छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता : तुम रहम नहीं खाते बस्तियां जलाने में!

हाल के वर्षों में, खास कर भूमंडलीकरण के बाद भारत में जिस पेशे को सबसे ज्यादा गिरावट के लिए याद किया जाएगा वह है पत्रकारिता. कभी पवित्र गाय की तरह माना जाने वाले इस पेशा ने कितनी ज़ल्दी तरह-तरह के जानवरों में बदलते-बदलते भेड़िया तक का रूप धारण कर लिया, सोच कर शर्मसार हो जाना पड़ता है.

स्व-नियंत्रण की सुविधा केवल मीडिया को ही क्यों?

जिस तरह किसी आतंकी पर किये गए कार्रवाई को मज़हब विशेष के लिए खतरा निरूपित कर दिया जाता है, जैसे किसी अनुशासनहीन सरकारी कर्मचारी के अनुशासनहीनता के खिलाफ लिए गये निर्णय को (सन्दर्भ : बिहार विधान परिषद के दो अधिकारियों का निलंबन) उसके जाति के आधार पर दलित या पिछड़ा उत्पीड़न घोषित कर दिया जाता है, उसी तरह अगर आपने समाचार माध्यमों खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया पर कोई भी सवाल उठाया नहीं कि बस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे में होने का राग अलापना शुरू कर दिया जाता है. मानो इस संवैधानिक आज़ादी का सारा कापीराइट केवल मीडिया के पास ही है.

भोंडी अभिव्यक्ति को दंडित करने के क़ानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल करें

: अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम मौन व्रत : प्रशांत भूषण के साथ हुए हालिया घटनाक्रम के बाद अन्ना हजारे का मौन अनशन पर चले जाने का असली निहितार्थ यूं तो अन्ना ही बता सकते हैं, लेकिन जितना उन्होंने मौन पर जाने से पहले कहा वो भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम वाणी की उच्छृंखलता का फर्क करने को काफी है. अन्ना ने कहा कि ‘कुछ दिन मौन रहकर हम उर्जा ग्रहण कर सकते हैं.’ यानी मौन भी अभिव्यक्ति का चरम ही है. शायद उनका इशारा यही रहा हो कि बात-बात मुंह खोलने या जहर उगलने से ज्यादा बेहतर मौन है. जब रहीम ‘निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय, सुन अठिलैहे लोग सब बांट न लईहे कोई’ कहते हैं तो वे भी बोलने की आज़ादी को प्रतिबंधित नहीं करते बल्कि आशय यह होता है कि निजी कुंठाओं को सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु बना देना उचित नहीं. ऐसा दुःख जो वास्तव में दुःख हो और जिसे सुना कर तकलीफ को बांटा जा सके उसे ही व्यक्त करने की तरफ इशारा किया होगा रहीम ने भी.