नब्बे के दशक के मध्य में एक नई चीज ईजाद हुई थी पेजर। बस नाम ही सुना था। जानकारी बस इतनी कि इसके माध्यम से संदेशों का आदान-प्रदान किया जा सकता था। दुनिया पेजर को जान-समझ पाती, इससे पहले ही मोबाइल फोन अस्तित्व में आ गया। हालांकि शुरू में इसे सेल्यूलर या सेल फोन के नाम से जाना जाता था। कुछ बड़े लोगों तक सीमित इस फोन से काल रिसीव करने का भी चार्ज लगता था। इस चार्ज के हटने पर मोबाइल फोन की पहुंच आम-आदमी तक हो गई।
मैं मोबाइल का ग्राहक काफी बाद में बना। लेकिन तब भी मोबाइल रिचार्ज का न्यूनतम दर लगभग 350 रुपए मासिक था। इस राशि का करीब आधा हिस्सा महकमे के बट्टे खाते में चला जाता था। जबिक आधी राशि से लोकल व एसटीडी काल के एवज में मोटी रकम काटी जाती थी। लेकिन प्रतिस्पर्धा का कमाल ऐसा कि आज सेकेंड की दर से मोबाइल पर बात की सुविधा है। सवाल उठता है कि टेलीफोन के मामले में यह बदलाव क्या किसी जादू की छड़ी से हुआ है। बिल्कुल नहीं, निजी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव और प्रतिस्पर्धा के चलते ही आज लोगों को अपनी सुविधा के लिहाज से काल करने की सुविधा मिल पा रही है। जिसकी एक दशक पहले तक भी कल्पना नहीं की जा सकती थी।
अब अहम सवाल है कि यदि टेलीफोन सस्ता हो सकता है, तो रेलवे और बिजली क्यों नहीं। सवाल यह भी है कि टेलीफोन कंपनियां यदि आज लोगों को कम दर पर काल की सुविधा दे रही हैं, तो क्या जनहित में भारी घाटा उठा कर। यदि नहीं तो प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू होने तक विभाग ने जो अनाप-शनाप पैसा उपभोक्ताओं से लिया, वह किस-किस की जेब में गया। दूरसंचार विभाग के अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक यही कहते हैं कि सुखराम से लेकर राजा तक ने उनके विभाग का पैसा ही हजम किया, क्योंकि सबसे ज्यादा पैसा इसी में है। वे यदि कामचोरी करते हैं, तो इसमें गलत क्या है। इसी तर्ज पर रेलवे और बिजली विभाग का कायाकल्प किया जाए, तो बेशक जनता को सस्ते दर पर परिसेवा मिलने लगेगी।
अहम सवाल है कि आखिर आम जनता को क्यों इन दोनों महकमों के लिए दुधारू गाय बना कर रखा जाए, कि जब चाहा दुह लिया। तिस पर तुर्रा यह कि हर समय घाटे का रोना भी रोया जाता है। मानों ये दोनों महकमे आम जनता पर कोई भारी एहसान कर रहे हों। इस संदर्भ में दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का बिजली कंपनियों का आडिट कराने का फैसला अभूतपूर्व, सराहनीय और ऐतिहासिक है। इसी तर्ज़ पर रेलवे के आय-व्यय का भी आंकलन किया जाना चाहिए। जिससे पता लगे कि आखिर किस मजबूरी में ये जब चाहे, किराया बढ़ा कर पहले से परेशान जनता की परेशानी और बढ़ाने का कार्य करते हैं।
सरकार की सदिच्छा हो तो काफी कुछ बदल सकता है। करीब एक दशक पहले तक सरकारी या राष्ट्रीयकृत बैकों में एक साधारण ग्राहक खाता खुलवाने में पसीने छूट जाते थे। आज वही बैंक गली-मोहल्लों में शिविर लगा कर लोगों के खाते खोल रहे हैं। यह परिवर्तन भी किसी जादू की छड़ी से नहीं हुआ है। बैंकिंग व्यवसाय में विदेशी बैंकों के कूद पड़ने, समय के साथ सुधार और बैंकों को लाभ-हानि के प्रति जवाबदेह बनाने के चलते ही यह चमत्कार हुआ है। इसी तरह से लोगों को सस्ती बिजली व बेहतर रेल परिसेवा भी मिल सकती है। बशर्ते इन विभागों में भी बैंक व टेलीफोन वाला फार्मूला अपनाया जाए और इन्हें जवाबदेह बनाया जाए।
लेखक तारकेश कुमार ओझा दैनिक जागरण, कोलकाता से जुड़े हैं. इनसे संपर्क 09434453934 पर किया जा सकता है.