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‘रेवान्त’ का नया अंक (अप्रैल – जून 2013) प्रकाशित

साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में हर दौर में लखनऊ ने अपना योगदान किया है। आज भी यहां से कई पत्रिकाएं निकल रही हैं जिनमें तदभव, रेवान्त, निष्कर्ष, कथाक्रम, लमही, साहित्य मीमांसा आदि प्रमुख हैं। ‘रेवान्त’ इनमें अलग खासियत रखती है। संभवतः महिला रचनाकारों व संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक प्रयास से निकलने वाली साहित्य व संस्कृति की यह अकेली पत्रिका है।  इसका नया अंक – अप्रैल-जून 2013 का अंक विलंब से सही, लेकिन एक नये तेवर व नई सज-धज के साथ आया है। आवरण से लेकर सामान्य पृष्ठ तक कलात्मक है।  आवरण पर एक आदिवासी स्त्री का चित्र है। यह चित्र अहमदनगर (महाराष्ट्र) की चित्रकार अनुराधा ठाकुर द्वारा बनाई कलाकृति है।  इस युवा आदिवासी स्त्री की आंखों की भाषा, उसके सपने, भाव भंगिमा गहरे अर्थ लिए हैं। ‘रेवान्त’ के पृष्ठ प्रसिद्ध जनवादी चित्रकार अशोक भौमिक के चित्रों से सजा है।

साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में हर दौर में लखनऊ ने अपना योगदान किया है। आज भी यहां से कई पत्रिकाएं निकल रही हैं जिनमें तदभव, रेवान्त, निष्कर्ष, कथाक्रम, लमही, साहित्य मीमांसा आदि प्रमुख हैं। ‘रेवान्त’ इनमें अलग खासियत रखती है। संभवतः महिला रचनाकारों व संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक प्रयास से निकलने वाली साहित्य व संस्कृति की यह अकेली पत्रिका है।  इसका नया अंक – अप्रैल-जून 2013 का अंक विलंब से सही, लेकिन एक नये तेवर व नई सज-धज के साथ आया है। आवरण से लेकर सामान्य पृष्ठ तक कलात्मक है।  आवरण पर एक आदिवासी स्त्री का चित्र है। यह चित्र अहमदनगर (महाराष्ट्र) की चित्रकार अनुराधा ठाकुर द्वारा बनाई कलाकृति है।  इस युवा आदिवासी स्त्री की आंखों की भाषा, उसके सपने, भाव भंगिमा गहरे अर्थ लिए हैं। ‘रेवान्त’ के पृष्ठ प्रसिद्ध जनवादी चित्रकार अशोक भौमिक के चित्रों से सजा है।

‘रेवान्त’ का संपादकीय ‘घुट घुट कर नहीं, लड़ लड़ कर जीना है’ के द्वारा जिस वैकल्पिक विमर्श को सामने लाता है, पत्रिका के लेख, टिप्पणियां, चर्चा तथा रचनाएं इसी के अनुरूप हैं। पत्रिका मात्र स़्ित्रयों की बात नहीं करती, वह दलितों, कमजोर वर्गों तथा हाशिए पर ढ़केल दिए गये समाज के दर्द, संघर्ष व उनकी मुक्ति की बात करती है। संपादकीय में गोरख पाण्डेय की कविता को उद्धृत करते हुए कहा गया है ‘अंधेरे कमरों और बंद दरवाजों से बाहर/सड़क पर जुलूस में/और युद्ध में तुम्हारे होने के दिन आ गये हैं’।

‘धरोहर’ के अन्तर्गत प्रेमचंद का महत्वपूर्ण लेख ‘राष्ट्रवाद बनाम ब्राहमणवाद’ प्रकाशित है, वहीं आलोचक वीरेन्द्र यादव का ‘दलित, जनतंत्र व मीडिया’ पर दिया व्याख्यान है जो उन्होंने युवा पत्रकार संजय कुमार की पुस्तक ‘मीडिया में दलित ढ़ूंढ़ते रह जाओगे’ के लोकार्पण के वक्त दिया था।

‘विमर्श’ के अन्तर्गत दो लेख हैं। राजीव रंजन गिरि का ‘स्त्री मुक्ति का यथार्थ व यूटोपिया’ तथा स्वप्निल श्रीवास्तव का ‘स्त्री होने का दण्ड’। ये दोनों लेख वैचारिक व बहस तलब हैं। ‘कहां पहुंची हैं महिलाएं, कैसे बने बराबरी का समाज ?’ पर विशेष चर्चा है। इस चर्चा का आरंभ ‘रेवान्त’ के पिछले अंक में हुआ था। नये अंक में उस चर्चा को आगे बढ़ा रही हैं: इंदु सिन्हा, शकुन्तला सिंह व शारदा लाल। ‘समकालीन हिन्दी कविता: व्यंग्य व शिल्प’ पर डॉ ऊषा राय की टिप्पणी है।

‘रेवान्त’ के इस अंक से कविता का एक नया स्तंभ ‘काल से होड़’ शुरू किया गया है। इसमें समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि राजेन्द्र कुमार व भगवान स्वरूप कटियार की कविताएं हैं। कविता खण्ड में ज्योत्सना पाण्डेय, अवन्तिका राय व राघवेन्द्र की कविताएं हैं। कहानी खण्ड में दो लंबी कहानियां हैं, हरपाल सिंह ‘अरुष’ की सहजीवन पर तथा हुस्न तब्बसुम निंहा की दैहिक प्रेम व आत्मिक प्रेम पर।

‘रेवान्त’ का यह अंक काफी पठनीय व वैचारिक रूप से प्रेरक बन पड़ा है जिसका निसंदेह स्वागत होगा। ‘रेवान्त’ ने इस अंक में एक महत्वपूर्ण धोषणा की है कि पत्रिका का अगले साल का पहला अंक – जनवरी-मार्च 2014 का अंक हिन्दी के विशिष्ट कवि नरेश सक्सेना पर केन्द्रित होगा। कवयित्री सुशीला पुरी इस अंक की अतिथि संपादक हैं।

‘रेवान्त’ की एक प्रति की कीमत रूपये 25.00 तथा वार्षिक रूपये 250.00 है। ताजा अंक मंगाने के लिए नीचे दिये पते पर संपर्क किया जा सकता हैः

संपादक: डॉ अनीता श्रीवास्तव
सहसंपादक: विमला किशोर व कुसुम वर्मा
पता: फ्लैट न0 88 सी ब्लाक, लेखराज नगीना, चर्च रोड, इंदिरा नगर, लखनऊ – 226016
मो – 9839356438, 9621691915, 7499081369

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