केन्द्र से राज्यों में नेता थोपना कोई नई बात नहीं है। देश में लोकतंत्र शुरू होने के साथ ही यह सिलसिला भी शुरू हो गया था। अपनी पंसद के व्यक्ति को सत्ता की चाबी सौंपने का क्रम इंदिरा गांधी के दौर में ज्यादा रहा। बाद में भारतीय जनता पार्टी के उदय और कुछ राज्यों में उसकी सरकार बनने के बाद वहां भी केन्द्र से नेता थोपने का क्रम शुरू हुआ। हाल में उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन भी ऊपर से नेता थोपने की परम्परा का ही एक हिस्सा है। विजय बहुगुणा की पहले ताजपोशी और बाद में हरीश रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का कांग्रेस हाईकमान का फरमान इसी परम्परा को आगे बढ़ाने का काम है। यह दिलचस्प बात है कि अब तक राज्य के आठों मुख्यमंत्रियों को जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने नहीं बल्कि केन्द्र में बैठे नेताओं ने चुना है।
गौरतलब है कि 9 नवम्बर 2000, को उत्तर प्रदेश से अलग करके उत्तराखंड को देश का 28वां राज्य बनाया गया। लेकिन भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के गलत निर्णय के चलते राज्य सृजन के पहले १४ महीनों में ही अंतरिम सरकार में दो मुख्यमंत्री बनाये गये। राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी का कार्यकाल महज 13 महीनों का ही रहा। भारी दवाब के चलते विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कमान भगत सिंह कोश्यारी के हाथों में सौंप दी गई। केन्द्र से नेता थोपने की परम्परा पहले कांग्रेस में थी,लेकिन भाजपा भी इसमें पीछे नहीं रही। इसका खामियाजा उसे चुनाव में भुगतना पडा। राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में उम्मीदों के विपरीत कांग्रेस सबसे बडे दल के रूप में सामने आयी। हरीश रावत की दावेदारी को प्रबल माना जा रहा था। विधायकों का समर्थन भी उनके पक्ष में था, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने एक ऐसा फैसला सुनाया जो राजनीतिक प्रेक्षकों के भी गले नहीं उतरा। एक तरह से केन्द्र की राजनीति में सक्रिय वरिष्ठ कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी को हाईकमान ने कांग्रेस विधायक दल का नेता घोषित कर दिया। तिवारी कई किन्तु -परन्तु के बीच पूरे पांच साल तक सत्ता में काबिज रहे। उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद यही एक अपवाद भी है कि उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। अब तक कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के केन्द्र से थोपे गये किसी भी दूसरे नेता ने कार्यकाल पूरा नहीं किया।
वर्ष 2007 में राज्य के दूसरे विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। हालांकि उसे पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन निर्दलीय व उत्तराखंड क्रांति दल के समर्थन से वो सरकार बनाने में सफल रही। इस बार भी केन्द्र से ही विधानमंडल दल का नेता थोपा गया। भगत सिंह कोश्यारी के समर्थन में अधिकतर विधायकों के होने के बावजूद गढ़वाल सांसद भुवनचनद्र खंडूडी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। किसी तरह दो साल तक सरकार चली, लेकिन पार्टी के अंदर का अंतर्कलह कम नहीं हुआ। एक बार फिर राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और फिर केन्द्र ने परम्परा को आगे बढ़ाते हुए नेता थोप दिया। इस बार रमेश पोखरियाल निशंक कुर्सी कब्जानें में कामयाब रहे। लेकिन निशंक सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार के आरापों के कारण एक बार फिर केन्द्र ने खंडूडी की ताजपोशी कर दी। केन्द्र के ईशारे पर बदले जा रहे नेताओं से राज्य की जनता ने अपना अपमान माना और भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बेदखल कर दिया। राज्य के तीसरे विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ३२ सीटों के साथ बडे दल के रूप में सामने आया। चार निर्दलीय व बहुजन समाज पार्टी के तीन विधायकों के सहयोग से कांग्रेस ने सरकार बनाई और नेता बने टिहरी के सांसद विजय बहुगुणा। मुख्यमंत्री पद की दौड में सबसे आगे वेसे तो हरीश रावत थे, लेकिन केन्द्रीय नेताओं ने उनकी दावेदारी को दरकिनार करते हुए विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाकर केन्द्र से नेता थोपने की अपनी पुरानी रिवायत को आगे बढ़ाया।
मुख्यमंत्री के तौर पर असफल साबित हुए विजय बहुगुणा किसी तरह पौने दो साल का कार्यकाल खींचने में जरूर सफल रहे, लेकिन इस दौरान राज्य में पूरी तरह से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहा। अफसरशाही पूरी तरह से राज्य में हावी रही। चार राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस हाईकमान ने उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन करने का मन बनाया, लेकिन अपने निर्णय को अमलीजामा पहनाने में उसे लम्बा वक्त लगा। बड़े लम्बे इंतजार के बाद हरीश रावत को उत्तराखंड की कमान सौंप दी गई है। रावत का मुख्यमंत्री बनने का सपना भी पूरा हो गया है, लेकिन बडा सवाल यही है कि आखिर कब तक सियासी दल उत्तराखंड जैसे अल्पव्यस्त राज्य में मुख्यमंत्री के रूप में प्रयोग करते रहेंगे। सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस प्रकार से हरीश रावत के नाम पर सहमति बनाने में केन्द्रीय पर्यवेक्षकों को पांच घंटे तक माथा-पच्ची करनी पड़ी और वरिष्ठ नेता सतपाल महाराज ने खुलकर अपना विरोध दर्ज किया, उससे यह समझना मुश्किल नहीं है कि नये नेता के लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा। सतपाल महाराज के सुर ठीक उसी तरह दिखे जैसे विजय बहुगुणा की ताजपोशी के समय हरीश रावत के थे। खैर राजनीति में यह सब होता रहता है लेकिन नव नियुक्ति मुख्यमंत्री को गुटों में बंटी कांग्रेस को एक साथ लाने के अलावा पीडीएफ के नेताओं को भी साध कर चलना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक बार फिर केन्द्र के पास नये नेता थोपने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं रहेगा। शायद इस पर्वतीय राज्य की यही नियति है।
लेखक देहरादून में रहते हैं, उनसे संपर्क मो. 9412032437 या ईमेलः [email protected] पर किया जा सकता है।