मैं नेशनल दुनिया अखबार में उसके जन्म से जुड़ा था। इससे पहले मै नई दुनिया में था, जिसे बिकने के बाद आलोक मेहता साहब ने नेशनल दुनिया अखबार की शुरूआत करा कर सैकड़ों लोगों को बेरोजगार होने से बचा लिया था। नई दुनिया के नक्शे कदम पर नेशनल दुनिया भी चला और अपने पाठकों को इस बात की कमी नहीं खलने दी कि यह नया अखबार है। बल्कि अखबार ने और मजबूत पकड़ बनाते हुए पाठकों के दिल में अपनी जगह लगातार बनाता गया। मगर मैनेजमेंट की अंदरूनी विवादों के चलते धीरे-धीरे आलोक मेहता साहब के अलावा कई बड़े नाम के पत्रकारों को अखबार से अलविदा कहना पड़ा।
मुझे जहां तक आभास होता है कि अखबार के मालिक के इर्द-गिर्द चापलूस लोगों ने अपनी पैंठ बना ली थी। जिसके फलस्वरूप अखबार के विकास पर लगातार ब्रेक लगता गया। इस नए अखबार ने तो दिल्ली, नोएडा और गाजियाबाद में एक साल में उड़ान तेजी से भरी, लेकिन एक साल बाद इस अखबार का विनाश तेजी से होने लगा। अखबार में चापलूसों की इतनी बड़ी फौज इकट्ठा हो चुकी है कि मालिक को यह तय कर पाना अब मुश्किल हो गया है कि कौन उसका हितैषी है और कौन उसका दुश्मन है। लिहाजा यहा काम करने वालों की लगातार कमी होती गई और आराम फरमाने वाले लोग आगे बढ़ते रहे। मै भी इन चापलूसों की शिकार हूं।
आठ माह पहले यूनिट हेड बन कर मनोज दुबे जी आए। मनोज दुबे जी को विज्ञापन की जिम्मेदारी सौंपी गई। वह खुद को बड़ी तोप समझते हैं, मगर अपने दम पर विज्ञापन लाने में असमर्थ रहे। लिहाजा उन्होंने रिपोर्टरों को परेशान करना शुरू कर दिया। मुझे भी परेशान किया गया। उन्होंने कई बार धमकी दी कि यदि विज्ञापन नहीं दिलवाया तो मुझे नौकरी से निकाल दिया जाएगा। कई महीने मै भी उनकी धमकियां सुनता रहा। फिर एक दिन सुबह ही उनका फोन आया और धमकी देने लगे। मै उस दिन यह समझ गया कि अब इस अखबार में भला होने वाला नहीं है। इससे अच्छा है कि किसी कंपनी में जॉब कर लूं, वहां सकून से कटेगी। मैने इसकी शिकायत अपने ब्यूरो के जरिए वरिष्ठ अधिकारियों से कराई। मामला किसी तरह शांत हुआ और मै सकून से नौकरी करने लगा।
इसी दौरान एडिटोरियल में एक प्रेम मीणा करके इंचार्ज हैं। कभी वे मेरी खबरों की तारीफ करते नहीं थकते थे। लेकिन एक दिन वह मुझे मिलने आए और मुझे उन्होंने एक काम सौंपा। अखबार में अक्सर सीनियर द्वारा जुनियर को इस तरह के काम धौंस जमान के लिए सौंपे जाते हैं। सो मुझे भी दिया गया। वह काम नियम विरूद्ध था। जिसकी एवज में कोई उनसे पैसे की मांग कर रहा था। मैने काम करने से इनकार कर दिया। हालांकि मैने कहा कि आपकी मदद करने के लिए तैयार हूं। उन्हें बात बुरी लगी और उसी दिन से वह मुझसे नाराज रहने लगे। मेरी खबरों के साथ छेड़छाड़ करना, उन्हें हटा देना, काट छांट आदि तरह के कार्य करने में उन्हें मजा आने लगा। एक दिन मुझे इस बात की जानकारी ऑफिस से मिली। मैने उन्हें फोन किया और गिले शिकवे दूर करने की कोशिश की।
लेकिन वह जनाब तो मुझसे खार खाए बैठे थे। लिहाजा उन्होंने हैसियत आदि देखनी शुरू कर दी। वह सम्पादक से लेकर मालिकान तक अपनी चापलूसी के बल पर जड़ जमाए हुए थे। यह बात मुझे नहीं मालूम थी। यह तब पता चला जब उनसे बात होने के एक घंटे बाद ही मुझे आफिस से फोन आया। मेरे ब्यूरो द्वारा जानकारी ली गई। मैने सारी जानकारी दी। लेकिन पता चला कि उस प्रेम मीणा द्वारा सम्पादक से कहा गया कि मैने सम्पादक जी को गालियां दी है। जबकि मैने सम्पादक जी से मात्र एक बार मिला था और आज भी उनके लिए दिल में सम्मान है। सम्पादक जी ने चापलूसी का भरपूर इनाम देते हुए मीणा जी की बात को सत्य माना और मुझे इस संबंध में अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया गया।
सम्पादक जी ने साफ कर दिया कि यदि मै लिखित माफीनामा दूं तभी नौकरी पर रखा जा सकता है। मुझे तब एहसास हुआ कि चापलूसी में काफी दम होता है। हालांकि मै टूटा नहीं, नौकरी तो जानी ही थी। मेरे दोस्तों ने भी सलाह दी कि मै माफी मांग लू। लेकिन अधिकांश दोस्तों ने इस कार्रवाई को एकतरफा माना और माफी मांगना उचित नहीं माना। मै भी सोच लिया कि माफी नहीं मांगूगा और ऐसा ही किया। मैने नौकरी छोड़ दी। उसके अगले दिन ही पता चला कि नोएडा-गाजियाबाद एडिशन बंद हो गया है और दिल्ली एनसीआर एडिशन हो गया है। मै सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि चापलूसी वह दीपक होता है, जो बगैर दर्द दिए किसी संस्था को खोखला कर देता है।
मैं नेशनल दुनिया के मालिकान से यही कहना चाहता हूं कि बड़ी उम्मीदों के साथ उन्होंने यह अखबार शुरू किया था। लेकिन अखबार को आगे बढ़ाने वालों का सम्मान नहीं किया। जब तक मेहनत करने वालों का सम्मान नहीं किया जाएगा, कोई संस्था आगे नहीं बढ़ सकती है और नेशनल दुनिया की तरह ही कर्मचारियों को तीन से चार महीने में सैलरी मिलेगी और कर्मचारी खुब ब खुद दूसरे संस्थानों में जाब तलाश लेंगे।
सुरेन्द्र राम। संपर्कः [email protected]