भरोसेमंद सूत्रों से काफी पहले ही पता चल गया था की इस बार भी मित्र, अनिल सौमित्र बाज़ नहीं आयेंगे मीडिया चौपाल के खुराफात से. इस बार भी पट गए हैं पटेरिया जी भी. यानी बड़ा तालाब का एक बार और दर्शन पक्का. इस बार भी हम नए मीडिया के तमाम खुदीराम, विज्ञान की बात के बहाने विज्ञान के अलावा शेष सारी चीजों की चर्चा करेंगे. लेकिन इस बार कमर कस कर बैठे थे शासकीय लोग भी. पूरी रणनीति बना डाली थी प्रमोद जी ने की इस बार ज्यादे दांये-बांये नहीं करना दिया जाएगा. चाहे जितनी कोशिश कर लो पर विज्ञान की बात इस बार होकर रहेगी. और वह हुई भी, होती भी रही. अब उन्हें यह समझाने का कोई फ़ायदा तो होना नहीं था की भाई साहब, जीवन भर में अपन ने, पानी को h20 कहा जाता है, के अलावा अगर और कुछ पढ़ लिया होता तो फिर हम भी वैज्ञानिक न हो जाते आपकी तरह. फिर क्यूँ आते यहां मीडिया का चौपाल लगाने? कहीं दक्षिण अफ्रिका में मोबाइल रेडियेशन का पता कर रहे होते फिर तो. खैर.
चूंकि अब ‘विज्ञान वीथिका’ और उनके गेस्ट हाउस से बाहर हूं तो विज्ञान की बातें फिर अगले बरस होगी. फिलहाल तो कुछ कुंठा निकाल लूं पहले. कितना फरस्टिया गया हूँ इस बार की क्या कहूं?बड़ा धोखेबाज़ निकला अखिलेश यादव तो. हुआ ये था की ‘चौपाल’होने के बारे में कन्फर्म होते ही इस बार मैंने मंच लूट ले जाने की समूची कोशिस कर डाला था. मन में यह हार्दिक इच्छा थी की किसी तरह इस बार चौपाल से पहले कुछ उकसाउ-भरकाउ काम कर एकाध दिन के लिए जेल हो आउंगा. कंवल भारती को हीरो बनाने वाली अखिलेश सरकार का भला मैंने क्या बिगाड़ा है जो मुझ पर मेहरबान नहीं होगी? ज़रूर वो वारंट भेजेगी, हम जेल में होंगे. आज़म खान का बयान आयेगा और अपन इस बार के चौपाल का ‘यशवंत सिंह’ बन जायेंगे. देखेगी ज़माना की हम भी आदमी आखिर कितने काम के थे. संयोग भी अच्छा हाथ लगा था कि मुजफ्फरपुर (बाद में वो नगर साबित हुआ) में दंगा फ़ैल गया था. अपन लगे घी डालने उस आग में. लेकिन हाय हुसैन, घास तक नहीं डाला किसी ने. मौके की नजाकत समझ एक से एक ‘भरकाउ’ पोस्ट फेसबुक पर डाला. और तो और खोज-खाज कर इस उम्मीद में माननीय सांसद ओवैसी जी का हैदराबाद में दिये गए सुन्दर संबोधन का वीडियो भी पोस्ट किया. वो वीडियो जिसमें वे शान्ति के पुजारियों का यह आह्वान कर रहे थे की पंद्रह मिनट में वो पुलिस बलों को हटवाने की कोशिश करेंगे, बस उन्हीं मिनटों में हमेशा के लिए ‘शान्ति स्थापित’करने की जिम्मेदारी उठाना होगा सूफी संतों को. बड़ी उम्मीद थी की इस वीडियो को तो कम से कम फर्जी करार देते हुए मेरे इस पोस्ट को ‘मुजफ्फरपुर’ दंगे का कारण समझा जाएगा. लेकिन हाय रे नामुराद सपायी, नए मीडिया के मेरे जैसे स्वयंभू सिपाही के मंसूबे ऐसे ही ध्वस्त कर दिए गए जैसे मुलायम सिंह का प्रधानमंत्री बन जाने के.
