ज़ी न्यूज़ के एडीटरों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि दूसरों को सच्चाई और सफाई का पाठ पढ़ाने वाले स्वनामधन्य मेनस्ट्रीम मीडिया का अपना चरित्र कितना झूठा और मैला है। कोयला आवंटन की दलाली की खबरों पर व्यापार घरानों, मंत्रालयों, दलालों और मंत्रियों के दामन पर कालिख पोतने वाली मीडिया का खुद का चेहरा कितना काला है ये भी साफ दिख गया।
जिंदल एक ऐसा व्यापार घराना है जिसके संबंध कभी ज़ी न्यूज़ के मालिकों से बेहद करीबी थे, लेकिन उसी के नौकरों की क्या बिसात थी जो वे अपने मालिक के दोस्तों को ब्लैकमेल करने पहुंच गये। ऐसा तो नहीं हो सकता कि वर्षों से इसी जोड़-तोड़ में रह चुके सुधीर चौधरी और को इस बात का पता नहीं हो। तो क्या ये सबकुछ मालिकों की जानकारी के बगैर हुआ? अगर ऐसा होता तो अबतक दोनों मीडियाकर्मियों की विदाई हो चुकी होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ये साफ साबित करता है कि चैनल मालिक और पत्रकार चाय और चीनी की तरह घुले-मिले हैं।
बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि पत्रकारों की संस्था एडीटर्स गिल्ड के आला पदाधिकारी टिप्पणी से क्यों बच रहे हैं? इस एफआईआर की खबर पिछले तीन दिनों से हरेक चैनल के न्यूज़रुम और उनके मालिकों के ड्राइंगरुम में चर्चा का विषय बनी हुई है। देश के चोटी के संपादकों की संस्था एडीटर्स गिल्ड, जो पत्रकारिता के मूल्यों और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करता है, अपने कोषाध्यक्ष के खिलाफ़ कुछ भी कहने से क्यों हिंचक रहा है? गिल्ड अगर अपने पदाधिकारी के ख़िलाफ नहीं बोल सकता तो कम से कम बचाव में भी तो उतरे। आखिर ऐसी क्या मज़बूरी है जो उसे अपना रुख तक साफ नहीं करने दे रही है?
क्या जिंदल ग्रुप ने जो सुबूत पेश किये हैं वो इतने पुख्ता हैं कि एडीटरों पर आरोप साबित हो जाएंगे? होटल के सीसीटीवी कैमरे में ज़ाहिर तौर पर ऑडियो रिकॉर्डिंग स्टिंग कैमरे की तरह साफ नहीं होती। इसे साबित करने के लिए जिंदल के अधिकारियों ने फोन की रिकॉर्डिंग और कॉल रिकॉर्डों का सहारा लिया है। दोनों ही पत्रकारों ने अगर खुद फोन पर बात की होगी तो यकीनन कॉल के दौरान पैसे मांगने की कोशिश नहीं की होगी। ऐसे में आरोपों को कानूनी तौर पर साबित करना मुश्किल हो सकता है। चैनल के पत्रकार ये भी कह कर बच सकते हैं कि उन्होंने ऑफिशियल वर्जन यानि आधिकारिक बयान लेने के लिए अधिकारियों से बात-मुलाक़ात की होगी। लेकिन क्या सुधीर चौधरी, समीर आहलूवालिया और ज़ी न्यूज़ प्रबंधन कभी इस सवाल का जवाब देने की स्थिति में है कि जिंदल के अधिकारियों से मिलने (या फिर रिपोर्ट पर ऑफिशियल बाइट लेने) के लिए चैनल हेड को क्यों जाना पड़ा जबकि उनके रिपोर्टरों पर कथित तौर पर ग्रुप के अधिकारी पहले ही हमला कर चुके हैं?
क्या कोई भी बड़ा पत्रकार इसलिये कुछ कहने से बच रहा है कि उसके साथ भी कभी ऐसी ही स्थिति आ सकती है? सारी तस्वीर साफ होने
धीरज भारद्वाज
और एफआईआर दर्ज होने के बाद आखिर ये बड़े चेहरे खामोश क्यों है। देश का सबसे पुराना चैनल अभी भी अपने एडीटर के साथ क्यों खड़ा है। ये वो सवाल हैं जो पत्रकारिता से जुड़ा हर आदमी पूछता है लेकिन उससे बड़ा सवाल है कि आखिर इनका जवाब देगा कौन?
लेखक धीरज भारद्वाज कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं. न्यू मीडिया के सक्रिय जर्नलिस्ट हैं. कई न्यूज वेबसाइटों में संपादक का दायित्व निभाते हुए कई बड़ी खबरें इन्होंने ब्रेक की हैं. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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