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अमेरिकी पत्रिका ने दिखाया टाइम्स ग्रुप के बेशर्म मालिकों को आइना

: जाने माने मीडिया समीक्षक केन ऑलेट्टा ने अमेरिकी पत्रिका न्यूयॉर्कर के 8 अक्टूबर के अंक में टाइम्स ग्रुप के मालिकों के बारे में नौ पन्नों का आलेख लिखा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और टाइम्स नाउ के मालिक देश का नंबर वन मीडिया हाउस अपनी जेब में रखने के बावजूद अपने पाठकों से धोखा कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने इसपर बेबाक टिप्पणी की है। जरा पढ़िये :

: जाने माने मीडिया समीक्षक केन ऑलेट्टा ने अमेरिकी पत्रिका न्यूयॉर्कर के 8 अक्टूबर के अंक में टाइम्स ग्रुप के मालिकों के बारे में नौ पन्नों का आलेख लिखा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और टाइम्स नाउ के मालिक देश का नंबर वन मीडिया हाउस अपनी जेब में रखने के बावजूद अपने पाठकों से धोखा कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने इसपर बेबाक टिप्पणी की है। जरा पढ़िये :

टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के प्रमुख जैन बंधु- समीर और विनीत, के बारे में अमेरिकी पाक्षिक पत्रिका न्यूयॉर्कर ने जो कुछ कहा है, वह अधिकांश लोगों को मालूम है। उसका इतना योगदान जरूर है कि उसने संदेहों को दूर कर दिया है और इस बात की पुष्टि कर दी है कि देश का सबसे बड़ा मीडिया मुगल मानता है कि अखबार के पन्नों के लिए पवित्रता नाम की कोई चीज नहीं है और इसका हर कॉलम पैसा लेकर बेचा जा सकता है, क्योंकि उनके लिए अखबार पाउडर या दंत मंजन की तरह केवल एक माल है।

एक पाठक को यह जानकर धक्का लग सकता है कि वह उत्सुकतापूर्वक जिन खबरों को पढ़ता है, वह पैसा लेकर छापी गई खबरें होती हैं। उसकी निराशा और बेबसी और बढ़ जाती है, क्योंकि उसे यह पता नहीं होता कि किसी खबर का कौन सा हिस्सा सही में खबर है और कौन सा फर्जी। संपादकीय मर्यादा को इस तरह तोड़ना जैन बंधुओं को परेशान नहीं करता, क्योंकि वे इस पेशे को पैसा कमाने वाले धंधे की तरह लेते हैं। वे इस बात पर गर्व महसूस करते हैं कि उन्होंने मूल्यों को चिथड़ा-चिथड़ा कर डाला है, फिर भी वे भारत के नंबर एक अखबार बने हुए हैं। इतना ही नहीं, वे संभवत: दुनिया के किसी भी अखबार से यादा पैसा कमा रहे हैं। रूपर्ट मर्डक का साम्राज्य टाइम्स ऑफ इंडिया से 20 गुना बड़ा है, फिर भी उसका मुनाफा कम है।

नौ पेज के लेख में पाक्षिक (न्यूयॉर्कर) ने उल्लेख किया है कि किस तरह जैन बंधु पत्रकारिता को महज जरुरी मुसीबत की तरह देखते हैं और विज्ञापनदाताओं को असली ग्राहक मानते हैं। इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रिंट लाइन में संपादक का नाम नहीं छापता, क्योंकि अखबार में कोई संपादक ही नहीं है। जैन बंधुओं ने नहीं, बल्कि किसी और ने बहुत पहले कहा था कि अखबार में लिखना विज्ञापन की पीठ पर लिखने जैसा होता है। जैन बंधु इस कथन का पूरी तरह पालन करते हैं।

''हम जानते थे कि हमलोग श्रेष्ठ पाठकों को जोड़ने के व्यवसाय में हैं। इसके पहले हम सिर्फ विज्ञापन की जगह बेचा करते थे।'' न्यूयॉर्कर के लेख में सीधे जैन बंधुओं की ओर से कहा गया कोई उदाहरण नहीं है। संभवत: उन्होंने इंटरव्यू देने से मना कर दिया होगा। फिर भी, उनके नौकरों ने, शुक्र है इनमें संपादकीय विभाग के कोई भी नहीं थे, ने उनकी सोच की झलक दिखाई। एक पिछलग्गू ने कहा, ''संपादकों की कोशिश ऊंचे मंच पर खड़े हो कर लंबे वाक्य बोलने वाले पाखंडी बनने की रहती है।'' विनीत जैन खुद इस बात को लेकर बिल्कुल साफ हैं कि अखबार के धंधे में कामयाबी के लिए आपको संपादक की तरह नहीं सोचना चाहिए। ''अगर आप संपादक की तरह का दिमाग रखेंगे, तो फिर आप हर निर्णय गलत लेंगे।''

सही है कि जैन बंधुओं ने अखबार को 'खबरं' का कागज बना दिया है। लेकिन ऐसा इस कारण हुआ है कि वे अपने अखबारों की पैकेजिंग, दाम घटाने और इसे पीली पत्रकारिता के स्तर तक नीचे लाने में माहिर बन चुके हैं। फिर भी वे इसकी कोई परवाह नहीं करते, क्योंकि उन्हें पेश को उद्योग में तब्दील करने का गौरव हासिल है। उनके लिए संपादक थोक में सस्ते हैं।  मुझे याद है, टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक गिरिलाल जैन ने मुझे एक दिन फोन कर अपने मालिक अशोक जैन, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानता था, से बात कर कहने को कहा था कि मैं उनसे कहूं कि वे समीर से उनका पीछा छुड़वा दें। गिरि ने कहा था कि अशोक जैन की प्राथमिकताएं भले ही कुछ भी हो, लेकिन वे उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, लेकिन समीर का व्यवहार अपमानजनक होता है।