क्या-क्या न सोच रखा था मैंने कि क्या बताऊँ. सोच-सोच कर ही आह्लादित हो रहा था की चौपाल से पहले जमानत मिल जायेगी. भोपाल में सबसे बड़े स्टार अपन होंगे. चूंकि अपन भी दस साल से हैं धंधे में तो ऐसे कुछ मित्रनुमा दुश्मन तो होंगे ही अपने जो एक-एक आसमान सब अपने-अपने सर पर उठा लेंगे. चूंकि पत्रकारिता में अभी तक कुछ कर नहीं पाए थे सो अपने पेशे में बिना कुछ किये धरे स्टार बन जाने के एक डाक्टर को आदर्श मान अपन भी कूद पड़े थे समर में. माखनलाल के इस छात्र को याद आ रहे थे क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से डाक्टरी पढ़ कर निकले बुजुर्ग विनायक, जिन्होंने जीवन भर डाक्टरी के अलावा सब कुछ किया,फिर भी कुछ दिन ही जेल में रहने से शहादत का ऐसा दर्ज़ा पा गए जितना कभी नेताजी को भी नहीं मिला होगा. धन-धान्य से संपन्न दुनिया भर के एक से अवार्ड. भारत को दुनिया का सबसे खराब लोकतंत्र लोकतंत्र साबित कर इस नए आंग-सांग सू की को कुछ दिनों के जेल ने ही नेलसन मंडेला बना डाला था.
मीडिया चौपाल के शुरुआत के वक्त 'मध्य प्रदेश गान' के दौरान हाथ बांधे खड़े (दाएं से पांचवें) लेखक पंकज झा.
फिर अपन ये भी सोच रहे थे की इतना ज्यादा भी रिस्क नहीं है. अपन कोई 33 बार थोड़े जाने वाले हैं जेल किसी ‘क्रांतिकारी’ से मिलने? अपन ने थोड़े ‘क्रान्तिदूतों’ तक कोई पैसा-रसद-खत आदि पहुचाना है? अपने को तो बस कुछ पोस्ट करने थे. उस पर मित्रों से थोड़े ठीक-ठाक कमेन्ट कराने थे. अपने वीडियो को फर्जी साबित करा उसे दंगे का कारण घोषित करा कर जेल जाना था. सबसे बुजुर्ग माननीय ब्लौगर से एक बलॉग लिखा लेना था, इस तर्क के साथ की जब वे ‘परायों’ के गंदे कार्टून पर गिरफ्तारी होने पर ब्लॉग लिख उसे हीरो बना सकते हैं तो हम तो खैर अपने हैं, मेरे कम गंदे पोस्ट पर क्यूँ नहीं? उम्मीद थी कि फुर्सत में होने के कारण लिख भी देते वे. लेकिन पूर्व उप-प्रधानमंत्री से अपने पक्ष में लिखा लेने से भी ज्यादे चुनौती तो जेल पहुच जाने की थी जिसमें असफल होने के बाद ‘वे’ क्या घास डालते, आपको चौपाल के अपने मित्र तक नोटिस नहीं लेते.
उफ़, उफ़ क्या-क्या न सोचा था. यू नो, भाषण का प्रारूप तक तैयार कर लिया था. शुरुआत ही इन्हीं शब्दों से करता की आपका यह दोस्त जानता है की क्रांति के दो ही रंग होते हैं. एक लाल और दूसरा हरा. लेकिन हम मीरा की क्रान्ति परंपरा के लोग हैं जो यह घोषणा करते हैं ‘लाल न रंगाऊं मैं हरी न रंगाऊं, अपने ही रंग में रंग ले चुनरिया.’ चूंकि चौपाल में मामले को विज्ञान से जोड़ना था तो पटेरिया जी से पहले संपर्क कर यह भी पता कर लेता की किन-किन रंगों के कंबिनेशन से ‘भगवा’ रंग बनता है. (उन्हें भी यह संतोष होता की जीवन में पहली बार कोई कथित ही सही लेकिन पत्रकार आया है विज्ञान की जानकारी लेने उनके पास) और फिर ऐसे धाँसू रंगारंग भाषण का आयोजन करता की पूछिए मत. हर आदमी के जेहन में यह बैठा देता की नए मीडिया की आज़ादी अब ज्यादे दूर नहीं है. नए अभिव्यक्ति पर इतने बड़े-बड़े (कितने बड़े-बड़े यह पता नहीं) पहरे हमें मंज़ूर नहीं. इस मीडिया को आज़ाद करा कर ही दम लेंगे हम तो. लेकिन इन सबके लिए अभिव्यक्ति के जो खतरे उठाने ज़रूरी थे, अफ़सोस नामुरादों ने जेल नहीं भेज कर उस खतरे को उठाने ही नहीं दिया.
