जनसत्ता से जुड़े रहे और आजकल टोटल टीवी में जमे वरिष्ठ पत्रकार उमेश जोशी ने ब्लागिंग में उतरते ही जो ताबड़तोड़ बैटिंग शुरू की है, वो क्या गुल खिलाएगी, ये तो भविष्य बताएगा लेकिन इतना कहा जा सकता है कि उनकी बेबाकबयानी अचंभित करने वाली है। उनके ब्लाग पर अभी तीन ही पोस्टें हैं लेकिन इन तीन पोस्टों के जरिए उमेश जोशी जी के अंदाज-ए-बयां को समझा जा सकता है। जनसत्ता के दिनों को याद करते हुए उमेश ने न सिर्फ वरिष्ठ पत्रकार और अपने तत्कालीन संपादक प्रभाष जोशी पर निशाना साधा है बल्कि भविष्य में कई और लोगों की पोल-पट्टी खोलने का इरादा जता दिया है। उमेश को अभिव्यक्ति के खतरे पता हैं, तभी तो वो अपनी पहली और शुरुआती पोस्ट में कहते हैं- ‘बहुत बड़ी दुविधा होती है जब खुद के बारे में कुछ लिखना पड़ता है।
कहीं ज्यादा हो गया तो हजार तरह के कमेंट सुनने-पढ़ने को मिलेंगे। ऊंची छोड़ दी, बड़बोला हो गया है, औकात से बाहर बोलने लगा है आदि-आदि कमेंट अनादि काल तक आलोचकों के तरकश से निकलते रहेंगे। आप खुद को कोसेंगे कि क्या पड़ी थी ब्लॉग शुरू करने की? अब तक बिना ब्लॉग के भी जिंदगी अच्छी-भली चल रही थी। कहीं उलट हो गया और आलोचकों के व्यंगवाणों से आहत होने के डर से अति विनम्रता की चादर ओढ़कर आप सबके सामने आ गया तो गैर-आलोचक (वो लोग, जो खानदानी परंपराओं का निर्वाह करने की विवशता में आलोचना करते हैं लेकिन खुर्राट आलोचक की विधिवत उपाधि नहीं मिली है) उस चादर को, जो मैली सी नहीं है लेकिन नाजुक-सी है, फाड़कर तार-तार कर देंगे। इन दो किनारों के बीच खड़ा हूं। सच बोलने की आदत और दोनों किनारों पर बैठे हुए डर के कारण खुद को संतुलित बनाकर ही कहूंगा। फिर भी कुछ भूल-चूक रह जाए तो माफी भी मांग लूंगा।’
चलिए, उमेश जी के ब्लाग की एक पोस्ट यहां पढ़ते हैं-
जनसत्ता के “खाकी निकरवालों” को मैं “लाल” उमेश चुभता रहा
अक्खड़ स्वभाव और अखाड़ेबाज संपादकों के कारण जनसत्ता में पूरी पारी नहीं खेल पाया। अपनी सबसे बड़ी कमी एक और भी थी। मैं खाकी निकर पहनकर दफ्तर नहीं जाता था। खाकी निकरवालों के लिए सब माफ था। अक्खड़ स्वभाव भी बर्दाश्त हो जाता था। लेकिन मेरे “ लाल” रंग को देखकर दो संपादकों तो हर वक्त बिदके रहे, मरखने सांड़ की तरह।
“बेचारे” निकाल तो सकते नहीं थे, तरक्की देना जरूर उनके हाथ में था। उसमें खुलकर बेशर्मी का खेल खेला गया। सारे कायदे –कानून को ताक पर रखकर खाकी निकरवालों को तरक्की देकर हमें पीछे छोड़ दिया गया और संकेत दिया गया कि ऐसा ही होगा; अपमानित होकर रहना चाहो तो रह सकते हो। उन दो संपादकों में से एक का रिकार्ड तो यही रहा है कि, जहां भी गए हैं अपना गुट तैयार किया है। मुझे उन संस्थानों के मालिकों से हमदर्दी रही है। वो मालिक भी क्या करें, उन्हें मक्कारी के जाल में फंसा कर ऐसा इंप्रेशन दिया जाता है कि उनसे (संपादक जी) भला “व्यक्ति” और “योग्य” संपादक कोई और हो ही नहीं सकता। उनकी योग्यता और प्रतिभा किन क्षेत्रों में है, इसका मैं संकेत दे ही चुका हूं। धीरे-धीरे कई चौखट घिस चुके हैं। जहां जाते हैं, जल्द ही उनकी असलियत मालिक और मातहत समझ जाते हैं और “नागरिक अभिनंदन” कर विदा कर दिए जाते हैं। इन स्थितियों को मैं पत्रकारिता का साइलेंट टेररिज्म मानता हूं।
