Sanjay Sinha : मेरी आज की कहानी का पात्र मेरे ही दफ्तर में काम करने वाला एक लड़का है। मैं उसकी कहानी के बारे में सुना तो कई लोगों से हूं, लेकिन जब उसने खुद मेरी वाल पर अपनी कहानी लिख दी, तो मुझे लगा कि मैं इस कहानी को अब आपको सुना सकता हूं। खास तौर पर उस दौर में इस कहानी की अहमियत और बड़ी हो जाती है, जब रिश्ते तार-तार होने के कगार पर हैं।
एक लड़का है। कई साल पहले उसने प्रेम विवाह किया। यकीनन बहुत सारी मुश्किलों से जूझ कर। ज़िंदगी बिना सबकी दुआओं के भी हसीन चल रही थी। लेकिन पता नहीं किसकी नजर लग गई कि एक दिन लड़के की तबीयत खराब हो गई। बहुत खराब। कई डॉक्टरों को दिखाया गया, किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
कई टेस्ट हुए, और फिर पता चला कि लड़के की दोनों किडनी खराब हो गई है। उफ! इस उम्र में ये तकलीफ? सोचिए लड़के पर क्या बीती होगी? लड़की पर क्या बीती होगी? लेकिन अब सवाल था कि किडनी कहां से आए? किसकी किडनी मैच करेगी? कौन दान करेगा किडनी? सारे सपने यहीं आंखों के सामने चूर-चूर होते नजर आने लगे। ज़िंदगी शुरू होने से पहले डराने लगी।
लेकिन कहते हैं न मुहब्बत ज़िंदाबाद! तो हमारी कहानी के इस नायक की ज़िंदगी की असली नायिका बन कर सामने आई उसकी पत्नी। जिसने कभी मुहब्बत से उसका दामन थामा था, वो प्रेमिका। और उसने कहा कि हार नहीं मानूंगी। अगर आपने सावित्री और सत्यवान की कहानी दादी, नानी से नहीं सुनी तो आज कहीं से सुन लीजिए और फिर भी पता ना चले तो मेरी इसी कहानी को आप सावित्री और सत्यवान की कहानी मान लीजिएगा।
हां, तो मेरी कहानी की सावित्री ने कहा, "नहीं हार नही मानूंगी। लड़ूंगी, सबसे लड़ूंगी।"
और सिर पर हाथ रख कर विलाप करने की जगह उसने खुद मोर्चा संभाला। डॉक्टरों के पास गई। इलाज की पूरी प्रक्रिया को समझी। फिर अपने सारे टेस्ट कराए, और जब उसने सुना कि उसकी किडनी उसके पति से मैच करती है तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसने फटाफट डॉक्टरों से कहा कि उसकी एक किडनी उसके पति को दे दी जाए।
ज्यादा विस्तार में क्या जाऊं, हमारी सावित्री ने अपने हौसले और प्यार के बूते उस ऑपरेशन को मंजिल तक पहुंचाया। उसकी एक किडनी अब पति के शरीर का हिस्सा है, और बताने की जरुरत नहीं कि बड़े-बड़े गुर्दा वाले जब पीछे हट गए तो कैसे उस लड़की ने अपने गुर्दे को पति में समाहित करा दिया। पांच साल से ज्यादा हो गए हैं, और दोनो पति-पत्नी मुहब्बत भरी इस ज़िंदगी के सफर को अंजाम दिए चले जा रहे हैं।
मेरी इस कहानी की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है कि पिछले दिनों मेरे ही दफ्तर में एक लड़की ने मुझे बताया कि कैसे नौ भाई-बहनों वाले उसके परिवार में उसकी एक बहन की किडनी खराब होने के बाद कोई सामने नहीं आया कि अपना एक गुर्दा देकर उसकी जान बचा सके। बाकी तो छोड़िए किसी ने किडनी मैच कराने का टेस्ट तक नहीं कराया। और मां-बाप कहते हैं कि भाई-बहन एक दूसरे के काम आते हैं। आखिर में उस लड़की की जान तब बची, जब बूढ़ी मां ने अपना गुर्दा दान किया।
खैर मेरी कहानी के नायक और नायिका आज नौ भाई-बहनों का परिवार नहीं, बल्कि वो लड़की है जिसने सावित्री बन कर अपने सत्यवान की जान बचाई। आप चाहें तो उसे सलाम कह सकते हैं- उसका नाम है Satyendra Prasad Srivastava और पत्नी का नाम है Barnali Chanda। कहानी लिख कर पोस्ट कर चुका था, फिर मैंने सत्येंद्र से बात की और उसने जो बताया वो बहुत हैरान करने वाला सच है। उसने बताया कि इलाज के दौरान ही उन्हें मालूम हुआ कि पतियों के मामले में तो पत्नियां सामने आकर अपना गुर्दा खुशी खुशी दान कर रही थीं, लेकिन कई पत्नियों के गुर्दा खराब होने के बाद पति दाएं-बाएं करते नजर आ रहे थे। मैने जिन नौ भाई-बहनों के परिवार की चर्चा यहां की है, उनके मामले में भी शायद ऐसा ही कुछ था। कहानी आपको बेशक छोटी लग रही होगी, लेकिन मेरी ज़िंदगी की ये अब तक की सबसे बड़ी कहानी है।
टीवी टुडे ग्रुप में वरिष्ठ पद पर कार्यरत संजय सिन्हा के फेसबुक वॉल से.