चौथे खंभे के जिन दिग्गजों को हम जैसे लोग लोकतंत्र के पहरुये, रक्षक-उद्धारक समझ रहे थे, वे बेहद बौने साबित हुए। राज ठाकरे ने टीवी चैनलों पर नामी पत्रकारों की ऐसी-तैसी कर दी। इन तथाकथित बड़े पत्रकारों के लिए भीगी बिल्ली बन जाना, मुआवरा भी छोटा साबित हुआ। पहली बार पत्रकारों को इतना दयनीय रूप में देखा। ये स्थिति न केवल शर्मनाक, वरन भविष्य के लिहाज से चिंताजनक भी है। आपातकाल के बारे में सुना है कि तब इंदिरा गांधी ने मीडिया को थोड़ा झुकने के लिए कहा था और उसकी परिणति रेंगने के रूप में सामने आई थी। लेकिन अब भारतीय मीडिया, खासतौर टीवी मीडिया रेंगने से भी आगे की दुर्गति को प्राप्त हो गया है।
20 अप्रैल को रात रात दस बजे राज ठाकरे एक साथ एबीपी, इंडिया टीवी और आईबीएन7 चैनलों पर नमूदार हुआ। एबीपी ने अपने चैनल के सभी बड़े पत्रकारों को घोषणापत्र कार्यक्रम में जुटाया हुआ था। जबकि, आईबीएन7 पर एटिडर-इन-चीफ(वैसे उनकी स्थिति एडिटर-इन-चीप जैसी थी) राज ठाकरे को ह\ट-सीट पर बैठाए हुए थे। इंडिया टीवी पर रजत शर्मा राज ठाकरे को आपकी अदालत में लेकर बैठे हुए थे। तीनों ही कार्यक्रमों में राज ठाकरे तमाम पत्रकारों के लिए जरासंध बने हुए थे। इस सारे मामले को दो स्तरों पर देखे जाने की जरूरत है। पहला है-राज ठाकरे के सामने इन नामी पत्रकारों की स्थिति और दूसरा राज ठाकरे का दंभ, सोचने का नजरिया और भविष्य के खतरे।
पहला बिंदू, एबीपी न्यूज पर राज ठाकरे के सामने एंकर किशोर मोटवाणी जरूरत से ज्यादा विनम्र बने हुए थे। इसकी वजह थी, श्रोताओं मे मौजूद दिबांग को राज दो बार हड़का चुके थे। दिबांग सफाई देने की मुद्रा में थे और जैसे-तैसे खुद को, सिर पर पड़ी राज-रूपी मुसीबत से निकालने में जुटे थे। राज ने वानखेडे़ को भी हड़काने में कसर नहीं छोड़ी। इस कार्यक्रम में कई पत्रकारों को राज ने बीच में चुप करा दिया और उनके सवालों के जवाब भी सवालों में दिए। पत्रकारों को यह आदत नहीं होती कि कोई उनसे सवाल पूछे। ऐसे में, राज के सवालों के जवाब उनके पास थे भी नहीं। उनके पास खिसियाकर रह जाना ही अंतिम विकल्प था। यही विकल्प उन्होंने चुना थी, लेकिन संभवतः दर्शकों को ऐसी आदत नहीं है कि वह पत्रकारों को खिसिया हुआ देखे।
न केवल किशोर मोटवाणी, बल्कि इंडिया टीवी पर रजत शर्मा का पत्रकारीय-आत्मविश्वास भी लुटा-पिटा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था मानो वे इंटरव्यू की बजाय मिजाजपुर्सी में लगे हैं। कार्यक्रमों के आखिर में सारे सवाल चापलूसी पर सिमट गए। राज ठाकरे के जवाब ऐसे थे कि यदि इन पत्रकारों में थोड़ा भी स्वाभिमान जिंदा था तो उन्हें कार्यक्रम बीच में खत्म करके राज को विदा कर देना चाहिए था। लेकिन, न जाने कौन-सी मजबूरी या बाध्यता थी कि वे राज को दिखाने के लिए मजबूर हुए। राज ठाकरे न तो मोदी है और न राहुल गांधी हैं। वो केजरीवाल या प्रकाश करात भी नहीं है। फिर, अचानक कहां से इतनी न्यूज-वेल्यू आ गई राज में कि पूरा मीडिया अपनी औकात नपवाने पर आ गया।
ये चैनलों की अंधी दौड़ का परिणाम था कि एक चैनल ने राज ठाकरे को पकड़ा तो सारे चैनल उन्हें देवता मान बैठे। पर, इस पर उन्हें ठीक सबक मिला है। इन कार्यक्रमो का सबसे बुरा पहलू यह है कि मीडिया की इमेज को गहरा धक्का लगा है। उन लोगों को धक्का लगा है जो यह भरोसा करते रहे हैं कि मीडिया जनता के हित में किसी से भी सवाल पूछ सकता है और उस व्यक्ति को बाध्य कर सकता कि वह नियम-कायदों को माने, लोकतंत्र पर भरोसा करके और कानून का पालन करे। लेकिन, राज ठाकरे ने ठेंगा दिखा दिया। जो सवाल थोड़े भी चुभने वाले थे, उन पर राज ने पत्रकारों को ही नंगा करने की कोशिश की। उनके जवाब थे-
तो?
