आम चुनाव में नेताओं और पार्टियों ने 900 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए। इसमें से अखबार मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को कितने करोड़ मिले, यह किसी को नहीं पता। पिछले कई चुनावों से चल रहे इस खेल पर छह मई को अमेरिका के ‘वॉल स्ट्रीट’ ने खुलकर लिखा कि भारत में उम्मीदवारों से पैसे लेकर चार अखबारों ने खबर छापने का एक पैकेज शुरू किया है। उम्मीदवार के हवाले से ‘वाल स्ट्रीट’ ने बाकायदा रेट भी बताए। वहीं वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने ‘कागद कारे’ के माध्यम से दो अखबारों के बाकायदा रेट कार्ड भी बताए और यह भी लिखा कि उनके पास रेट कार्ड मौजूद हैं। मीडिया न्यूज पोर्टल भड़ास4मीडिया पर प्रभाष जोशी के वे लेख भी पोस्ट किए गए और कुछ पत्रकारों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। एनडीटीवी ने अपने एक कार्यक्रम में भी इस सवाल को उठाया और कुछ पत्रकारों को बुलाकार बहस भी करायी। लेकिन अखबारों के इस पतन को मुख्य धारा की पत्रकारिता में मुद्दा नहीं बनाया गया है और इस पर अभी कोई राष्ट्रीय बहस नहीं छिड़ी है। पैसे लेकर चुनाव की खबर छापने में वे भी अखबार शामिल हैं जिनके संपादक लेखक हैं।
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मनाक घटना है क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। करीब दो साल पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के बाद जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने प्रेस कांफ्रेंस कर उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों की शिकायत की थी कि उन्होंने चुनाव के दौरान उम्मीदवारों से नकद पैसे लेकर उनके पक्ष में खबरें छापीं। हालांकि दबी जुबान से इस तरह की शिकायतें यदा-कदा मीडिया के भीतर भी सुनाई पड़ती थीं पर सार्वजनिक रूप से किसी का यह पहला बयान था। कुछेक अखबारों ने इसकी खबरें भी छापीं पर यह खबर प्रमुखता से नहीं छपी और यह कोई मुद्दा नहीं बना।
दरअसल, जब लोकतंत्र के तीन अन्य स्तंभों के चेहरे पर कालिख पुत रही हो तो चौथे चेहरे पर भी एक दिन कालिख पुतनी ही थी। आर्थिक उदारीकरण के दौर में पत्रकारिता जिस तरह हल्की, अगंभीर, फूहड़ और विचारशून्य तथा विकृत होती जा रही थी, उसकी स्वाभाविक परिणति यही होनी थी। पत्रकारिता को भी खुले बाजार में एक दिन बिकना था। जब इलैक्ट्रॉनिक चैलन हर खबर को बिकाऊ बनाकर हाट में फेरीवाले की तरह हांक लगाकर बेच रहे हों तो उसकी निर्लज्जता की सीमा यहां तक पहुंचनी ही थी। प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों के मन में भले ही गहरी टीस हो लेकिन आमतौर पर संपादकों, पत्रकारों के मन में इसको लेकर कोई ग्लानि बोध नहीं है। संभव है कुछ पत्रकारों के मन में भी हो, पर पत्रकार संगठनों को भी इसकी चिंता नहीं है और अगर किसी एकाध संगठन के मन में टीस हो तो उसकी आवाज नक्कार खाने में तूती की तरह है। जिसे कोई सुनने वाला नहीं है। पूंजी और बाजार के खेल में पत्रकारिता इनती अधिक उन्मुक्त तथा उच्छृंखल हो गई कि उस पर कोई अंकुश ही नहीं रहा। हालांकि यह भी सच है कि अभी भी ज्यादातर प्रकाशन-प्रसारण गृह पैसे लेकर चुनावी खबरें नहीं दे रहे हैं पर यह सच है कि विज्ञापन और टीआरपी उन्हें नियंत्रित करता है।
वे बाजार के हाथों गुलाम हो गए हैं। लेकिन क्या इसके लिए केवल मीडिया हाउस को दोषी ठहराया जा सकता है? आखिर इस तरह के भ्रष्टाचार की जननी कौन है? आखिर कौन उम्मीदवार इस तरह की खबरें छपवा रहा है। पूर्व चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने भी स्वीकार किया है कि 2007 और 2008 के चुनाव में उन्हें इस तरह की शिकायतें मिली थीं, लेकिन प्रश्न है कि चुनाव आयोग ने इस दिशा में क्या कार्रवाई की। वैसे चुनाव आयोग खुद नखदंत विहीन संस्था है। वह कई मौकों पर अपनी असमर्थता जता चुका है।
