मैं कोई शोकगीत लिखने नहीं बैठा हूँ, कुछ सवाल हैं जिनके जवाब मेरे पास नहीं है|
नीडो तनियाम की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गयी है, सिर और चेहरे पर लगी चोट को डॉक्टर्स मौत का कारण बता रहे हैं| कोई सिर पर चोट लगने से भी मरता है क्या? मारने के लिए क्या हमारी नजरें ही काफी नहीं होती? लोहे के सरिये में लपेट कर आंते खींचने बस से दामिनी नहीं मरती, हर रोज जब आप किसी लड़की को ऊपर से नीचे तक नजरों से ही स्कैन कर डालते हैं, एक दामिनी तब भी मरती है, हर रोज जब आप किसी की जालीदार टोपी को शक की नजर से देखते हैं एक जियाउल हक़ तब भी मरता है। हर रोज जब आप किसी भी इंसान को चाहे वो नीडो हो, दामिनी हो, जियाउल हक़ हो, को दूसरे इंसान की तरह न देखकर एक शरीर, एक मुसलमान या अपने से अलग मानने के किसी भी हथकंडे को अपनाकर निहारते हैं तब भी एक इंसान मरता है|
कह लो कि ये अनेकता में एकता है, एक तो हम इतने हैं कि नीडो असम का था या अरुणांचल का ये जानने के लिए भी गूगल पर खोजना पड़ता है|
दोषी आप कतई नहीं हैं, आप ऑफिस से लौटे हैं फेसबुक खोलकर बैठे हैं, भ्रष्टाचार, अराजकता और महंगाई से खुद इतने त्रस्त हैं कि तिल-तिल करके जी रहे और तिल-तिल करके मर रहे लोगों की इतनी औकात कहाँ कि वो किसी को मारेंगे।
आप नीडो को कैसे मार सकते हैं, जानने से ज्यादा जरूरी है ये जानना कि नीडो कौन था? अरुणांचल प्रदेश के विधायक का बेटा। नेता का बेटा! वो भी कांग्रेसी नेता का! सोच बदल नहीं जाती? "अबे तू किसी कांग्रेसी की औलाद है क्या" जैसा कमेन्ट अगली बार लिखने से पहले एक बार याद कीजियेगा..! राजनीति आप पर कितनी हावी हो सकती है?
सुनंदा पुष्कर को आपने पहले ही मार दिया, सौ-पचास करोड़ की गर्लफ्रेण्ड कहकर। कोई मतलब नहीं रह जाता न, कि कोई औरत अपनी जिन्दगी में कितना कुछ हासिल कर लेती है। जब तक वो जिन्दा थी उसकी एक ही गलती थी उसने किसी कांग्रेसी नेता से शादी कर ली थी, और जीते जी उसने एक अच्छा काम कर दिया था, किसी के पक्ष में बोल दिया था| मरने के बाद उसकी तो छवि ही बदल गई, वो सारे कश्मीरी पंडितों की आवाज बन गई, पाकिस्तान के खिलाफ अकेली खड़ी, आईएसआई से अकेली लडती सुपरवूमैन जिसको उस मुल्क की एजेंसियों ने इस मुल्क की सरकार की मदद से ख़त्म कर दिया। कितनी जल्दी निष्कर्षों पर पहुँचते हैं हम। पहले लोगों को मुद्दा बनाइये, लोगों को मरने दीजिये, तथ्यों को बदलिए-कुचलिये-मारिये और अंत में मुद्दों को। इस सबके पहले आपकी आदमियत को मार डालिए।
उसको मारा किसने? सुना है मुसलमान थे? फेसबुक पर पता चला न? कन्फर्म कीजिये! जरूरत क्या है। बस शुरू हो जाइए सोने पर सुहागा,वो सत्रह साल वाला लड़का भी मुसलमान था न? दामिनी वाले केस में? कुछ बिहारी भी थे? ये सारे रेपिस्ट बिहारी और मुसलमान क्यों होते हैं? ये नीडो को मारने वाले मुसलमान क्यों थे? उस कौम को सुनाइये, रेपिस्ट-रेपिस्ट नहीं होते न अब, उनका धरम देखना पड़ता है…..हत्यारों का भी!
बिहार के हों तो नितीश कुमार को सुनाइये, उनकी जाली वाली टोपी पर एकाध जोक मार दीजिये, और क्या….
