Connect with us

Hi, what are you looking for?

No. 1 Indian Media News PortalNo. 1 Indian Media News Portal

विविध

टीआरपी की होड़ और चरण-वंदन संस्कृति के चलते पत्रकारों की विश्वसनीयता खतरें में

इन दिनों चैनलों या अख़बारों द्वारा प्रस्तुत की जा रही खबरों पर पाठको की आने वाली टिप्पड़ियां इस बात का स्पष्ट संकेत कर रही हैं कि पाठकों की नजर में अब "पत्रकारों की विश्वसनीयता" खतरें में है। खबर चाहे प्रिंट की हो या इलक्ट्रॉनिक मीडिया की सब पर आने वाली ज्यादातर टिप्पड़ियों में पाठक खबर को दिखाने वाले पत्रकार की निष्ठा पर सवाल उठाने लगते है और उसे दलाल जैसे अमुक शब्दों से सुशोभित करते है।

इन दिनों चैनलों या अख़बारों द्वारा प्रस्तुत की जा रही खबरों पर पाठको की आने वाली टिप्पड़ियां इस बात का स्पष्ट संकेत कर रही हैं कि पाठकों की नजर में अब "पत्रकारों की विश्वसनीयता" खतरें में है। खबर चाहे प्रिंट की हो या इलक्ट्रॉनिक मीडिया की सब पर आने वाली ज्यादातर टिप्पड़ियों में पाठक खबर को दिखाने वाले पत्रकार की निष्ठा पर सवाल उठाने लगते है और उसे दलाल जैसे अमुक शब्दों से सुशोभित करते है।

ऐसे में गम्भीर सवाल ये है कि आखिर ऐसी परिस्थितियां बनी क्यों कि पाठकों की नजर में अब एक पत्रकार, पत्रकार से ज्यादा एक दलाल है? जाहिर है साधारण शब्दों में इसका जवाब वही होगा जो आज के टाइम में ज्यादातर बुद्धिजीवी अपनी समीक्षाओं में लिखते है। इस विषय पर आने वाली अब तक की ज्यादातर समीक्षाओं में लिखा गया है कि "आज के समय में पत्रकार अपने पत्रकारीय दायित्वों को निभाने से ज्यादा राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठावान है, दलगत समर्पण व टीआरपी की होड़ में वो ऐसी ख़बरों को बना रहे हैं जिनकी विश्वसनीयता आम जनमानस में हमेशा सवालों के घेरे में रही है। बात कुछ हद तक सही है पर ये तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है, इसके दूसरे पहलू में वो सभी बातें शामिल होती है जिनके विषय में न तो सरकार बात करना चाहती है और न ही पत्रकारों का बड़ा से बड़ा संगठन।

पहला सवाल ये कि आखिर क्यों एक बड़े मीडिया संस्थान में काम करने वाला पत्रकार टीआरपी के होड़ में खबरो की विश्वसनीयता से खिलवाड़ करता है? और दूसरा ये, कि क्यों एक पत्रकार राजनीतिक दलों से लेकर वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट्स तक की चरण वंदना करता है? यहाँ इन दोनों सवालों को अलग-अलग इसलिए उठा रहा हूँ क्योकि कुछ जगहों पर स्थिति भिन्न है, जिनका विधवत उल्लेख करना आवश्यक है, अन्यथा बात फिर अधूरी ही रह जायेगी।

पहले सवाल का जवाब, मालिक के रूप में पड़ने वाला वो अनैतिक दबाव है जो एक पत्रकार को उसके जीवकोपार्जन के लिए मिलने वाली तन्ख्वाह के बदले उपहार स्वरुप मिलता है। अगर इस अनैतिक दबाव के विरुद्ध वो कोई आवाज़ उठाता है या वो ये कहता है कि वो पत्रकारिता के सिद्धन्तों के खिलाफ जाकर काम नहीं करेगा तो संस्थान में उस सिद्धांतवादी पत्रकार का एक क्षण भी रुकना नामुमकिन है। उसे तत्काल उसकी सेवाओं से बर्खास्त कर दिया जायेगा और यदि किन्ही मजबूरियों के चलते संसथान उसे बर्खास्त करने अक्षम है, तो वो विभिन्न तरीकों से उसे प्रताड़ित करने की प्रक्रिया शुरू कर देगा, ताकि प्रताड़ना से त्रस्त होकर वो सिद्धांतवादी पत्रकार स्वयं ही संस्थान को छोड़ दे। ऐसी प्रताड़ना और ऐसे निर्णयों के खिलाफ पत्रकारिता का बड़ा से बड़ा संगठन कुछ भी बोलने को तैयार नहीं होता।

