अपने दोगलेपन, पक्षपात और अतिव्यावसायिकता के चलते मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। उत्तराखंड में तो हालत ज्यादा ही खराब हैं। नेता तो जनता को धोखा दे ही रहे हैं, मीडिया भी कम नहीं है। हाल ही में एक पूर्व मुख्यमंत्री पर एक महिला ने चरित्रहनन का आरोप लगाया, लेकिन यह मसला फेसबुक के सिवा न तो किसी चैनल पर प्रसारित हुआ और न ही किसी अखबार में। उत्तराखंड आंदोलन के साथ जिन दो बड़े अखबारों ने इस राज्य में अपनी समृद्धि-प्रसिद्धि और प्रसार बढ़ाने की पताका फहराई, वे भी उत्तराखंड को छल रहे हैं। उन्हें यहां के सरोकारों से अधिक अपने विज्ञापनों की चिंता है। एक बार एक मंत्री के खिलाफ मामला दर्ज हुआ, पर अखबारों की सुर्खियों में नहीं आ पाया।
अब हाल ही के मामले को लें, सभी अखबारों और चैनलों के पत्रकारों और संपादकों को पता है कि इस मामले में सचाई है, लेकिन इनका इसे प्रसारित-प्रकाशित न करना सवालों को जन्म दे रहा है। मीडिया तर्क देता है कि जब रिपोर्ट दर्ज होगी, तभी खबर छपेगी, लेकिन यहां तो आरोप लगाने वाली महिला पर ही कई धाराओं में रिपोर्ट दर्ज करा दी गई है, तब क्या यह खबर के दायरे में नहीं आती? यह सरासर अन्याय है। पीड़ित को और पीड़ा देने वाली बात है। कुछ मजबूरी में मीडिया ने हरक सिंह का मामला प्रचारित-प्रकाशित किया, लेकिन आगे की कड़ी को दबा दिया गया। छेड़छाड़ का आरोप लगाने वाली महिला पर हरक द्वारा मानहानि का मुकदमा दर्ज न किए जाने से हरक सिंह पर ही अब सवाल उठ रहे हैं, लेकिन मीडिया इस मसले को भूल गया है। सारांश यह है कि पैसे के बूते आप अब मीडिया में कुछ भी छपवा सकते हैं। अखबार-टीवी में बड़ा विज्ञापन दो या बैक डोर से मोटी राशि दो तो बड़े अपराधी होकर आप माफ कर दिए जाओगे। मीडिया के इस वेश्यापन का प्रतिकूल प्रभाव लोकतंत्र और समाज पर पड़ रहा है, जो भविष्य के लिए एक चिंतनीय पहलू है।
लेखक डॉ. वीरेंद्र बर्तवाल, देहरादून में रहते हैं। संपर्कः #09411341443, [email protected]