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एनडीटीवी के मुंबई दफ्तर से 250 पत्रकारों की नौकरियां गईं, सब चुप रहे

: कारपोरेट मीडिया का सच-1 : मॉनसून के सीजन में हर साल फल-सब्जियों के दाम अचानक बढ़ जाते हैं। इस साल तो चौतरफा बारिश हो रही है। तकरीबन पूरा देश तर है। खुले बाजार में कोई भी सब्जी 60 रुपए किलोग्राम से नीचे नहीं है। दिल्ली में टमाटर कहीं-कहीं 120 रुपए किलोग्राम बिक रहा है। शाम को मुंबई में अकेली रहने वाली मेरी एक मित्र का फोन आया तो मैंने गाहे-बगाहे पूछ लिया, टमाटर का क्या भाव है तुम्हारे यहां। बोलीं, 90 से 100 रुपए किलोग्राम। उसने टोमैटो कैचअप के ‘पिचकू’ पैक से काम चलाना शुरू कर दिया है, लेकिन मीडिया इस तरह की खानापूर्ति नहीं करता। उसे तो खबरों से लोगों को जोड़े रखना है। उसे मुद्दे की पड़ताल नहीं करनी, लेकिन सवाल जरूर पूछना है। ऐसा करने से जिम्मेदारी भी निभाई जा सकती है और बीच के ‘विवाद रहित’ रास्ते पर भी चला जा सकता है।

: कारपोरेट मीडिया का सच-1 : मॉनसून के सीजन में हर साल फल-सब्जियों के दाम अचानक बढ़ जाते हैं। इस साल तो चौतरफा बारिश हो रही है। तकरीबन पूरा देश तर है। खुले बाजार में कोई भी सब्जी 60 रुपए किलोग्राम से नीचे नहीं है। दिल्ली में टमाटर कहीं-कहीं 120 रुपए किलोग्राम बिक रहा है। शाम को मुंबई में अकेली रहने वाली मेरी एक मित्र का फोन आया तो मैंने गाहे-बगाहे पूछ लिया, टमाटर का क्या भाव है तुम्हारे यहां। बोलीं, 90 से 100 रुपए किलोग्राम। उसने टोमैटो कैचअप के ‘पिचकू’ पैक से काम चलाना शुरू कर दिया है, लेकिन मीडिया इस तरह की खानापूर्ति नहीं करता। उसे तो खबरों से लोगों को जोड़े रखना है। उसे मुद्दे की पड़ताल नहीं करनी, लेकिन सवाल जरूर पूछना है। ऐसा करने से जिम्मेदारी भी निभाई जा सकती है और बीच के ‘विवाद रहित’ रास्ते पर भी चला जा सकता है।

मीडिया का ढांचा अक्‍टूबर 2008 में वॉल स्ट्रीट के ढहने के बाद से काफी बदल गया है। पिछले पांच साल में 5000 से ज्यादा पत्रकारों की नौकरियां गई हैं। अकेले एनडीटीवी के मुंबई दफ्तर से 250 पत्रकारों की नौकरियां गईं। इस छंटनी का सबसे बड़ा असर यह पड़ा कि खबरों में इन्वेस्टिगेशन के बजाय ‘टॉक’ यानी पैनल डिस्कशन आधारित कंटेंट ज्यादा होता है, क्योंकि यह मुफ्त है। एक पत्रकार को स्पेशल इन्वेस्टिगेशन स्टोरी करने के लिए भेजने में खर्च आता है, समय भी लगता है। फिर भले ही असली खबर शहर से ही क्यों न निकलकर आती हो। इसके बजाय स्टूडियो में ही चार मेहमानों को बुलाकर किसी मुद्दे पर चर्चा करवा लीजिए और उसे आप बड़ी खबर कह लें। इससे निकलकर वही आना है, जो शायद सब जानते हैं। लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष को इस मसले पर एक-दूसरे के आमने-सामने करने से मसले पर राजनीतिक ‘तड़का’ भी लगता है।

टमाटर के भाव पर एनडीटीवी संवाददाता का कहना था कि दिल्ली की आजादपुर सब्जी मंडी में यह 43.50 रुपए किलो बिक रहा है, लेकिन रिलायंस फ्रेश, मदर डेयरी और सफल जैसे स्टोर्स में इसके दाम 100 से 120 रुपए किलो हैं। दाम में 300 फीसदी के अंतर को समझना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं। बीच में आढ़तियों या बिचौलियों ने दाम बढ़ाए हैं। टमाटर उगाने वाले किसान को अभी भी 10-15 रुपए प्रति किलो का भाव मिलता है। थोक बाजार तक आने पर इसमें 400 प्रतिशत और रिटेल तक 300 फीसदी और बढ़ोतरी हो जाती है। इस तरह आम उपभोक्ताओं को कुल 700 प्रतिशत ज्यादा दाम चुकाने पड़ते हैं।

यह भी समझना आसान नहीं कि हमारा रिटेल बाजार असंगठित है। यह सरकारी नियमन के दायरे में नहीं आता। खुदरा बाजार को वॉलमार्ट जैसी बड़ी कंपनियों के हवाले करने के पीछे यही तर्क दिए जा रहे हैं कि इससे रिटेल बाजार की मनमानी पर लगाम लगेगी और क्वालिटी भी सुधरेगी। लेकिन यह सवाल कोई नहीं उठाता कि जब गर्मी के दिनों में (दो माह पहले ही) टमाटर के भाव 15-20 रुपए किलो और कभी तो इससे भी कम हो जाते हैं, थोक बाजार में इतना टमाटर आता है कि खपत कम होने से उसे फेंकना पड़ता है, तब किसी को बरसात के इन दो महीनों की याद क्यों नहीं आती? मीडिया तब सरकार से यह नहीं पूछता कि वह इन टमाटरों को कोल्ड स्टोरेज में सहेजकर क्यों नहीं रख रही कि दो माह बाद बाजार में दाम कम करने के लिए इन्हें बेचा जा सके? मीडिया यह भी नहीं पूछती कि आखिर देश में रिटेल (खासकर फल-सब्जियों की) सप्लाई चेन को दुरुस्त क्यों नहीं करती?

दुनिया के पांचवें सबसे बड़े रिटेल बाजार का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य सामग्री का है। भारत के जीडीपी में 14 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले कृषि क्षेत्र में दो करोड़ किसान फल-सब्जियां उगाते हैं। इसके बावजूद सरकार इस क्षेत्र को संगठित नहीं करती। भारत में श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कूरियन जरूर याद होंगे। उन्होंने किसानों की जैसी को-ऑपरेटिव संस्थाएं दूध इकट्ठा करने और उन्हें बाजार तक लाने के मकसद से बनाईं, वही काम वे फल-सब्जिठयों के लिए भी करना चाहते थे, लेकिन बिचौलियों की बहुत ही ताकतवार लॉबी तब तक सरकार पर हावी हो चुकी थी। इस लॉबी के राजनीतिक संबंध कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही तगड़े हैं। यह मौकापरस्त लॉबी है, जो अपने फायदे के लिए किसी के भी पक्ष में झुक जाती है। अफसोस कि मीडिया उस समय इस गणित को नहीं समझ पाया। फिर इस सदी के पहले दशक में जब मीडिया में कॉरपोरेट घरानों ने पैर पसारने शुरू किए, तब से बदलाव की उम्मीद लगातार धूमिल होती गई है।

–जारी–

जाने-माने पत्रकार पी. साईनाथ द्वारा विकास संवाद की तरफ से आयोजित मीडिया संवाद में दिए गए भाषण का अंश.

प्रस्तुति- सौमित्र राय


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