अभी कुछ दिन पहले ही देश के जाने माने मीडिया संस्थान आईबीएन-7 ने सैकड़ों पत्रकारों को एक साथ बर्खास्त कर दिया। इस बर्खास्तगी के खिलाफ कुछ दो-चार जुझारों पत्रकारों के आलावा पत्रकारिता के बड़े से बड़े संगठन ने कोई आवाज़ नहीं उठायी, अलबत्ता सबने ख़ामोशी को ही कायम रखना बेहतर समझा। मीडिया संस्थान के मालिकों की नजर में एक पत्रकार की हैसीयत उतनी ही है जितनी सरकारी अफसरों की नजर में उनके चपरासियों की।

पर यहां चपरासियों और पत्रकारों में एक बेसिक अंतर है, वो ये कि सरकारी चपरासियों का संगठन अपनी अवमानना और प्रताड़ना का विरोध करता है, जब तक न्याय न मिल जाये वो अपना विरोध कायम रखता है। पत्रकारों का बड़ा से बड़ा संगठन विरोध के नाम पर मीडिया संस्थानो से लेकर सत्ता में आसीन राजनैतिक दलों की चापलूसी करता है। ऐसी स्थिति में बड़े मीडिया घरानों में काम करने वाला कोई भी पत्रकार निष्पक्ष पत्रकारिता के दायित्व को सम्पादित नहीं कर सकता, क्योकि एक तो उसे नौकरी जाने का खतरा होता है, दूसरा उसे पत्रकारिता के किसी भी संगठन से न्याय मिलने की उम्मीद नहीं रहती।

अब आता हूँ अपने दूसरे सवाल पर कि आखिर क्यूँ एक पत्रकार राजनीतिक दलों से लेकर वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट्स तक की चरण वंदना करता है?

छोटे अख़बारों और चैनलों में काम करने वाले एक पत्रकार का अधिकतम वेतन पांच से दस हजार रूपये प्रतिमाह से ज्यादा नहीं होता। ऐसे में मज़बूरी में ही सही, पर उस संस्थान में काम करने वाला पत्रकार उस तरफ अपने कदम बढ़ाता है जो पत्रकारिता के सिद्धांतो के विरुद्ध है क्योकि सिद्धांतो से वो अपने परिवार का पेट नहीं भर सकता है। लिहजा वो लग जाता है उन राजनेताओं और अधिकारीयों की चापलूसी में जहाँ से उसे चार पैसे मिल जाएँ। अब जाहिर सी बात है कि पत्रकार जिस नेता या अधिकारी से पैसे ले रहा है उसके विरुद्ध नहीं लिखेगा चाहे वो अधिकारी/नेता कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो।

कहने का तात्पर्य ये है की दोनों ही परिस्थतियों में एक पत्रकार स्वयं उस राह पर नहीं चलता बल्कि जीवकोपार्जन की समस्या उसे उस राह पर ले जाती। ऐसे में गम्भीर प्रश्न ये है कि इस समस्या का समाधान क्या है, कि एक पत्रकार का जीवकोपार्जन भी चलता रहे और वो निष्पक्ष पत्रकारिता के सिद्धांतो का भी पालन करता रहे?

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस समस्या का समाधान उसी सूक्ति में छुपा है जो वर्षों से कही जाती रही है कि "संगठन में ही शक्ति है'। अब ये समय की मांग है कि पत्रकार इस शोषण के खिलाफ एकजुट हों और मूलभूत समस्याओं के प्रति अपनी आवाज़ बुलंद करें। किन्तु यक्ष प्रश्न तो यही है कि हिजड़ों की बारात में दूल्हा बनेगा कौन?

 

लेखक लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं, उनसे मो-9389990111 पर संपर्क किया जा सकता है।
 

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

… अपनी भड़ास [email protected] पर मेल करें … भड़ास को चंदा देकर इसके संचालन में मदद करने के लिए यहां पढ़ें-  Donate Bhadasमोबाइल पर भड़ासी खबरें पाने के लिए प्ले स्टोर से Telegram एप्प इंस्टाल करने के बाद यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia 

Advertisement

You May Also Like

विविध

Arvind Kumar Singh : सुल्ताना डाकू…बीती सदी के शुरूआती सालों का देश का सबसे खतरनाक डाकू, जिससे अंग्रेजी सरकार हिल गयी थी…

सुख-दुख...

Shambhunath Shukla : सोनी टीवी पर कल से शुरू हुए भारत के वीर पुत्र महाराणा प्रताप के संदर्भ में फेसबुक पर खूब हंगामा मचा।...

विविध

: काशी की नामचीन डाक्टर की दिल दहला देने वाली शैतानी करतूत : पिछले दिनों 17 जून की शाम टीवी चैनल IBN7 पर सिटिजन...

प्रिंट-टीवी...

जनपत्रकारिता का पर्याय बन चुके फेसबुक ने पत्रकारिता के फील्ड में एक और छलांग लगाई है. फेसबुक ने FBNewswires लांच किया है. ये ऐसा...

Advertisement