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22 साल की मोहिनी के अंग्रेजी उपन्यास ”इन द डार्केस्ट आवर” का लखनऊ में हुआ विमोचन

: विमोचन के बहाने रमाकांत और अमृतलाल नागर की याद : लखनऊ में चल रहे पुस्तक मेले में एक अंगरेजी उपन्यास ''इन द डार्केस्ट आवर'' का विमोचन किया। मोहिनी सिंह को बहुत बधाई। इसलिए भी कि अभी उनकी उम्र 22 साल ही है। उपन्यास लिखने की यह कोई उम्र नहीं मानी जाती। मोहिनी सिंह को आज देख कर अपने बीते हुए दिन अचानक याद आ गए। इसलिए भी कि मेरा भी पहला उपन्यास 'दरकते दरवाज़े' जब छपा था, तब मैं भी सिर्फ़ 25 साल का ही था। प्रभात प्रकाशन ने छापा था इसे।

: विमोचन के बहाने रमाकांत और अमृतलाल नागर की याद : लखनऊ में चल रहे पुस्तक मेले में एक अंगरेजी उपन्यास ''इन द डार्केस्ट आवर'' का विमोचन किया। मोहिनी सिंह को बहुत बधाई। इसलिए भी कि अभी उनकी उम्र 22 साल ही है। उपन्यास लिखने की यह कोई उम्र नहीं मानी जाती। मोहिनी सिंह को आज देख कर अपने बीते हुए दिन अचानक याद आ गए। इसलिए भी कि मेरा भी पहला उपन्यास 'दरकते दरवाज़े' जब छपा था, तब मैं भी सिर्फ़ 25 साल का ही था। प्रभात प्रकाशन ने छापा था इसे।

और बताते हुए अच्छा लगता है कि तब इस उपन्यास के एवज़ में मुझे 2500 रुपए भी मिले थे। यह 1984 की बात है। मेरा उपन्यास पहले छपा, कहानी संग्रह बाद में। हालांकि पहली किताब प्रेमचंद पर 1982 में ही आ गई थी। तब मैं भी दिल्ली में रहता था। उस समय कथाकार रमाकांत जी जो तब दिल्ली में सोवियत एंबेसी में काम करते थे, मुझे बहुत मानते थे, मेरी जब-तब मदद करते रहते थे, टोकते हुए कहा था कि यह उम्र उपन्यास लिखने की अभी नहीं है। मैंने तब मारे उत्साह के उन्हें बताया कि एक और उपन्यास ''जाने-अनजाने पुल'' भी बस आने ही वाला है। लिख रहा हूं। तो उन्होंने कहा कि इतनी जल्दबाज़ी ठीक नहीं। तो मैंने उनकी इस बात पर गौर करने के बजाय बड़ी ठसक से कहा कि शरत बाबू ने देवदास 18 साल की, सोलह साल की उम्र में लिख दी थी।

रमाकांत जी तब चुप हो गए थे, मेरे बचपने को देख कर। पर अब जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि रमाकांत जी तब सचमुच सच ही कह रहे थे। इस लिए भी कि उपन्यास या कहानी लिखने के लिए जो पकाव होना चाहिए, जो रचाव और बनाव होना चाहिए, जो समझ और दृष्टि होनी चाहिए, जीवन के तमाम गरमी-बरसात झेलने के बाद ही आती है। कविता लिखने की बात और है। यह बात अब समझ में आती है। और रमाकांत जी की याद आ जाती है। क्यों कि उन दोनों उपन्यासों के कच्चेपन का कसैलापन, वह बचपना अब समझ में आता है। हालां कि तब दरकते दरवाज़े मैं ने अमृतलाल नागर को समर्पित किया था। दिल्ली से चल कर लखनऊ नागर जी को उपन्यास देने आया था। नागर जी तब बहुत खुश हुए थे। कुछ पन्ने अलट-पलट कर उन्हों ने अपने पास बुलाया, अपनी बगल में बिठाया और बिलकुल किसी युवा की तरह जोश में आ गए वह। और मेरे कंधे से कंधा लड़ाते हुए बोले कि, 'अब मेरे बराबर में आ गए हो।' मैं कुछ समझा नहीं तो बोले, 'अरे अब तुम भी उपन्यासकार हो गए हो।' मैं तब लजा गया था।

पर आज जब मैंने मोहिनी सिंह को देखा और किताब का विमोचन किया तो एक साथ रमाकांत जी और नागर जी याद आ गए। पर रमाकांत जी की तरह मोहिनी सिंह से मैं ने ऐसा-वैसा कुछ नहीं कहा। नागर जी को याद किया, मोहिनी सिंह को बधाई दी और अपनी पुरानी यादों में खो गया। इसलिए भी कि अब समय पूरी तरह बदल गया है। आज के बच्चे और युवा हम सब से ज़्यादा समझदार और ज़्यादा जानकार हैं। मोहिनी सिंह लखनऊ के आई. टी. कालेज से पढ़ी हुई हैं और दिल्ली के अभिलेखागार में प्रशिक्षु हैं। मोहिनी सिंह अपनी ज़िंदगी और अपने लेखन में खूब आगे बढें, यशस्वी बनें यही कामना है।

बाएं से अमिता दुबे, लेखिका मोहिनी सिंह,  नरेश सक्सेना और दयानंद पांडेय


वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार दयानंद पांडेय के ब्लाग सरोकारनामा से साभार.

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