हिन्दी सिनेमा में नलिनी जयवंत एक स्मरणीय नायिका रहीं हैं। गुजरे जमाने की बहुत सी बेहतरीन फिल्मों का स्मरण दरअसल नलिनी जयवंत का स्मरण भी है। राज खोसला की ‘कालापानी’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। आखिरी बार वो नास्तिक में अमिताभ बच्चन की मां के रूप में नजर आई थी। एक सीमा में अदाकारी विरासत में मिली थी। मशहुर अदाकारा शोभना सामर्थ की रिश्ते में चचाज़ात बहन थी। चिमन भाई देसाई व महबूब खान सरीखे फिल्मकारों से मिले ब्रेक से नलिनी का कैरियर शुरु हुआ। दिलीप कुमार के साथ ‘अनोखा प्यार’ से पहली बड़ी ख्याति मिली। इस त्रिकोणीय कहानी में दिलीप कुमार- नरगिस के साथ काम किया था। कहानी में नलिनी के किरदार की खूब तारीफ हुई। आपको मालूम होगा कि नलिनी एक समर्थवान पार्श्व गायिका भी थी। शुरूआती दिनों में अभिनय के साथ गाने भी गाया करती थीं। उनकी इस प्रतिभा को जानने-समझने के लिए नलिनी की शुरुआती फिल्मों की ओर लौटना होगा। जहां उनके तीस से अधिक गाने संग्रहित हैं।
नलिनी जयवंत (18 फरवरी 1926 – 20 दिसंबर 2010)
दिलीप कुमार ने अपने साथ काम करने वाली अभिनेत्रियों में नलिनी को ऊंची प्रतिभा का मालिक माना था। दिलीप साहेब के मुताबिक नलिनी में सीन व किरदार की बडी समझ थी। कला में दक्ष नलिनी की लोकप्रियता का आलम भी कुछ कम नहीं था। एक पत्रिका द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में उन्हें हिन्दी सिनेमा की सबसे सुंदर नायिका माना गया था। मधुबाला के जमाने में नलिनी को लोगों ने ज्यादा खूबसुरत माना। उस दौर के तमाम नामी अभिनेताओं के साथ काम करने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ था। राजकपूर को छोड अशोक कुमार, देवआनंद व सुनील दत्त सरीखे कलाकारों के साथ काम किया। दिलीप साहेब के साथ ‘शिकस्त’ एवं देवआनंद के साथ ‘कालापानी’ को आज भी याद किया जा सकता है। नवोदित सुनील दत्त की ‘रेलवे प्लेटफार्म भी उसी श्रेणी में आती है। फिर भी बाम्बे सिनेमा की यादगार नायिकाओं में नलिनी ना जाने क्युं अक्सर नजरअंदाज रहीं।
सन पचास का वर्ष नलिनी के लिए यादगार रहा। अब उनका शुमार हिन्दी सिनेमा की शीर्ष नायिकाओं में हो रहा था। अशोक कुमार के साथ मिली फिल्मों का इसमें काफी योगदान रहा। इस सिलसिले में समाधि व संग़्राम का जिक्र किया जा सकता है। नेताजी को समर्पित समाधि देशभक्ति की भावना पर आधारित थी। वहीं संग्राम समाज में अपराध से प्रेरित थी। इन फिल्मों में अशोक कुमार-नलिनी को आगे भी फिल्में करने का हौसला दिया। इस समय वो अपने करियर के एक बेहतरीन दौर से गुजर रही थी। वो दौर जिसमें ख्वाजा अहमद अब्बास, रमेश सहगल जिया सरहदी, महेश कौल, एआर कारदार तथा राज खोसला सरीखे फिल्मकारों के साथ काम मिल रहा था। राज खोसला की कालापानी नलिनी की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से है। कहानी में उनका किरदार ‘किशोरी’ लंबे समय तक याद किया गया। यह कुछ युं दमदार बन पड़ा कि लीड नायिका मधुबाला से अधिक लोगों ने नलिनी को नोटिस लिया। उनपर फिलमाया गया ‘नजर लागी राजा तोहरे बंगले पे’ आज भी दिलों में बसा हुआ होगा। नलिनी जयवंत की गुमनाम मौत सिनेमा की निष्ठुर दुनिया का बयान कर गयी थी। इस खबर को पत्र-पत्रिकाओं में कोई खास कवरेज नहीं मिल सका था। फिल्म व टीवी के सीनियर कलाकारों के हितों की रक्षा करने वाले संगठनों को इस मामले में अधिक संवेदनशील होने की जरूरत है। सीनियर कलाकारों को हालात के हवाले करने वाले लोगों को सोंचना होगा कि उन्हें भी इस दौर से गुजरना पड़ सकता है।
