खुदकुशी.… जो मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वो ये शब्द सुनते ही सिहर जाते हैं। जो किसी अवसाद से ग्रस्त है वो किसी को बताते तक नहीं और मन ही मन इस खतरनाक फैसले के लिए खुद को मजबूत कर लेते हैं। गौर कीजिएगा मैंने कहा मजबूत। जीने की इच्छा का त्यागना एक ऐसा रोग है जो दिमाग में एक बार घुस जाए तो धीरे-धीरे अपनी जड़े मजबूत करता है और फिर वो होता है जिसे हम-आप सुनकर भी दहल जाएं। इस विषय पर लिखने का संदर्भ है एक 27-28 साल के युवा का ऐसा ही एक खतरनाक और रुला देने वाला फैसला।
कपड़ों, अलग-अलग हेअर स्टाइल, दाढ़ी के अलग-अलग अंदाज रखने का ऐसा ही शौकीन लड़का था…. राहुल। परसों ही वो फांसी के फंदे पर झूल गया और उसके साथ काम करने वाला हर शख्स स्तब्ध रह गया। मैं भी उनमें से एक हूं। एक सीनियर के तौर पर राहुल मेरी बहुत इज्जत करता था और मैंने हमेशा उसे एक हंसमुख और दिलखुश मिजाज इंसान के तौर पर ही देखा था। सिर्फ मेरी ही नहीं मेरे साथ काम करने वाले हर साथी की यही प्रतिक्रिया थी की.. अरे ये कैसे हो सकता है.. कल ही तो मिला था.. मुझसे बड़े अच्छे से बात की थी। कोई नहीं जानता था कि उसके हंसते हुए चेहरे के पीछे एक अवसाद उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। उसके करियर में सबकुछ ठीक था लेकिन परिवार में शायद नहीं। वो अपने आप को इस खतरनाक फैसले के लिए तो तैयार कर रहा था लेकिन अपनी परेशानियों के आगे उसने हथियार डाल दिए थे।
जो जानकारी मुझे उसके कुछ साथियों से मिली उसके मुताबिक आखिरी दिनों में नशाखोरी ने उसकी रही सही हिम्मत को भी तोड़ दिया था। मैं इस विषय को लेकर इसीलिए भी संवेदनशील हूं क्योंकि बीते साल ही मेरे ताउजी के बेटे यानि मेरे बड़े भाई ने भी ऐसा ही खौफनाक कदम उठाया था। आज तक परिवार इस बात को नहीं समझ पाया कि सब तो ठीक था फिर क्या हुआ? दरअसल ऐसी घटनाएं हम सब के लिए एक सबक हैं कि अच्छा और बुरा बाहर नहीं भीतर चलता है। यही वजह है कि जहां शारिरीक रूप से विकलांग तमाम लोग अपनी जिंदगी, सम्मान के साथ, खुशी-खुशी जीते हैं वहीं बाहर से स्वस्थ दिखने वाले ऐसे कई लोग भीतर से पूरी तरह खत्म हो जाते हैं।
आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में हम व्यवसाय परिवार, सम्मान, धन, शोहरत सबकुछ पाना चाहते हैं और इन अपेक्षाओं के साथ-साथ कमियों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि ये सब हासिल मत कीजिए लेकिन पहले अपने अनमोल मानव जीवन की कीमत को समझिए। स्वामी शरणानंद कहते थे कि आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह खुश हो और क्या आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह दुखी हो। कोई किसी अंश में सुखी होता है तो वो किसी अंश में दुखी भी होता है। और ऐसा ही दुखियों के लिए भी है। जब तक हम सुख-दुख से अतीत का जीवन नहीं पा लेते ये चक्र यूं ही चलता रहेगा।
ऐसा ही मामला टाटा समूह के एक बड़े अधिकारी का भी देखने को मिली था जो हाल में विदेश यात्रा के दौरान ऊंची इमारत से कूद गए थे। वैभव और सम्मान की उनके जीवन में कोई कमी नहीं थी। और ऐसा ये अकेला मामला नहीं है बाहर से समृद्ध और सुखी दिखने वाले कई लोगों ने ये काम किया है। ये तो साफ है कि इन परिस्थितियों में शांति नहीं है, नहीं तो इन्हें प्राप्त करने वाले लोग सबसे शांत लोग होते। शांति इनके अभाव में भी नहीं है क्योंकि दुनिया में ज्यादतर लोग इसी अभाव को जीवन में रस नहीं होने की बड़ी वजह मानते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों से अतीत कोई जीवन तो है, जहां सचमुच रस है। उस रस को समझाते हुए कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जल में रस मैं ही हूं। रस बाहर होता तो शायद सबको अच्छी लगने वाली कोई तो चीज होती। इन्द्रीय भोगों के जरिए भोग के आनंद को रस मानने के गलती करने वाले हमेशा इसमें फंसते जाते हैं और इस रस से अतीत किसी रस की अपेक्षा करते हैं जो सदैव उनमें है, उनका है और उनके लिए है।
राहुल को श्रद्धांजली और ईश्वर से सबको विवेक की प्रार्थना के साथ।
आपका
डॉ. प्रवीण श्रीराम
ब्लॉगःhttp://drpraveenshriram.blogspot.in/2014/04/blog-post_12.html