यशवंत जी नमस्कार, अनिल सिंह की नयी यात्रा के सम्बन्ध में पढ़कर प्रसन्नता तो हुई लेकिन दुःख भी हुआ कि टीम के सबसे भरोसेमंद साथी की समर्पित सेवाएँ अब हम लोगो को नहीं मिल पाएंगी. भड़ास की लोकप्रियता के पीछे निश्चित तौर पर अनिल सिंह का योगदान अविस्मरणीय है. आपके साथ अनिल सिंह की कारागार यात्रा का वो दौर भी हमें याद है जब सत्य को छाती ठोंक कर सत्य कहने के चलते कुछ ऐसे व्यापारियों ने साजिशन आपको और अनिल को डासना का दंश झेलने पर मजबूर किया था जिनके बारे में कहा जाता है कि 1975 के आपातकाल के दौर में जब के. विक्रम राव सरीखे पत्रकार आपातकाल का विरोध कर जेल जा रहे थे तो इन व्यापारियों के पुरखे तानाशाह के आगे घुटने टेक कर बाकायदा माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आ गए थे ताकि इनकी विलासिता में कोई कमी न आ सके.
आश्चर्यजनक रूप से एक खबर आज के. विक्रम राव साहब के बारे में भी पढने को मिली जिनमें कोई सज्जन अभी हाल ही में रायपुर में सम्पन्न हुई आई. एफ. डब्लू. जे. के सम्मलेन की बुराई करते नजर आये और राव साहब की राजनैतिक लालसा के बारे में भी बहुत कुछ बातें सुनाते नज़र आये. एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैं उस समाचार के लेखक श्रद्धेय जन को बताना चाहूँगा कि अगर राव साहब को इस भौतिक सत्ता का सुख लेना होता तो 1977 में जेल के भीतर से ही वो चुनाव लड़ कर लोक सभा पहुँच जाते और किसी महत्वपूर्ण विभाग के कैबिनेट स्तर के मंत्री हो जाते. जिस व्यक्ति ने आज से 35 वर्ष पूर्व भौतिक सत्ता को छोड़ कर पत्रकारिता का संघर्ष पथ चुना उसके मन में राज्यसभा जाने की लालसा शेष रह गई होगी, ऐसा कोई भी बुद्धिजीवी मानने को तैयार नहीं होगा.
समस्या दरअसल व्यक्तिगत सोच में नहीं, तंत्र की है. आज इस तन्त्र की व्यवस्था कुछ ऐसी हो गई है कि लोग संघर्ष, समर्पण और त्याग जैसे शब्दों के मायने भूल चुके हैं और अखबारों में जो संघर्ष प्रकाशित होता है उसकी अंतिम परिणिति सत्ता है. आज राजनैतिक दल ''जेल भरो आन्दोलन'' करते हैं तो जानते हैं कि कितने दिन में जेल से बाहर आ जायेंगे लेकिन जब के. विक्रम राव को इंदिरा गांधी ने बडौदा डायनामाईट काण्ड का आरोपी बना कर जेल में डाला था तब उनको क्या, आपातकाल के किसी भी राजनैतिक बंदी को नहीं पता था कि जेल से बाहर आयेंगे भी नहीं. और, सबसे बड़ी विडंबना देखिये कि तब के. विक्रम राव ने कह दिया था कि "तेरी जय तेरे नाम की जय, तेरी सुबह की जय तेरी शाम की जय" नहीं कहेंगे, जो सच है वो सच कहेंगे, तो उनको काल कोठरियों में डाल दिया गया और आज अगर यशवंत यही पंक्तिया कहते हैं तो उनको काल कोठरी में ठूंस दिया जाता है. लेकिन ये सब वो लोग क्या समझेंगे जिनका संघर्ष के प्रथम शब्द तक से कभी साबका न हुआ हो.
अपने ७ प्रस्तर के लेख से भद्र जन कहना क्या चाहते थे, ये तो मुझे समझ ही नहीं आया क्योंकि शुरुआत उन्होंने कार्यक्रम के आयोजक और संस्था की बुराई से की और अंत तक पहुँचते-२ वो आयोजकों की प्रशंसा करने लगे. इससे मुझ जैसे अल्प ज्ञानी को तो इतना ही समझ आया कि भद्र लेखक श्रमजीवी का अर्थ ढूंढते -२ श्रम संघ का मतलब भूल गए अन्यथा वो कदाचित यह न लिखते कि तमाम श्रमिक संघों ने इस कार्यक्रम में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की. साथ ही उनका 1986 से आई. एफ. डब्लू. जे. जुड़ा होना भी संदेहास्पद प्रतीत होता है क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे अवश्य ये जान गए होते कि आई. एफ. डब्लू. जे. का पंजीयन श्रम संघ की श्रेणी में है न कि किसी साधारण समिति की तरह और वे प्रेस कर्मचारी यूनियन के सदस्यों की कार्यक्रम में उपस्थिति पर प्रश्न नहीं करते.
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र को मजबूती देती है और मुझ अल्पज्ञानी की एक तुच्छ सलाह है कि अगर उर्जा प्रेम न बनी तो वासना बनेगी, उर्जा करूणा न बनी तो क्रोध बनेगी, उर्जा दान न बनी तो लोभ बनेगी, उर्जा ध्यान न बनी तो पांडित्य बनेगी जैसे दूध का उपयोग न किया तो उसमें खटास आने लगती है! ऐसे ही उर्जा को निरन्तर गति न दी तो, ठहरी उर्जा काम, क्रोध, लोभ, झूठ बन जाती है! उर्जा का ठहराव पाप है! उर्जा को प्रतिक्षण गति देना पुण्य है! अतः हे श्रद्धेय भद्र जन अपनी ऊर्जा को उचित दिशा दो, क्या पता आपकी ऊर्जा किसी के काम आ जाए.
क्रान्ति किशोर मिश्र
ब्यूरो प्रमुख
सुदर्शन टी .वी .न्यूज़
लखनऊ (उत्तर प्रदेश )
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