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कई मौतों के जिम्मेदार हैं ये टीआरपीबाज़ चैनल

पत्रकारिता से जुड़कर उसपे ही सवाल खड़े करना कोई समझदारी भरा कदम नहीं है, लेकिन अपनी दिल की भड़ास न निकालना भी खुद के प्रति भड़ास पैदा करता है। पिछले कई सालों से मीडिया में कुछ ऐसा हो रहा है जिस पर गौर करें तो मन में तमाम प्रकार के सवाल उठने लाज़मी है। लोगों को विवादों के कटघरे में खड़ी करने वाली मीडिया आज खुद विवाद का प्रयाय बनती दिख रही है। जिन खबरों को पढ़कर या सुनकर हम अपने दिन की शुरूआत करते हैं, वहीं खबरें लोगों के आमजीवन पर क्या असर डालती है, क्या इसके बारे में हमने कभी विचार किया है? आजकल हत्या और आत्महत्या की वारदातें अखबार और चैनलों के माध्यम से हमें रोज पढ़ने और सुनने को मिलती है, ऐसे में ये बात सोंचने पर विवश करती है कि क्या देश में हो रहे आत्महत्या और हत्या की जिम्मेदार मीडिया नहीं है।

पत्रकारिता से जुड़कर उसपे ही सवाल खड़े करना कोई समझदारी भरा कदम नहीं है, लेकिन अपनी दिल की भड़ास न निकालना भी खुद के प्रति भड़ास पैदा करता है। पिछले कई सालों से मीडिया में कुछ ऐसा हो रहा है जिस पर गौर करें तो मन में तमाम प्रकार के सवाल उठने लाज़मी है। लोगों को विवादों के कटघरे में खड़ी करने वाली मीडिया आज खुद विवाद का प्रयाय बनती दिख रही है। जिन खबरों को पढ़कर या सुनकर हम अपने दिन की शुरूआत करते हैं, वहीं खबरें लोगों के आमजीवन पर क्या असर डालती है, क्या इसके बारे में हमने कभी विचार किया है? आजकल हत्या और आत्महत्या की वारदातें अखबार और चैनलों के माध्यम से हमें रोज पढ़ने और सुनने को मिलती है, ऐसे में ये बात सोंचने पर विवश करती है कि क्या देश में हो रहे आत्महत्या और हत्या की जिम्मेदार मीडिया नहीं है।

कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी को चुंबन लेने वाली महिला के बारे में हमने अखबार में ख़बर थी। इस घटना को मीडिया ने इतना दिखाया कि खबर से संबंधित कोई भी व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो सकता है, शायद इसी का परिणाम रहा हो कि उसके अगले दिन यह खबर आई कि औरत के पति ने उस महिला के साथ-साथ खुद को भी जला कर खत्म कर लिया। भले ही इस खबर की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, इस पर संशय अब भी बरकरार है। लेकिन खबर को मीडिया द्वारा अधिक तवज्जो देने से उस महिला के परिवार पर नकारात्मक असर पड़ा होगा, इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता।

इससे लगभग एक महिने पहले की एक और घटना याद आती है जब सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मौत हुई थी, उसके ठीक एक रात पहले टीआरपीबाज चैनलों ने सुनंदा पुष्कर, केंद्रीय मंत्री शशि थरूर और साथ में महिला पाकिस्तानी पत्रकार के बीच, उनके संबंधों को लेकर मिर्च-मसाले के साथ जो विजुअल और शब्दों का खेल खेला वो काफी हास्यास्पद होने के साथ काफी चिंताजनक भी था। शशि की डेढ़ इश्किया, पति पत्नि और वो जैसे हेडिंग के साथ खबर चलाने का मतलब टीआरपी बटोरने के अलावा और क्या हो सकता है। दुर्भाग्यवश खबर चलने के अगले दिन ही दक्षिणी दिल्ली स्थित लीला होटल के कमरा नं. 345 में सुनंदा की लाश मिली, हालांकि अभी इसकी जांच हो रही है कि ये हत्या का मामला है या आत्महत्या का लेकिन किसी भी मीडिया संस्थान ने मामले को बेमतलब तुल देने की गलती पर अफसोस भी व्यक्त नहीं किया।

