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तब अफवाह उड़ी थी कि सहारा ने अखबार हेलीकाप्टर से पहुंचाया है

राष्ट्रीय सहारा के 22 साल पूरे हो गए। मन अतीत की यात्रा कर रहा है। उस वक्त गोरखपुर सहारा का बड़ा केंद्र हुआ करता था, सुब्रत रॉय के गृह जनपद होने के नाते। सो जब अखबार शुरू हुआ तो गोरखपुर ब्यूरो भी शुरू हुआ। बड़ी ऊर्जावान टीम थी। हर्षवर्धन शाही, दीप्त भानु डे, रत्नेश श्रीवास्तव। सच कहूं तो उस दौर में गोरखपुर जैसे छोटे शहर में अखबारी दुनिया करवट बदल रही थी। बुजुर्ग पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी अवकाश प्राप्ति की दिशा में अग्रसर थी और सुजीत पाण्डेय जैसे युवा ने जागरण का सम्पादकीय दायित्व सम्हाला हुआ था। मगर इस बदलाव का वाहक बना था राष्ट्रीय सहारा।

राष्ट्रीय सहारा के 22 साल पूरे हो गए। मन अतीत की यात्रा कर रहा है। उस वक्त गोरखपुर सहारा का बड़ा केंद्र हुआ करता था, सुब्रत रॉय के गृह जनपद होने के नाते। सो जब अखबार शुरू हुआ तो गोरखपुर ब्यूरो भी शुरू हुआ। बड़ी ऊर्जावान टीम थी। हर्षवर्धन शाही, दीप्त भानु डे, रत्नेश श्रीवास्तव। सच कहूं तो उस दौर में गोरखपुर जैसे छोटे शहर में अखबारी दुनिया करवट बदल रही थी। बुजुर्ग पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी अवकाश प्राप्ति की दिशा में अग्रसर थी और सुजीत पाण्डेय जैसे युवा ने जागरण का सम्पादकीय दायित्व सम्हाला हुआ था। मगर इस बदलाव का वाहक बना था राष्ट्रीय सहारा।

बैंक रोड में तिमंजिले पर स्थित था अखबार का आफिस, बड़े भाई कुमार हर्ष खबरें लिखने लगे थे। हर्षवर्धन शाही का कालम "बीता हफ्ता" गजब का हिट आइटम हो चला था। तब अखबार लखनऊ से छप कर गोरखपुर जाता था। रात 8 से 9 बजे दफ्तर में अफरातफरी का माहौल होता था। कंप्यूटर तब बड़ी नाज़ुक बहू जैसी चीज हुआ करती थी। हाल के एक कोने में केबिन बना था जहां सबका जाना मना था। हम भी यूनिवर्सिटी के आखिरी दौर में थे और खबरों की दुनिया बचपन से ही लुभाती थी, सो बड़े भाई के साथ यहाँ भी आना जाना शुरू हो गया। बाद के दिनों में  शाही जी के "बीता हफ्ता" का मुंशी भी हुआ। वे वेद व्यास की तरह सोंच के बोलते जाते थे और कभी भैया कुमार हर्ष और कभी मैं गणेश की तरह लिखते चले जाते। एक बार मामला फंस गया। सब कुछ मोनोटोनस होने लगा था। उन दिनों मैं कृषण चंदर की किताब पढ़ रहा था "एक गधे कि आत्मकथा" तो सुझाव दिया कि क्यूँ न कृष्ण चंदर के गधे को गोरखपुर की यात्रा करायी जाए और उसी बहाने शहर की धटनाओ पर टिपण्णी हो। मामला चल निकला, शाही जी ने गधे को खूब शहर घुमाया और फिर एक दिन निराशा के माहौल में गधे ने बरसते नौसढ़ पुल शहर छोड़ दिया।  

एक दूसरा किस्सा भी सुन लीजिये लगे हाथ। शहर में मेयर का चुनाव हो रहा था। उन दिनों मतगणना दो-दो दिन चलती थी और हमारी समस्या ये थी की अखबार 9 बजे  छोड़ना होता था ऐसे में जागरण से मार खाना तय था। तब कंप्यूटर जानने वाले कम थे और हम उनमें से एक थे। मेरे पास एक कम्पुटर भी था जिसमे डिजाइनिंग के साफ्टवेयर थे। तय ये हुआ कि टेब्लाइड साइज़ के चार पेज रात में हम बनाएंगे और उसे गोरखपुर के किसी प्रेस में छपवाया जायेगा सुबह अखबार में इन्सर्ट कर लिया जायेगा। मगर इस पूरी  गुप्त रखना था। मोबाईल तब होते नहीं थे सो दो रिपोर्टर कलेक्ट्रेट पर रनर के बतौर लगाये गए। हर घंटे कि खबर आने लगी और सुबह तीन बजे तक की प्रगति कवर कर ली गयी। जागरण ने दो बजे तक की खबरें ली थी। सुबह जब अखबार आया तो राष्ट्रीय सहारा छा गया। एक अफवाह उड़ी कि सहारा ने आज अखबार हेलीकाप्टर से पहुंचाया है और अधिकांश लोग आज तक यही मानते भी हैं। ये था उस ज़माने में सहारा का भौकाल।

 

लेखक उत्कर्ष सिन्हा लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक अवधनामा के संपादक हैं। संपर्कः [email protected]

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