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सुशासन बाबू आप तो ऐसे न थे…!

कोलकाता से करीब 60 किलोमीटर पश्चिम में एक छोटा सा स्टेशन है दुआ। 1997 मे तत्कालीन रेल मंत्री के तौर पर इस स्टेशन का उद्घाटन बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था। कार्यक्रम के कवरेज के सिलसिले में देर तक नीतीश कुमार के साथ रहने का अवसर मिला। वह जमाना लालू यादव का था। लेकिन कुछ खासियतों के चलते मुझे नीतीश कुमार तब हिंदी पट्टी के बेहद सुलझे हुए नेता लगे थे। अपने गृह प्रदेश बिहार के लालू यादव के ठेठ देशी अंदाज के विपरीत नीतीश के व्यक्तित्व में गजब की सौम्यता थी। स्टेशन का उद्घाटन करने के साथ ही नीतीश ने रेलवे सुरक्षा बल जवानों के एक समारोह को भी संबोधित किया था। साधारणतः ऐसे कायर्क्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति दर्ज कराते हुए रेल मंत्री जवानों के लिए इनामी राशि व तमाम लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं। लेकिन परंपरा के विपरीत नीतीश कुमार ने इससे परहेज करते हुए केवल मुददे की बात कही। इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हिंदी पट्टी से और मंडल-कमंडल की राजनीति की उपज होने के बावजूद  नीतीश कुमार काफी सुलझे हुए हैं।

कोलकाता से करीब 60 किलोमीटर पश्चिम में एक छोटा सा स्टेशन है दुआ। 1997 मे तत्कालीन रेल मंत्री के तौर पर इस स्टेशन का उद्घाटन बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था। कार्यक्रम के कवरेज के सिलसिले में देर तक नीतीश कुमार के साथ रहने का अवसर मिला। वह जमाना लालू यादव का था। लेकिन कुछ खासियतों के चलते मुझे नीतीश कुमार तब हिंदी पट्टी के बेहद सुलझे हुए नेता लगे थे। अपने गृह प्रदेश बिहार के लालू यादव के ठेठ देशी अंदाज के विपरीत नीतीश के व्यक्तित्व में गजब की सौम्यता थी। स्टेशन का उद्घाटन करने के साथ ही नीतीश ने रेलवे सुरक्षा बल जवानों के एक समारोह को भी संबोधित किया था। साधारणतः ऐसे कायर्क्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति दर्ज कराते हुए रेल मंत्री जवानों के लिए इनामी राशि व तमाम लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं। लेकिन परंपरा के विपरीत नीतीश कुमार ने इससे परहेज करते हुए केवल मुददे की बात कही। इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हिंदी पट्टी से और मंडल-कमंडल की राजनीति की उपज होने के बावजूद  नीतीश कुमार काफी सुलझे हुए हैं।

2005 में उनके बिहार का मुख्यमंत्री बनते-बनते रह जाने और फिर हुए उपचुनाव में भारी बहुमत से उनके मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2011 में उनके दोबारा सत्तासीन होने तक नीतीश कुमार के हर कदम व फैसले में परिपक्वता झलकती थी। हिंदी पट्टी के परंपरागत नेताओं के विपरीत अगड़ा-पिछड़ा और अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक राजनीति से परहेज करते हुए नीतीश ने सुशासन बाबू की अपनी अच्छी-खासी पहचान बनी ली थी। जाति व धर्म के मुद्दे को छोड़ केवल सुशासन व विकास के मुद्दे पर लड़े गए चुनाव की वजह से तब मुझे बिहार सचमुच बदलता नजर आया था। क्योंकि पहली बार बिहार में हुए चुनाव में लालू के चर्चित माई समेत तमाम समीकरण ध्वस्त हो गए थे। लेकिन अचानक नीतिश कुमार के फिर पुरानी लीक पर लौटने पर गहरा आश्चर्य हुआ। बेशक राजग या भाजपा से अलग होने का फैसला उनका व्यक्तिगत या दलगत मामला हो सकता है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनके इस कदम से किसी न किसी रूप में हिंदी पट्टी में मंडल-कमंडल और अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ रहा है।

नीतीश कुमार और उनके समर्थक मानें या न मानें, लेकिन यह निश्चित है कि राष्ट्रीय जनता दल विधायकों को तोड़ने के कथित प्रयासों के चलते हाशिए पर पड़े लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बेवजह ही सहानुभूति का पात्र बना दिया। इसी के साथ उनकी साफ-सुथरी राजनीति की छवि को भी थोड़ा ही सही पर धक्का लगा है। क्या भारतीय राजनीति में मंडल-कमंडल, अगड़ा-पिछड़ा या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक राजनीति से इतर राजनेता के उभरने की उम्मीद बेमानी है। इस बीच बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर उनकी पार्टी द्वारा बंद का आह्वान करना भी गले नहीं उतरा। चुनाव नजदीक आने पर ही नीतीश ने इस पर आक्रामकता क्यों दिखाई, और फिर विकास की बात करने वालों के मुंह से बंद की बात भी आम लोगों के गले नहीं उतरी।

 

लेखक तारकेश कुमार ओझा दैनिक जागरण, कोलकाता से जुड़े हैं। संपर्कः 09434453934

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