जनसत्ता के एक संपादक बनवारी जी का जिक्र करना जरूर चाहूंगा, जिनमें सहीं मायने में संपादक की गरिमा थी। सरल, सहज और संकोची स्वभाव; सहकर्मियों के हमदर्द। दफ्तर में वो अकेले सीनियर पत्रकार थे, जिनका हर कोई इज्जत करता था। वो भी प्रबंधकीय निक्कमेपन से दुखी होकर जनसत्ता छोड़ गए। प्रबंधकों को ‘सत्यानाशी” संपादक की जरूरत थी और बनवारी जी में वो गुण नहीं थे। इसिलए उनके साथ भी वही किया गया, जो मेरे साथ हुआ।
प्रभाष जी की प्रतिभा का मैं कायल रहा हूं। मैं ही क्यों, जनसत्ता का हर पाठक और हर कर्मचारी प्रभाष जी को बेजोड़ संपादक मानता है। लेकिन कई बार वो संपादक कम और मालिक ज्यादा दिखते रहे। उनकी भाषा से अहसास होता था कि रामनाथ गोयनका की आत्मा उनमें प्रवेश कर गई है। एक दिन उन्होंने मुझे लिफाफे में बंद कर चंद लाइनों का पत्र भिजवाया था, जो आज भी मैंने संभाल कर रखा है। उसमें प्रभाष जी का दंभ, क्रूरता और राग-द्वेष कूट-कूटकर भरी हुई है। शायद रामनाथ गोयनका ने भी कभी वो भाषा इस्तेमाल नहीं की होगी। वो पत्र देखकर बनवारी जी बेहद आहत हुए थे।
जनसत्ता में मेरे कार्यकाल के अंतिम संपादक ने अपने पूर्ववर्ती संपादकों की परंपरा को बखूबी निर्वहन किया। उन्हे “परपीड़ा” में जो सुख मिलता है, वह शब्दों में बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। अंतत: मैं योग्य, निर्भीक, प्रतिभाशाली, मूर्धन्य और जनसत्ता ब्रांड के संपादकों के सामने नहीं टिक पाया और हारे योद्धा की तरह श्वेत ध्वज लेकर 4 मई 2004 को विशाल एक्सप्रेस बिल्डिंग से बाहर निकल आया। वीआरएस के पेपर साइन कर निकला था। फिर भी उस रात को ड्यूटी पर गया। उस रात मुझे एडिशन निकालना था। नाता तो दिन में ही टूट गया था लेकिन प्रोफेशनल जिम्मेदारी सेभागना फितरत में नहीं है। इसलिए एडिशन छोड़कर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुआ।
आगे क्या करना है; इसकी कोई योजना नहीं थी। कुछ दिन दिल्ली में बिताकर गांव चला गया था। खेती-बाड़ी करने का मूड था। पहले खेती-किसानी कर चुका हूं। खेतों में हल चलाया है, फसलों की बिजाई-कटाई अपने हाथों से की है। ठेठ किसान रहा हूं। फिर से किसानी करने में परहेज भी नहीं है। लेकिन टोटल टीवी के डायरेक्टर विनोद मेहता का संदेशा आया, जुड़ने के लिए। एक बार फिर कमर कस कर 22 अक्तूबर 2004 को पत्रकारिता से जुड़ गया। तब से कलम के बजाए कंठ की पत्रकारिता कर रहा हूं। कलम कभी-कभार।
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