डॉक्टरी का पेशा हमारे समाज में सबसे नोबल प्रोफेशन में से माना जाता है, शायद इसीलिए हमारा समाज डॉक्टर्स को भगवान का दर्जा भी देता रहा है। लेकिन पिछले दो दशको के अनुभवो ने ये सिद्ध कर दिया है कि दूसरो का इलाज करने वाले डॉक्टर साहब खुद ही बहुत बुरी तरह से बीमार पड़ चुके हैं। इधर कानपुर का मामला शांत ही हुआ था कि वाराणसी के सर सुन्दरलाल(SSL) हॉस्पिटल में जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल ने कई लोगो की जान ले ली। वाराणसी स्थित बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी(BHU) के इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज(IMS) द्वारा संचालित यह हॉस्पिटल पूर्वांचल का इकलौता सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल है जिस पर पांच करोड़ से भी ज्यादा आबादी का भार है। करीब दस दिन पहले जूनियर डाक्टरो के हॉस्टल(धन्वन्तरी छात्रावास) और एक अन्य संकाय के हॉस्टल(लालबहादुर शास्त्री छात्रावास) के बीच इंटरनेट के केबल को लेकर झगड़ा हो गया था, इस मामूली सी बात पर जूनियर डॉक्टर हड़ताल पर चले गए। इस पर विश्विद्यालय प्रशासन ने कड़ा रुख अख्तियार किया तो हड़तालियों ने अपना मुद्दा बदल दिया और IMS को एम्स(AIIMS) का दर्जा दिलाये जाने का शिगूफा छोड़ दिया।
BHU-IMS को AIIMS का दर्जा दिए जाने की मांग काफी समय से चली आ रही है और पूर्वांचल में वर्तमान चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति देखते हुए ये मांग बहुत ही जायज है लेकिन जिस तरह जूनियर डॉक्टर्स इस मुद्दे पर हड़ताल कर रहे है वो रवैया बेहद ही गम्भीर है। इस हड़ताल के चलते कई लोगो की जान चली गयी। IIT(BHU) के तृतीय वर्ष के छात्र हितेश की जान भी इसी हड़ताल ने ले ली। हितेश मूल रूप से राजस्थान के निवासी थे और IIT(BHU) में सिविल इंजीनियरिंग के छात्र थे। शनिवार को ट्रैक्टर की टक्कर से हितेश घायल हो गए थे और जब इनके साथी इन्हे SSL हॉस्पिटल(IMS-BHU) की इमर्जेंसी ले गए तो डॉक्टर्स ने हड़ताल की बात बताते हुए भर्ती करने से मना कर दिया। साथी छात्रो ने डॉक्टर्स के सामने खूब मिन्नतें की और बताया भी कि घायल छात्र BHU का ही छात्र है लेकिन ये धरती के भगवान नहीं पिघले। बाद में दूसरे अस्पताल ले जाते समय रस्ते में ही हितेश की मौत हो गयी। यहाँ पर ये बताना महत्वपूर्ण है कि BHU के छात्रों से प्रतिवर्ष 300 रुपये स्वास्थ्य बीमा के नाम पर लिए जाते है जिसमे यह प्रावधान है कि BHU के हॉस्पिटल में छात्रो का मुफ्त इलाज होगा, हॉस्पिटल की इमर्जेंसी में 8 बेड BHU छात्रो हेतु आरक्षित है। इस मामले में विधि संकाय, BHU के छात्रों ने लंका थाने में FIR दर्ज करायी है तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी परिवाद किया है।
सच तो यह है कि डाक्टरो के ऊपर कोई कायदे का रेगुलेटरी मैकेनिज्म नहीं है। सामान्य दिनों में भी डाक्टरो की सेवाए बदतर ही है। दवा और जांचो में खुलेआम कमीशनबाजी और परसेंटेज का खेल चल रहा है। किसी मरीज के भर्ती होने में पर जो टोटल खर्च आता है उसका साठ परसेंट से ज्यादा दवा और जाँच में जाता है, जिसे बहुत कम किया जा सकता है। लेकिन डाक्टर, फार्मास्यूटिकल कंपनी और पैथॉलॉजी के कोल्युजन के कारण सब मजबूर हैं। क्या ये नेता, पुलिस और माफिया वाले गठजोड़ से कम खतरनाक है?
मेडिकल कौंसिल की कहानी तो सब को मालूम ही है, क्रिमिनल लॉ में बर्डन ऑफ़ प्रूफ इतना ज्यादा है कि उससे डाक्टरो को कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। सिविल लॉ और टॉर्ट लॉ में बहुत कम लोग केस करते है, अधिकतर को इनकी जानकारी नहीं है और जिनको है वे कोर्ट कचहरी कि तारीखों से डरकर कुछ नहीं करते हैं। आप किसी भी डॉक्टर से उनके प्रोफेशन के गिरते हुए स्तर की बात करिये तो उनका एक सीधा सा जवाब होता है कि केवल हमारे ही प्रोफेशन की बात क्यों? स्तर तो सभी प्रोफेशन का गिर रहा है उन पर बात क्यों नहीं? बात तो सही है कि लगभग सभी प्रोफेशन के स्तर में गिरावट आयी है लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि दूसरे प्रोफेशंस की बदहाल स्थित के कारण आप लोगो को सरेआम लोगो की जाने लेने का लाइसेंस दे दिया जाये। सबकी जवाबदेही तय होनी चाहिए, आपकी भी डॉक्टर साहब! सुन रहे है न आप?
लेखक सुमित कुमार से संपर्क [email protected] पर किया जा सकता है।