जेल नहीं जाने का दुष्परिणाम ऐसा की हमें इस चौपाल में ‘आपदा प्रबंधन और मीडिया’ सत्र के संचालन की जिम्मेदारी ही सौंप दी गयी थी. अब ‘आपदा’ पाने के जिस आदमी के खुद के मंसूबे केदारनाथ की तरह ध्वस्त हो गए हों वो इस पर क्या ख़ाक अपनी बात रखता. लेकिन मौके को जो भुना नहीं पाया वो क्या ख़ाक फेस्बुकिया हुआ?हमने भी इस अवसर पर अपनी प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड में किये गए राहत कार्य का श्रेय जबरन नए मीडिया के पाले में डाल विषय के साथ वैसा ही ‘न्याय’ किया जैसे विज्ञान विषय के साथ चौपाल में किया जाता रहा है. थोड़ा संतुलित भी कर ही दिया उसे एक कॉमरेड मित्र द्वारा उत्तराखंड आपदा के समय सोशल मीडिया के उपयोग की चर्चा कर. बहरहाल.
इस सुन्दर आयोजन पर गंभीरली भी लिखा ही जाएगा. फिलहाल तो अपना यह अनुभव नए मीडिया के पुराने मित्रों को यही सीख देता है की ‘चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहु देस.’ मेरी नाकामी से सबक लेते हुए ऐसे दो-चार नंगी-पुंगी आकृति बना कर अगर असीम त्रिवेदी हो जाना चाहते हों तो ऐसा होना अब कठिन है. क्यूंकि प्रतिस्पर्द्धा भारी. एक तो आप पर कोई गौर नहीं करेगा. और कहीं किसी शासन ने ज्यादा गौर कर लिया तो विनायक सेन बन जाने के खतरे भी उठाने पड़ सकते हैं. हां उनके जैसा आपका रैकेट भी दुनिया भर में पसरा हो तो बात अलग है. अगर ऐसा नहीं है और मार्क्स के जारज पुत्रादि अगर उपेक्षा कर बैठे आपकी तो तय मानिए, न माया मिलेगी और राम तो खैर क्या मिलेंगे. जेठमलानी को देने के लिए फीस भी नहीं होंगे आपके पास. ज्यादा से ज्यादा एक ‘जानेमन जेल’ लिख कर ही संतोष करना पड़ेगा.
तो मेरी नाकामी से क्यूँ न एक सबक सीख लिया जाय कि छोड़िये सस्ती बातें. कोई घास नहीं डालेगा आपको, जैसा मुझे किसी ने नहीं डाला. इससे अच्छा है कि अपने कंटेंट को दुरुस्त करें. अच्छी और सरोकारी बातें करें. अभी हम इतने ताकतवर नहीं हुए हैं कि नियमन की ज़रूरत हो हमें. अतः स्व नियमन आदि की बड़ी-बड़ी बातों के बरक्स बस हम आर्थिक-मानसिक-वैचारिक धरातल को मज़बूत करें, यही ठीक है. आइये अगली बार फिर मिलते हैं चौपाल में कुछ नयी उपलब्धियों के साथ. फिलहाल नमन भोपाल, जय चौपाल.
लेखक पंकज झा भाजपा की छत्तीसगढ़ इकाई की मैग्जीन 'दीपकमल' के संपादक हैं.