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समाचार वक्ता या राजनीतिक प्रवक्ता? दलाली और पत्रकारिता में क्या है फ़र्क?

पिछले कई दिनों से लगातार टी.वी.चैनल्स चुनावी ख़बर परोस रहे हैं। ये कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी खबर ये है कि वोटों के ध्रुवीकरण की तर्ज़ पर अब न्यूज़ चैनल्स का भी ध्रुवीकरण हो चला है, जिसका विशुद्ध पैमाना आर्थिक लें-दें है। अपनी-अपनी "सरंक्षक" पार्टियों के प्रति "वफादारी" का परिचय ये चैनल्स खुल कर दे रहे हैं। इन चैनल्स को ध्यान से देखें और उनकी भाषा पर ध्यान दें तो समझ में आ जाएगा कि "पेड" न्यूज़ को कूटनीतिक तौर पर कैसे "नॉन-पेड" न्यूज़ का अमली जामा पहनाया जा रहा है।

पिछले कई दिनों से लगातार टी.वी.चैनल्स चुनावी ख़बर परोस रहे हैं। ये कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी खबर ये है कि वोटों के ध्रुवीकरण की तर्ज़ पर अब न्यूज़ चैनल्स का भी ध्रुवीकरण हो चला है, जिसका विशुद्ध पैमाना आर्थिक लें-दें है। अपनी-अपनी "सरंक्षक" पार्टियों के प्रति "वफादारी" का परिचय ये चैनल्स खुल कर दे रहे हैं। इन चैनल्स को ध्यान से देखें और उनकी भाषा पर ध्यान दें तो समझ में आ जाएगा कि "पेड" न्यूज़ को कूटनीतिक तौर पर कैसे "नॉन-पेड" न्यूज़ का अमली जामा पहनाया जा रहा है।

उदाहरण के तौर पर "इंडिया टी. वी." को लें , ये चैनल पूरी तरह भाजपा के समर्थक चैनल के तौर पर खुद को स्थापित कर चुका है। इस चैनल के मालिक रजत शर्मा और भाजपा नेताओं के "मधुर" सम्बन्ध छिपाए नहीं छिप रहे। "इंडिया टी. वी." की वेबसाइट देख लें तो एक झटके में लगेगा कि ये भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुख-पत्र है, जहां 10 खबरों में से 5 भाजपा या मोदी को समर्पित रहती हैं। "ZEE News" की बात करें तो "फिरौती" मांगने के आरोप में ये न्यूज़ चैनल खुद नज़रबंद है। पहले से ही भाजपा के प्रति "नरमी" दिखाने वाले इस चैनल को कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल के पलटवार ने, खुल कर "भाजपाई चैनल" बना दिया है।

ज़ी न्यूज़ के मालिकान तो, अब, भाजपा नेताओं के साथ मंच साझा कर रहे हैं। इस चैनल को मालूम है कि भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है जो इसको "फ़िरौती" के आरोपों से बचा सकती है। इस मामले में "आज तक" (जो विज्ञापन ज़्यादा दिखाता है, समाचार कम) पहले खुल कर भाजपाई खेमे के साथ था। मोदी-मोदी की रट लगाने वालों में "आज तक" उस्ताद रहा। मगर खुलकर एकतरफा प्रसारण का आरोप लगते ही इस चैनल ने बड़ी होशियारी के साथ कूटनीतिक रास्ता अख़्तियार कर लिया। ये चैनल आज भी मोदी के प्रति अपना विशेष भाव रखता है, मगर सावधानी से। इस चैनल की वेबसाइट अक्सर मोदी-भक्ति दर्शाती रहती है।

"एबीपी न्यूज़" का सम्पादकीय// मंडल, बिना RSS की ट्रेनिंग लिए "भाजपा प्रचार" के लिए कटिबद्ध सा जान पड़ता है। भाजपा समर्थक चैनल्स की तरह, न्यूज़ कंटेंट की भाषा का ताना-बाना, इस चैनल पर, इस तरह बुना जा रहा है कि दर्शक-गण समझें कि वाक़ई भाजपा की लहर है और मोदी बेताज़ बादशाह। उधर दीपक चौरसिया नाम के "बद-नाम" पत्रकार की "अध्यक्षता" में चल रहा "इंडिया न्यूज़", निजी खुन्नस निकाल रहा है। निशाने पर "आप" के अरविन्द केजरीवाल हैं। इस चैनल पर ख़बर का ताना-बाना इस लिहाज़ से बुना जा रहा है, जिस के ज़रिये अरविन्द केजरीवाल को बदनाम कर दीपक चौरसिया की बदनामी ढंकी जा सके। ये चैनल दीपक चौरसिया का निजी मंच हो चला है, जहां भाजपा को समर्थन और अरविन्द केजरीवाल को बदनामी देने का खुल्ला खेल खेला जा रहा है।