फिर?
मैं क्या करूं?
ऐसे थोड़े ही होता है।
मैं नहीं समझा सकता तुम्हें।
ये मेरी प्रॉब्लम नहीं है।
सबसे ज्यादा बुरा तो राजदीप सरदेसाई को देखकर लगा। रजत शर्मा से बातचीत में तो राज ठाकरे ने उन्हें आप कहकर संबोधित किया, लेकिन सरदेसाई के साथ तो सारी बातचीत तू-तड़ाक के अंदाज में ही हुई। ऐसा लग रहा था कि राज नहीं, बल्कि राजदीप हॉट सीट पर बैठे हों। आखिर तक आते-आते राजदीप की स्थिति बेहद पीड़ादायक हो गई। वे वाहियात सवालों पर उतर आए। सच बात यही थी कि वे न तो ऐसी स्थिति का सामना करने को तैयार थे और न ही ये समझ पा रहे थे कि इस कार्यक्रम को अंजाम तक कैसे पहुंचाएं। असल में, पत्रकार जब सवाल पूछते हैं तो उनके पास एक पूर्व निधारित उत्तर भी होता है। वे इसी उत्तर की उम्मीद भी करते हैं। लेकिन, राज ठाकने ने पत्रकारों के इस अनुमान को ध्वस्त कर दिया। वे किसी भी अनुमान से परे जाकर उत्तर थे रहे थे। इसका परिणाम यह था कि इंटरव्यूकर्ता बेहद बचकाने लग रहे थे।
राज पर केंद्रित कार्यक्रम को देखते हुए मैं यह सोच रहा था कि इस स्तर का दुर्व्यवहार तो कभी माया और मोदी ने भी नहीं किया होगा। आजम खान और अमित शाह भी राज की तुलना में बेहद संतुलित और विमन्र दिखते हैं। सारे कार्यक्रमों में ऐसा लग रहा था कि राज ढके-छिपे तौर पर यह तैयारी करके आए हैं कि टीवी चैनलों को उनकी हैसियत का अंदाज कराया जाए। उन्होंने न केवल सवालों के जवाब देने से मना कर दिया, वरन सवाल पूछने के ढंग, सवाल की प्रस्तुति और सवाल में छिपे अंतर्प्रश्न पर भी सवालिया निशान लगा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने बातचीत के लिए अपनी शर्तें भी बता दी। किसी रिपोर्टर, एंकर, एडिटर की हिम्मत नहीं हुई कि राज ठाकरे को चैलेंज कर सके, उसे चलता कर सके। राज के सामने सब निरीह गाय दिख रहे थे और राज उनका मनमाना दोहन कर रहे थे।
अब, इस प्रकरण का दूसरा पहलू देखिए। तथाकथित राष्ट्रीय स्तर पर के चैनलो पर राज ठाकरे यूपी, बिहार और झारखंड के लोगों पर सवाल उठाते रहे और स्वनामधन्य पत्रकार उनके सामने खिसियानी हंसी हंसते रहे। ये वास्तव में चिंताजनक पहलू है। राज के इन कार्यक्रमों को देखने के बाद देश के कुछ और ऐसे ही छुटभैये नेताओं की हिम्मत बढ़ेगी कि वे चैनलों पर बैठकर न केवल मीडिया को उसकी हैसियत दिखाएं, वरन क्षेत्रीय या धार्मिक आधार पर लोगों के खिलाफ जहर भी उगलें। संभव है इन कार्यक्रमों के बाद संबंधित चैनलों की टीआरपी बढ़ गई हो, लेकिन उन्होंने जो कुछ गंवाया है, उसकी कीमत बहुत ज्यादा है। वास्तव में, ये शर्मिंदा होने का वक्त है।
डॉ. सुशील उपाध्याय। #9997998050, ईमेलः gurujisushil@gmail.com