मेरे बात करने पर अशोक जैन ने जवाब में कहा कि वे कई गिरिलाल जैन खरीद लेंगे, लेकिन एक भी समीर जैन नहीं खोज पाएंगे, जिसने उनकी आमदनी आठगुना बढ़ा दी है। इसी तरह इंदर मल्होत्रा ने एक बार मुझे बताया था कि किस तरह वरिष्ठ पत्रकारों को समीर जैन अपने कमरे में जमीन पर बैठाते थे और उनसे अखबार की ओर से भेजे जाने वाले कार्डों पर आमंत्रितों का नाम लिखवाते थे।

जैन बंधुओं ने अपने व्यवसाय में पैसा कमाने के लिए जो कुछ किया है, उसके कारण अखबार मात्र एक गप-शप का पन्ना बनकर रह गया है। पत्रकारिता उनके लिए बस अपना धंधा बढ़ाने का माध्यम है। न्यूयॉर्कर के अनुसार इसे पक्का करने के लिए यह अखबार ''हत्या, बलात्कार और सुनामी की घटनाओं के बावजूद खबरों के लिए बनी जगह का इस्तेमाल एक मजबूत आशावाद को बनाए रखने के लिए करता है। यह प्रेरणा देने वाले युवाओं से संवाद बनाने को प्राथमिकता देता है। गरीबी की खबरों को सबसे नीचे रखता है।''

पिछले कुछ वर्षों में प्रबंधन एवं विज्ञापन विभाग की हैसियत बढ़ गई है। मुझे लगता है कि आपातकाल के दौरान प्रेस का जो पालतू रवैया रहा, उसके कारण भी व्यावसायिक हित आगे हुआ है। जब उसने देख लिया कि पत्रकार बिना संघर्ष के झुक सकते हैं, तो फिर प्रबंधन पत्रकारों की पुरानी अहमियत को कम करने लगा। पत्रकार विज्ञापन वालों के इशारे पर नाचने लगे। हम लोग जिस प्रेस नोट पर 'बिजनेस मस्ट' लिखा रहता था, उसे कूड़ेदान में डाल दिया करते थे।

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व्यापार और संपादकीय के बीच का संबंध धुंधला हो जाने के कारण स्वतंत्र अभिव्यक्ति सीमित हो गई है और रोजाना का दखल बढ़ गया है। यह बिल्कुल खुला रहस्य है कि प्रबंधन या व्यापार वाला विभाग अपने आर्थिक एवं राजनीतिक हितों के हिसाब से खबरें लिखवाता है। आज बहुत सारे अखबार मालिक रायसभा सदस्य हैं। लेकिन यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना महत्वपूर्ण यह तथ्य कि ये अखबार लाभ पाने के लिए राजनीतिक पार्टियों से संबंध बनाते हैं।

पार्टी या लाभ देने वाले के प्रति उनकी कृतज्ञता या निकटता अखबारों के कॉलमों में साफ तौर पर झलकती है। यही रिश्ता अब 'पेड न्यूज' में बदल गया है। इस तरीके से खबर लिखवाये जाते हैं कि कोई खास व्यक्तिया दृष्टिकोण को आगे किया जा सके। पाठक को कभी-कभार ही पता चलता है कि खबर में कहां प्रचार घुसा हुआ है या किन हिस्सों में में विज्ञापन लपेट दिया गया है।

हालांकि, अखबार, टेलीविजन और रेडियो के हर पहलुओं पर विचार करने के लिए मीडिया आयोग के गठन का समय आ चुका है। 1977 में जब पिछले प्रेस आयोग का गठन हुआ था, तो हमारे पास टेलीविजन नहीं था,क्योंकि उस वक्त भारत में टीवी नहीं पहुंचा था। मालिक और संपादक, पत्रकार और मालिकों के बीच के संबंध, तथा टीवी और प्रिंट मीडिया के रिश्ते जैसी तमाम बातों को तय करने के लिए मीडिया के हर पहलू पर विचार करने की जरूरत है। अखबार मालिकों ने श्रमजीवी पत्रकार कानून को ठेंगा दिखाने के लिए ठेके पर बहाली की व्यवस्था शुरु कर दी है। आज एक अखबार मालिक टेलीविजन चैनल या रेडियो का भी मालिक हो सकता है। इसके कारण काटर्ल (गुट) बनने लगा है, जिससे अंतत: प्रेस की स्वतंत्रता बाधित हो रही है।

सत्तारूढ़ पार्टी अपने कारणों से मीडिया आयोग बहाल नहीं करना चाहती। क्या इसके पीछे जैन बंधुओं का प्रभाव है, जिन्हें कई सवालों का जवाब देना है? जैन बंधुओं को निश्चित तौर पर समझना होगा कि पत्रकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इस कारण दिया गया था ताकि वह अपनी बात बिना किसी भय या पक्षपात के कह सके। अगर सिर्फ बांसुरी बजाने वाली स्थिति होगी, तो इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल खड़ा होगा। लोकतंत्र में, जहां स्वतंत्र सूचना पर स्वतंत्र प्रतिक्रिया मिलती है, वहां प्रेस कुछ लोगों की मर्जी के अनुसार नहीं चल सकता। नियंत्रित प्रेस अभिव्यक्ति की संवैधनिक गारंटी की अवहेलना होगी।


ये है अमेरिका पत्रिका में जैन बंधु की छपी स्टोरी का शुरुआती पन्ना…


toi tny

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