ निकट सहयोगियों का बोलबाला रहा है, यह भी आडवाणी जैसे नेता पचा नहीं पा रहे। दरअसल, आडवाणी और मोदी के बीच आपसी विश्वास में दरार काफी पहले से आ गई थी। इसकी झलक समय-समय पर देखने को मिलती रही है। गुजरात में सद्भावना यात्रा के दौरान भी मोदी और आडवाणी के रिश्तों की केमिस्ट्री बिगड़ती हुई देखी गई।
यह अलग बात है कि लंबे समय तक आडवाणी और मोदी के रिश्ते गुरु और शिष्य जैसे रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में आडवाणी की कृपा से ही मोदी आए थे। आडवाणी की तरफदारी से ही 1998 में मोदी को राष्ट्रीय महासचिव का महत्वपूर्ण पद मिल पाया था। 2001 में वे आडवाणी की पहल पर ही केशुभाई पटेल को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पाए थे। 2002 में गुजरात में भयानक दंगे हुए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुख्यमंत्री पद से मोदी की विदाई कराने की पूरी तैयारी कर ली थी। लेकिन, आडवाणी ने ही मोदी की कुर्सी बचा ली थी। इसको लेकर आडवाणी और वाजपेयी के बीच भी राजनीतिक द्वंद्व चलने की खबरें आई थीं। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही चुनाव हुआ था। पार्टी ने ‘इंडिया शायनिंग’ के बहुचर्चित नारे के साथ चुनाव लड़ा था। लेकिन, कांग्रेस के सामने भाजपा की बुरी तरह हार हुई थी। इस हार के बाद वाजपेयी गंभीर रूप से बीमार पड़े, तो आज तक वे चैतन्य नहीं हो पाए।
2005 में आडवाणी ने पाकिस्तान की बहुचर्चित यात्रा की थी। वहां पर उनके एक विवाद से जिन्ना प्रकरण का बवाल बढ़ा था। आडवाणी ने पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना को राष्ट्रभक्त बता दिया था। इससे पूरा संघ परिवार नाराज हो गया था। भाजपा के उन नेताओं ने भी आडवाणी से मुंह मोड़ लिया था, जिन्हें उनका पटशिष्य माना जाता था। ऐसे लोगों में गिनती नरेंद्र मोदी की भी होती थी। लेकिन, संघ नेतृत्व की चाहत देखकर मोदी ने भी आडवाणी से दूरी बना ली थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार, इसी दौर से आडवाणी और मोदी के बीच विश्वास की जो डोर टूटी थी, वह कभी ढंग से जुड़ नहीं पाई। 2009 की हार के बाद आडवाणी को संघ के इशारे पर हाशिए पर लगाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, इसमें मोदी की भी खासी भूमिका मानी जाती है। इससे आडवाणी की कसक और बढ़ी।
27 फरवरी को भाजपा की पहली चुनावी टिकटों की सूची आई थी। पार्टी में पितामह माने जाने वाले आडवाणी को शायद यह उम्मीद थी कि पहली सूची में ही गांधीनगर से उनके टिकट का ऐलान हो जाएगा, लेकिन नहीं हुआ। इसके बाद कई और सूचियां आईं, फिर भी गांधीनगर पर सस्पेंस बरकरार रखा गया। इससे तकरार बढ़ती गई। आडवाणी खेमे ने यह प्रचार भी शुरू किया कि गांधीनगर सीट तो मोदी के तेवरों को देखते हुए ज्यादा सुरक्षित नहीं रही। इस सीट को लेकर मोदी की लंबे समय तक चुप्पी ने भी आडवाणी को नाराज किया। उल्लेखनीय है कि मोदी के मुकाबले आडवाणी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ज्यादा ‘प्रमोट’ करने की कोशिश करते रहे हैं। वे पिछले साल चौहान को पार्टी का सबसे लोकप्रिय नेता भी करार कर चुके हैं। इस बयान को लेकर काफी बवाल भी बढ़ा था। राजनाथ सिंह ने जब संसदीय बोर्ड का गठन किया था, तो इसमें मोदी को ही जगह मिली थी। जबकि, आडवाणी ने दबाव बनाया था कि यदि मोदी को सदस्य बनाया जा रहा है, तो फिर शिवराज सिंह चौहान को क्यों नहीं?
इस तरह के विवादों से भी मोदी और आडवाणी की दूरियां बढ़ती रही हैं। गांधीनगर के बजाए भोपाल से लड़ने की इच्छा जताना भी चौहान बनाम मोदी की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा था। पार्टी रणनीतिकारों को यही डर सता रहा था कि यदि आडवाणी भोपाल से चुनाव लड़ने के लिए डटे रहे, तो इसका राजनीतिक संदेश मोदी के लिए ठीक नहीं जाएगा। पिछले दिनों संसदीय बोर्ड की बैठक और चुनाव समिति की बैठक से आडवाणी उठकर चले आए थे। माना यही गया कि वे गांधीनगर सीट के मामले में नाराज हुए। उन्हें यह पसंद नहीं आया कि ये फैसला इतना लंबित क्यों किया गया? नाराजगी में ही उन्होंने गांधीनगर के बजाए भोपाल से लड़ने की इच्छा जताई। यह भी कहा कि जब मोदी और राजनाथ सिंह जैसे नेता अपनी मनचाही सीटों से लड़ सकते हैं, तो फिर वे भोपाल सीट से क्यों नहीं? सीट के इस बवाल को लेकर कांग्रेस सहित विपक्ष ने प्रचारित करना शुरू किया कि भाजपा के अंदर अंतरकलह बहुत बढ़ गई है। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी कहना शुरू किया कि गांधीनगर से आडवाणी इसलिए नहीं लड़ना चाहते, क्योंकि उन्हें मोदी की नीयत पर भरोसा नहीं है।
चुटकी ली गई कि जब आडवाणी जैसे नेता मोदी पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं, तो भला देश की जनता मोदी की बातों पर भरोसा क्यों कर ले? इस तरह के तानों का खतरा अधिक बढ़ सकता था। इसी को देखते हुए बुधवार रात से आडवाणी को मानने की कोशिशें तेज हुईं। यहां तक कि मोदी ने संघ प्रमुख मोहन भागवत से भी ‘संकटमोचक’ की भूमिका के लिए निवेदन किया। बुधवार की रात से लेकर गुरुवार की दोपहर तक राजनाथ सिंह, वैकेंया नायडु, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली व नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं ने आडवाणी से मुलाकातें करके मनुहार की। अंतत: संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आडवाणी को फोन किया, तो बात बनी। गुरुवार को देर शाम आडवाणी का बयान आया कि वे पार्टी के फैसले को देखते हुए गांधीनगर से ही चुनाव लड़ेंगे। भाजपा के राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि इस प्रकरण में फिलहाल सब कुछ ठीक-ठाक भले नजर आता हो, लेकिन मोदी बनाम आडवाणी का टंटा एकदम खत्म होने वाला नहीं है। क्योंकि, मोदी के पक्ष में चुनावी हवा का रुख होने के बावजूद आडवाणी का खेमा पूरी तरह से समर्पण की मुद्रा में आने को तैयार नहीं है। शायद, टीम आडवाणी को किसी और उचित अवसर का इंतजार हो।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।