इस चुनावी मौके पर उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार को एक बड़ा झटका लगा है। बहुचर्चित मुजफ्फरनगर के दंगों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश सरकार को घोर लापरवाह ठहराया है। साफ-साफ कह दिया है कि यदि सरकारी तंत्र ने समय से कार्रवाई की होती, तो दंगे की आग इतनी नहीं भड़कती। अदालत की यह टिप्पणी सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक मुश्किलें और बढ़ा सकती है। क्योंकि, जो आरोप विपक्षी दल लगा रहे थे एक तरह से उसी पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मुहर लगा दी है।
सरकार के लिए राहत की बात सिर्फ इतनी रही कि अदालत ने दंगों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) या सीबीआई से कराने की जरूरत नहीं समझी है। जबकि, अदालत में दायर की गई जनहित याचिका में मांग की गई थी कि दंगों की जांच अदालत अपनी निगरानी में सीबीआई या विशेष जांच दल से कराए। अदालत की टिप्पणी के बाद सरकारी प्रवक्ताओं ने कोर्ट की मूल भावना को दरकिनार करते हुए, शाबासी में अपनी पीठ ठोकने की कोशिश की है। सरकारी वकीलों ने भी कुतर्क देते हुए कह दिया कि सर्वोच्च अदालत को पुलिसिया जांच भरोसेमंद लगी है। सरकार ने दंगा पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा भी दे दिया है। इस पर भी अदालत ने कोई उंगली नहीं उठाई।
सरकारी वकील भले एक खास नजरिए से अदालत के फैसले को प्रस्तुत कर रहे हों, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि प्रदेश सरकार के कामकाज पर अदालत की टिप्पणी काफी गंभीर है। विपक्षी दलों ने भी अदालत के नजरिए को अपना चुनावी हथियार बनने की कोशिश शुरू कर दी है। राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख एवं केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह ने कहा है कि अदालत की इतनी कड़ी फटकार के बाद अखिलेश सरकार को कुर्सी में बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। क्योंकि, अदालत ने साफ-साफ कहा है कि सरकार मुजफ्फरनगर में लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाई है। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष सितंबर में हुए सांप्रदायिक दंगों में 67 लोग मारे गए थे। भाजपा सहित कई और दलों ने सपा पर निशाने तेज किए हैं। मुश्किल यह है कि हमारे राजनेता अदालती फैसलों में भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते। ये शुभ लक्षण तो नहीं कहे जा सकते।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।