वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू एक बार फिर एक किताब लेकर आए हैं.. उनका दावा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर पहला उपन्यास है। लेकिन ये उपन्यास सिर्फ मीडिया जगत ही नहीं बल्कि राजनीतिक गलियारों और कॉर्पोरेट जगत से उसके अवैध गठजो़ड़ की भी कहानी कहता है। स्टेट्समैन, टाइम्स ऑफ इंडिया, बीआईटीवी, आजतक, स्टार न्यूज़ और आईबीएन जैसे मीडिया घरानों में रह चुके प्रभात शुंगलू पिछले कुछ वर्षों से पत्रकारिता में आ रही बुराइयों के प्रति खासे गंभीर हैं।
उन्होंने कुछ वर्षों पहले हिंदी में एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था- 'मुखौटे बिकते हैं'। वो किताब प्रभात के पूर्व प्रकाशित आलेखों का संग्रह थी। उन्होंने तभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को बांटने का फैसला किया था। बाद में राज्यसभा टीवी और इसके बाद न्यूज़ एक्सप्रेस ज्वाइन किया। इस बार उन्होंने अंग्रेजी में नॉवेल लिखी है और इसकी कहानी एक हिन्दी न्यूज़ चैनल के इर्द-गिर्द बना कर रखी है।
प्रभात बताते हैं, "ये सन् 2006-08 के बीच की काल्पनिक कहानी है जब खबरिया चैनलों में उटपटांग हरकतें चरम पर पहुंच गइ थीं। इस नॉवेल में पॉवर जगत और कॉरपोरेट के अलावे पॉलिटिक्स से मीडिया के गठजोड़ पर कटाक्ष किया गया है। किताब को ओम बुक डिपो ने छापा है और अब ये छप कर बाज़ार में पहुंच चुंकी है। इसका विमोचन दशहरे के बाद होगा। 310 पन्नों के इस किताब की कीमत 195 रुपये है और ये ओम बुक शॉप के अलावे फिल्पकार्ट पर भी उपलब्ध है।"
प्रभात शुंगूल ने फेसबुक इस किताब का परिचय देते हुए लिखा है, "मेरा जूता फे़क लेदर, दिल छीछा लेदर… कुछ ऐसे ही फेक इंसान आपको मेरे उपन्यास NEWSROOM LIVE में भी टकराएंगे। जिन्होने धंधे की छीछालेदर कर दी।"
प्रभात की पूर्व सहकर्मी संगीता तिवारी ने किताब पर सबसे पहली प्रतिक्रिया के तौर पर लिखा है- "न्यूजरूम लाईव.. सेंसिबल औऱ सेंसेटिव उपन्यास…थोड़ी देर पहले ही पढ़ कर खत्म की… खबरों की दुनिया पर बेहद खूबसूरती से लिखा गया उपन्यास… एक बार शुरू की पढ़ना तो खत्म करने के बाद ही रखी.. उपन्यास की कहानी संवेदनशील है… आपको बांध कर रखती है.. ना खुद कही भटकती है और ना ही आपको मौका देती है भटकने का.. कहानी में कई मोड़ औऱ ट्विस्ट हैं… शुरू में कई ऐसे मौके हैं जब आप अपनी हंसी पर काबू नही रख पाते… ठहाका लगाते हैं…भरपूर व्यंग है… जो आपको हंसाता तो है लेकिन ठहरकर सोचने पर भी मजबूर करता है… व्यंग्य में गंभीरता है…कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है कई मोड़ पर आपको चौंकाती है… स्तब्ध करती है… झकझोरती है… बेचैन करती है… तो कई मोड़ औऱ पात्र भरोसा और उम्मीद भी देते हैं… पूरी समीक्षा नही करूंगी अभी… क्यूंकि मैं नही चाहती कि मेरी समीक्षा के आधार पर आप अपनी राय बनाएं…. जरूर पढ़ें… उपन्यास की भाषा में प्रवाह है पांडित्य नही….औऱ जिन्हें किताब के हिन्दी में नही होने से निराशा है उन्हें ये जरूर कहूंगी कि किताब की भाषा कहानी पर हावी नही होती…"