नलिनी दरअसल भव्य अतीत की भूली-बिसरी कहानी से कहीं अधिक कद की कलाकार थीं। नलिनी के गुमनाम अंत पर दिलीप कुमार व देवआनंद ने गहरा दुख व्यक्त किया था। इनकी नज़र में भावात्मक व संवेदनशील किरदारों को न्याय देने में नलिनी के बराबर कम लोग ही थे। सेट पर मिलनसार व्यवहार रखने वाली नलिनी के हंसमुख चेहरे के पीछे एक गमगीन व्यक्तित्व था। जीवन से उन्हें काफी उदासी मिली, परिवार वाले फिल्मों के विरुद्ध थे। माता-पिता व भाई की तरफ से कोई खास समर्थन नहीं मिला। नकारात्मक माहौल ने उन्हें काफी परेशान कर रखा था। एकांत गुमनाम मौत बालीवुड की दुनिया में नयी बात नहीं थी। काम न मिलने के कारण गम -हताशा ने घेर तो लिया ही था, लेकिन पति प्रभु दयाल के निधन ने नलिनी को दुखद रूप से और भी कमजोर कर दिया। गुमनाम विदाई की इबारत में तकदीर का कोई कम कसूर नहीं रहा। उम्र में ढलान के साथ रोल मिलना हो गए। सिनेमा की कोलाहल भरी दुनिया में यह एक शांत अंत था। पति की मौत से मिले अकेलेपन को स्वीकार कर कोलाहल से दूर रहीं। अब फिल्मों से कटकर रहने का रास्ता ही बाक़ी था। आदमी की शक्ल में कोई भी देखरेख करने वाला पास में नहीं रहता था। पशुप्रेम को ही शेष जीवन का आधार मान लिया था। कहा जाता है कि नलिनी को अपने प्यारे जानवरों से खुद से भी ज्यादा प्यार था। इनकी इस कद्र फिक्र की अकेले में उनके भूला जाने के ख्याल में कहीं भी यात्रा पर नहीं जाती। उनके जुदा होने के ख्याल से काफी डरा करती थी। उम्र का अंतिम पड़ाव कुछ युं रहा कि अतीत की सुनहरी यादें तकलीफ देती थी। मुम्बई स्थित अपने घर में बेपरवाह मौत के हवाले जी रही थी। कोई रिश्तेदार अथवा कुशल-क्षेम जानने वाला न होने की वजह से अकेले थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जान-पहचान का होकर भी कोई पहचान का न बन सका। पुराने, पीछे छूट चुके कलाकारों को लेकर बालीवुड भी उदासीन रहा करता है। नलिनी जयवंत का होना, न होने बराबर हो गया था।
फिल्मों में काम करने को किसी जमाने में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता था। इस संदर्भ में नायिकाओं को खासी मुश्किलों का सामना था। फिर भी दुर्गा खोटे, लीला चिटनीस, शोभना सामर्थ, वनमाला एवं नलिनी जयवंत सरीखे अभिनेत्रियों ने विरोध बाद भी कला साधना को अपनाया। परिवार व समाज की ओर से मिले असहयोग का सेवा-संघर्ष से सामना किया। इस गंभीर साधना ने सिनेमा में उन्हें ऊंचे मुकाम का मालिक बनाया। नलिनी एक मध्यमवर्गीय मराठी परिवार से थी। फिल्मों में आने का कठिन रास्ता यहीं से गुजरना था। मंजिल यहीं कहीं विरोध में सांसे ले रही थी। हम देखते हैं कि उदयीमान सफर सिनेमा में उनका इंतजार देख रहा था। चिमन भाई देसाई की ‘राधिका’ से शुरू हुआ सफर दो दशक से भी अधिक समय तक जारी रहा। कहा जा सकता है कि चिमन भाई के बैनर ‘नेशनल स्टुडियो’ ने फिल्मों में दाखिल किया था। चिमन भाई की गिनती उस जमाने के नामी फिल्म निर्माता में होती थी। सागर मूवीटोन एवं अमर पिक्चर्स चिमन भाई ही चला रहे थे। हिन्दी सिनेमा में तब के अनेक बड़े नाम चिमन भाई के माध्यम से इधर आए थे। मेहबूब खान से लेकर सितारा देवी फिर संगीतकार अनिल विश्वास एवं गायक मुकेश चिमन भाई द्वारा ही फिल्मों में लाए गए। नलिनी जयवंत की पहली तीन फिल्में उनके स्टुडियोज द्वारा निर्मित हुई थी।