ये तो आपकी संवेदनशीलता है।
मुद्दे खोजिये, लाशें गिनिये, मरों को फिर से मारिये, चौरासी में जो मरे वो अलग थे, जो साबरमती में मरे वो अलग थे, गोधरा में अलग, असम में अलग और मुजफ्फरनगर में अलग। आप आग में घी डालिए, एकाध कटती गायों की फोटो ले आइये, मारिये अपलोड किसी भड़कते से कैप्शन के साथ, बांग्लादेश के किसी पत्रकार की पिटती फोटो ले आइये कहिये ये मुजफ्फरनगर की है। और कुछ करना है, थोडा राष्ट्रवाद का छौंक लगाइए तिरंगे की जलती फोटो डाउनलोड कीजिये, नेट पर हजारों मिल जाएंगी…..आप जैसों के लिए ही होती हैं, लोगों का राष्ट्रप्रेम फनफना के जागेगा। आधे घंटे में सौ शेयर मजा आया न, पचास वही लोग हैं जो अभी सत्ताईस जनवरी की सुबह सड़क पर झण्डे को झाड़ू खाते देख रहे थे। निकल लिए चुपचाप….मंडे था अखबार भी नही आया और झण्डे वाली डीपी पर लाइक्स भी गिनने थे।
वो माफ़ी क्यों नहीं मांगते 84 के लिए?
और वो 2002 के लिए?
माफ़ी मांगने से लोग लौट आते हैं क्या?
ऐसा है तो मैं अपने आधे पुरखों को कब्र से वापिस निकाल लाऊं माफ़ी मांग-मांग कर।
किसी को नहीं पड़ी है भाईसाहब, चौरासी वाले इनके राज में मरे थे, 2002 वाले उनके और मुजफ्फरनगर वाले किनके?
पार्टी देख-देख लाशें पहचानी जाती हैं, क्षेत्र देख-देखकर भी।
जो आपको लतिया के महाराष्ट्र से भगाएं वो भी फलाने ह्रदय सम्राट और जो यूपी-बिहार लौटने पर मगरमच्छ की खुराक बना दें वो ढिमाके ह्रदय सम्राट।
जो आपको जितना बांटे, काटे आप उसे उतना सिर चढ़ाइए, एकता की बात कीजिये, सरनेम देखकर तो आप फोटो लाइक करते हैं।
पिनपिनाते रहना अब राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। और जब आपको लगता है अब आप पिन्नाने से बोर हो रहे हैं, आपके अन्दर का महामानव जाग जाता है, और आप क्रांति की बात शुरू कर देते हैं। कुछ बदलना है….कुछ कर जाना है….ये सिस्टम ठीक नहीं….कोई आएगा इसे बदलने, उसके समर्थन में कूद पड़िए। बहुसंख्यक आपको दबाते हैं उनके खिलाफ कूद पड़िए। मनुवादी बुरे हैं, संघी बुरे हैं, गांधीवादी बुरे हैं, मोदीवादी बुरे हैं, पूर्वोत्तर वाले बुरे हैं, बिहारी बुरे हैं, मराठी बुरे हैं, आप महिला हैं तो सारे पुरुष बुरे हैं, आर्य बुरे हैं, अनार्य बुरे हैं, शक बुरे थे, हूण बुरे थे, सामंत बुरे थे, पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट बुरे थे चोल, चेर, पाण्ड्य बुरे थे।
सबको कोसिये, कोसना इस देश का फेवरेट टाइमपास है, कोसते-कोसते आप सारी सीमाएं तोड़ जाइए, जितनी नफरत हो सके भर के रखिये, हर कोई बुरा है|
आप ये क्यों कर रहे हैं? देश के लिए। उसी देश में जहाँ कोई मुसलमान है…कोई बिहारी है…..कोई कांग्रेसी। देश के नाम पर ही देश के टुकड़े कर डालिए, एक फेसबुक ग्रुप पर जो शांति से एक दिन नहीं बिता सकते वो देश की खुशहाली की बात करते हैं।
यकीन मानिए आप इतने बुरे भी नहीं हैं, पर इतने अच्छे भी नहीं हैं। छोटी-छोटी बातों को चबा-चबाकर इतना भी न फैला दीजिये, कि वो मानसिकता पर ही हावी हो जाए| छोटे स्तर पर आप जो करते हैं वो बड़े स्तर पर आप पर ही असर डालती है। आप बेवजह अलगाव की बात कीजिये कल वही लौट कर बड़े लेवल पर आपको मिलेगी….बूमरैंग देखे हैं न?
नीडो चेहरे पर और सिर पर चोट लगने से कभी नहीं मरता, वो आपकी संवेदनशीलता के मरने से मरता है| आप क्षेत्रवाद न फैलाएं तो क्या, आप रंगभेदी न हों तो क्या, आप जातिवादी न हों तो भी क्या, पर किसी भी मुद्दे पर आप अगले को अपने से अलग मान लीजिये, आपने विष-बेल बो दी समझिये।
ये राष्ट्रीय चरित्र की बात होती है, लोग सिर्फ हाथों से नहीं बातों से भी मारे जाते हैं|
लेखक आशीष मिश्रा इंजीनियरिंग से स्नातक और स्वतन्त्र लेखक हैं। वे रीवा(मध्य प्रदेश) में रहते है। संपर्क सूत्रः मो. +91-7415586141, ईमेल [email protected], facebook- https://www.facebook.com/RuritaniashisH