इसी तरह कॉंग्रेस के राजीव शुक्ला का चैनल "न्यूज़24" (जो न्यूज़ चैनल तो कत्तई नहीं कहा जा सकता), स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस के गुणगान में व्यस्त है। अब चूँकि राजीव शुक्ला के साले साहब(रवि शंकर प्रसाद) भाजपा के मुखर प्रवक्ता हैं, लिहाज़ा जीजा लिहाज़ कर जाते हैं और कभी-कभी भाजपा भी फ्रंट पर दिखती है। अब रहा सवाल "IBN7" का, तो ये चैनल मुकेश अम्बानी का है। अम्बानी और मोदी के मधुर संबंधों की हक़ीक़त जाननी हो तो इस चैनल की भाषा पर ध्यान दें, अम्बानी-मोदी के "प्रेम-संबंधों" का खुलासा हो जाएगा। "NDTV" की बात करें तो ये चैनल हमेशा से कांग्रेस के नज़दीक माना गया है। पर NDTV को अंदरुनी तौर पर जानने वाले बता देंगें कि ये चैनल हमेशा से "एलीट" और "पावरफुल" क्लास के नज़दीक रहता है। मज़ाक तो यहां तक होता है कि अगर आप के पिता या रिश्तेदार, गर, प्रभावशाली सरकारी ओहदे पर हैं तो NDTV में आपको आराम से नौकरी मिल जाएगी।

गिनती में ऐसे कई छुट-भैये चैनल हैं, जो कॉंग्रेस- भाजपा और अन्य पार्टियों या नेताओं का खुले-आम "प्रचार" कर रहे हैं। सबको मालूम है कि इस मुहिम के पीछे करोड़ों का आर्थिक-तंत्र काम कर रहा है, जिसे बुद्धिजीवियों की जमात बखूबी "कैश" कर रही है।
 
खैर
, ये कुछ बानगी थी "मिलावटखोरों" की। अब सवाल ये उठता है की भारत सरकार न्यूज़ चैनल के लाइसेंस किस आधार पर बांटती है? क्या समाचारों की भाषा को लेकर किसी तरह का सरकारी प्रावधान नहीं है? क्या न्यूज़ चैनल, किसी पार्टी-विशेष या व्यक्ति विशेष को खुलकर या कूटनीतिक तौर पर समर्थन जारी रख सकते हैं? क्या चुनाव आयोग को "पेड-न्यूज़" या निष्पक्ष समाचारों में अंतर नहीं मालूम? या सरकारी क़ानून, न्यूज़ चैनल्स की भाषा और न्यूज़ चैनल्स को उस की एवज़ में हासिल हो रहे "अनैतिक" लाभ को रोकने में सक्षम नहीं है? ये सारे सवाल हाइपोथेटिकल नहीं हैं, बल्कि, ज़मीनी हक़ीक़त से दो-चार हो चुके यक्ष प्रश्न हैं।

ऐसे सवाल जो समाचार चैनल की आड़ में चल रहे "आर्थिक-घोटालों" की जांच की तरफ इशारे करते हैं। सरकार को चाहिए कि इसकी जांच हो। सघन जांच। वर्ना बुद्धिजीवियों की खाल में पसरे बनियानुमा पत्रकार और न्यूज़ चैनल मालिक, सतही तौर पर तो समाचार-वक्ता नज़र आएंगे मगर बुनियादी रूप से अलग-अलग पार्टियों के प्रवक्ता की तरह काम करेंगें व् देश को दिमागी तौर पर दिवालिया बना देंगें। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पसरता "अभिव्यक्ति का अधिकार" एक खूबसूरत नुस्ख़ा है। पर चुनावी माहौल में आर्थिक नफ़ा-नुक्सान का हेर-फेर कर, इस शानदार नुस्खे में बदबूदार मिलावट कर रहे न्यूज़ चैनल्स, मज़बूत लोकतंत्र में, एक सवाल की मज़बूत बुनियाद खड़ी कर रहे हैं कि – "दलाली" और पत्रकारिता में फ़र्क़ क्या है?

 

नीरज…..'लीक से हटकर'। संपर्कः [email protected]

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