अभी सिनेमा में आए कुछेक वर्ष बीते होंगे, नलिनी विरेन्द्र देसाई से विवाह के सात सुत्रों में बंध गई। यह विरेन्द्र की दूसरी शादी थी। इस रिश्ते ने नलिनी को मुश्किल में डाल दिया था। उपेन्दनाथ अश्क ने अपनी पुस्तक ‘फिल्मी दुनिया की झलकियां’ में इस सिलसिले में लिखा है। विरेन्द्र के परिवार वाले दूसरी शादी से सहमत नहीं थे। परिवार के खिलाफ जाकर नलिनी को अपनाया था। बात न मानने पर घरवालों ने अलग कर दिया। कह सकते हैं कि विरेन्द्र बेदखल से हो गए थे। परिवार से मनमुटाव का असर विरेन्द्र-नलिनी की फिल्मों पर साफ महसूस किया गया। उस समय नलिनी नेशनल स्टुडियो एवं अमर पिक्चर्स के लिए फिल्में कर रही थी। संयोग से यह बैनर विरेन्द्र के पिता चिमन भाई देसाई की कंपनियां थी। काम छूट जाना स्वाभाविक था। उस स्थिति में नलिनी-विरेन्द्र के समक्ष फिल्मिस्तान से जुड़ने का विकल्प था। पिता का घर छोड़ मलाड में रहने को बाध्य थे। लेकिन उन वर्षों में यहां कुछ खास हो न सका। दरअसल नलिनी जी पति विरेन्द्र के साथ ही काम करने की आवश्यक शर्त बना कर चल रही थी। प्रोफेशन में यह एक अव्यवहारिक निर्णय था, जिसे पूरा नहीं होना था। हुआ भी ऐसा ही। फिल्मिस्तान के राजी न होने से पति-पत्नी को फिलवक्त बेकाम ही रहना पड़ा। निश्चिय ही सिर्फ विरेन्द्र के साथ काम करने का फैसला लेकर नलिनी ने बड़ी भूल की थी। बेकाम होने की कड़ी परीक्षा यह रिश्ता ज्यादा समय तक जी नहीं सका, दोनों को मजबूरन अलग होना पड़ा। हम देखते हैं कि रिश्ते से मुक्त होने बाद नलिनी को फिर से आफर मिलने लगे। स्टारडम यहीं कहीं आकार ले रहा था। वो समय जिस दरम्यान उन्हें दिलीप कुमार, भारत भूषण, किशोर कुमार तथा सज्जन सरीखे अभिनेताओं के साथ फिल्में मिल रही थी।
नलिनी के सफर में पचास का दशक सर्वाधिक गतिशील रहा। इस दशक में उनकी चालीस से अधिक फिल्में रिलीज हुई। इसके उलट साठ का दशक केवल पांच-सात फिल्मों के साथ उस तरह एक्टिव नहीं था। मुनीमजी, तेरे घर के सामने, गैम्बलर सरीखी फिल्मों में नजर आए अभिनेता प्रभु दयाल से दिल लग गया। फिल्मों में साथ काम करते हुए दोनों विवाह के सुत्र में बंध गए। यह उनकी फिल्मों के साथ को नयी पहचान दे गया। इसके बाद फिल्मों से लगभग किनारा कर लिया। साठ दशक के मध्य में रिलीज ‘बाम्बे रेसकोर्स’ नायिका के रूप आखिरी रिलीज रही। अशोक कुमार व अजित के साथ सबसे ज्यादा फिल्में करने वाली नलिनी जयवंत को दादा साहेब फालके अकादमी से मिले एक पुरस्कार से कुछ समय के लिए खबरों में जगह मिली थी। अकेलेपन की दुनिया में यह एक क्षणिक सामुदायिक एहसास रहा, क्योंकि फिर से उसी हालात में जिंदगी गुजारने का ही विकल्प था। नयी चीज अक्सर पुरानी को प्रयोग से बाहर कर देती है। नलिनी जयवंत सरीखे कलाकरों का दुख यही रहा। सीनियर सदस्यों के प्रति बालीवुड का असंवेदनशील होना तकलीफ देता है। कलाकार को किसी वस्तु के बराबर मानना सराहा नहीं जा सकता।
सैयद एस. तौहीद, संपर्कः [email protected]