ऐसे में सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप में तटस्थ मीडिया इतनी लापरवाह हो गई है कि उसे इस बात का अंदाजा तक नहीं की उनके द्वारा प्रकाशित व दिखाए गई खबरों का आमजन या उस खबर से संबंधित व्यक्ति पर सकारात्मक असर होगा या नाकारात्मक। क्या प्रेस की आजादी का यही सही इस्तेमाल है कि टीआरपी बढ़ाने और पैसे कमाने के लिए लोगों को मानसिक तौर पर इस बात के लिए उकसाएं कि वे हत्या और आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएं। हालांकि इन सारे आरोपों को खारिज करने वाले लोग मीडिया के पक्ष में ये दलील दे रहें है कि यही मीडिया जब आरुषी हत्याकांड में सज़ा दिलवाती है तो लोग तारीफ करते हैं, यही मीडिया जब आईपीएल  फिक्सिंग का परत दर परत खुलासा करती है, तो लोग वाह-वाही करते हैं। यही मीडिया जब केजरीवाल जैसे आम आदमी को खास बना देती है तो लोग उस आम आदमी में खुद को ढूंढने का प्रयास करने लगते हैं। लेकिन यही मीडिया जब राहुल गांधी को कथित रूप से चुंबन देना जिसे कहा जाए तो लोग ऐसी खबरों पर टिप्पणी या सवाल क्यों करते है।

चलिए मान लेते हैं कि मीडिया ने ढेर सारे ऐसे कार्य किये हैं जो समाज और व्यवस्था के हित में हो लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हम मीडिया की गलतियों को नजरअंदाज करें। लोग टिप्पणी क्यों ना करे, आखिर लोकतंत्र की पहरेदार कही जाने वाली मीडिया ने गलती की है, और ऐसा गलतियां तो रोज होती है.. और जहां जनमाध्यमों की सोंच टीआरपी और विज्ञापन तक सीमित हो वहां हम जन की सोंच बदलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। आजकल शाम में टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में भी नयापन देखने को नहीं मिलता, ऐसा लगता है जैसे मुद्दों की कमी के साथ ये बहसें राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के लिए बस एक प्रचार का माध्यम बन के रह गई है। आजकल की टीवी पत्रकारिता तो खबरों को बढ़ाचढ़ा कर दिखाना और उन्हीं खबरों में लोगों को उलझन में डालने को टीआरपी का नुस्खा मानते हैं।

आखिर ऐसा क्या कारण है कि अफसरों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर हंगामा खड़ा करने वाले न्यूज चैनलों पर बड़ी कंपनियां, या यूं कहे कि विज्ञापनदाताओं की भ्रष्ट नीतियों पर कोई खबर तक नहीं चलती जैसे कार्पोरेट जगत मे रामराज हो। मतलब साफ है, अखबार और चैनल विज्ञापनदाताओं को अपना रखवाला मान रखा है जिसके दबाव में मीडिया की कार्यप्रणाली चल रही है। कलम की धार में आए इस फिंकेपन से पूरी मीडिया की विश्वसनियता पर बड़ा संकट मंडराता दिख रहा है। और ये संकट बड़ा इसलिए है क्योंकि आजादी में महत्वपूर्ण भुमिका निभाने वाली पत्रकारिता आर्थिक मामले में भी भले ही संपन्नता की ओर बढ़ रही है कि लेकिन गुणवत्ता के मामले में गिरावट लागातार जारी है। समाज का दर्पण कही जाने वाली इस मीडिया को खुद दर्पण देखने की जरुरत है। एसे में इस बात की भी दरकार है कि अपने इतिहास से प्रेरणा लेते हुए मीडिया अपने खबरों के असर को समझते हुए अपनी लक्ष्मणरेखा खुद तय करे। इसी में जन और माध्यम दोनों का कल्याण निहित है।

 

लेखक किसलय गौरव से उनके ईमेल [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।
 

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