वैसे इस देश में केन्द्रीय जांच ब्यूरो और आयकर विभाग जैसी सरकारी संस्थाएं भी हैं जो इस संबंध में जांच पड़ताल कर कार्रवाई कर सकती हैं। पर सत्ता पक्ष को इसमें दिलचस्पी नहीं है। सत्ता पक्ष इस मीडिया का इस्तेमाल अपने पक्ष में करना चाहता है, इसलिए वह हमें भ्रष्ट भी कर रहा है। चैनलों और समाचारपत्रों में ठेके की नौकरियां शुरू हो गई हैं। वहां श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, पर सरकार चुपचाप तमाशा देख रही है। वह खुद चाहती है कि पत्रकार असुरक्षित रहें ताकि वे सत्ता के खिलाफ अपनी कलम नहीं चला सकें। उन्हें नौकरी का भय हमेशा सताता रहे। वे अपना साहस और आत्मविश्वास खो दें। वे भीरू हो जाएं। अपना पैनापन खो दें। सत्ता पक्ष इस मीडिया का हर पल अपने लिए इस्तेमाल कर रहा है। चुनाव पूर्व करोड़ों रुपए के विज्ञापन देकर उसने मीडिया हाउस को उपकृत किया। डीएवीपी के रेट बढ़कार उन्हें प्रभावित करने की कोशिश की। इतना ही नहीं अखबारों के मालिकों ने प्रधानमंत्री से मिलकर आर्थिक मंदी के दौर में राहत पैकेज देने की मांग की। लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मालिकों से पलटकर यह नहीं पूछा कि आप अपने संस्थान से पत्रकारों को ठेके पर क्यों रख रहे हैं, उन्हें नौकरी से क्यों हटा रहे हैं। मंदी के नाम पर मीडिया संस्थानों में कई लोग निकाले गए पर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री यह बार-बार कहते रहे कि देश में मंदी का कोई असर नहीं है। चैनलों और अखबारों से निकाले गए इन पत्रकारों के लिए समाज के किसी कोने से सहानुभूति की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। कोई अखबार यह खबरें भी नहीं छापना चाहता। हिन्दुस्तान टाइम्स के सैकड़ों कर्मचारी महीनों तक धरना देते रहे, कोई अखबार यह खबर छापने को तैयार नहीं हुआ। अलबता सरकार ने अखबार की मालकिन को पद्मश्री प्रदान किया। एक वामपंथी नेता के रिश्तेदार का प्रगतिशील चैनल भी जब कुछ लोगों को निकाल देता है तो वामपंथी दल उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते।
तकलीफ तो इस बात की है कि पत्रकार भी अपनी लड़ाई नहीं लड़ते जो खुद भ्रष्टाचार और अन्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं। यूएनआई के कर्मचारी जब दो साल तक अपनी लड़ाई लड़ते रहे तो व्यापक मीडिया समाज को इससे कोई हमदर्दी नहीं रही। प्रतिस्पर्द्धा के नाम पर खबरों की परिभाषा और गुणवत्ता जिस तरह बदली है, वह अत्यंत चिंता का विषय है। मीडिया के इस बदलाव ने जिस तरह की संस्कृति पैदा की है और हमारी कल्पनाशीलता पर जिस तरह का प्रहार किया हमारी भाषा को जिस तरह भ्रष्ट किया तथा हमारी संवेदना को जिस तरह भोथरा बनाया है इसका अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि यह बहुत बड़ी राष्ट्रीय क्षति है जिसकी पूर्ति नहीं की जा सकती। समाज का चेहरा जिस तरह बदल गया है, उससे मीडिया भी प्रभावित हुआ और वह समाज को भी प्रभावित कर रहा है।
दरअसल, राष्ट्र निर्माण में कभी मीडिया की भूमिका हुआ करती थी, पर आज तो बाजार के निर्माण में वह अपनी भूमिका निभा रहा है। ऐसे में उसके लिए कोई मूल्य नहीं बचे, कहीं कोई नैतिकता नहीं रही। कारपोरेट मीडिया से ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। शायद इसलिए विस्थापन, पर्यावरण, स्वास्थ्य, पानी, गरीबी, किसानों की आत्महत्या उसके एजेंडे में नहीं है। अगर ऐसा होता तो भोपाल में पीने के पानी के विवाद के कारण एक परिवार के तीन लोगों की हत्या की खबर लीड खबर होती। पर खेल, फिल्म, और राजनीति के नशे में डूबे इस मीडिया में इतनी संवेदना नहीं बची कि वह इन सवालों को प्रमुखता से उठाए। अगर किसी घटना में सनसनी, विवाद, चटखारापन हो तो उनके लिए खबर है। अन्यथा उसके लिए कोई खबर नहीं है। यही कारण है कि जब राज्यसभा में कृषि मंत्री ने किसानों की आत्महत्या का पहली बार ब्यौरा देकर बताया कि किस तरह दस वर्षो± में एक लाख से अिधक किसानों ने आत्महत्या की तो किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने यह खबर नहीं छापी। दरअसल, मीडिया सत्ता विमर्श के जाल में गहरा फंसा है। वह पावर तथा ग्लैमर के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है।
चुनाव के नतीजे आने पर कांग्रेस के मुख्यालय पर 37 ओवी वैन तैनात हो जाती हैं। वरुण गांधी को कवरेज दिलाकर उसे चुनाव में विजयी बनाने में भी मीडिया अपनी भूमिका निभाता है। परिवारवाद, भ्रष्टाचार, बाहुबल से लैस नेताओं को प्रमुखता यही मीडिया दे रही है। लेकिन लेखकों, कलाकारों तथा समाज के ईमानदार लोगों के मरने-जीने की खबरों से भी वंचित है। पुस्तकों में हमारी कोई रुचि नहीं। शायद इसलिए ‘वॉल स्ट्रीट’ में पैसे लेकर खबरें छापने संबंधी रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो राष्ट्र की इस बदनामी से ‘राष्ट्रवादी’ और ‘राष्ट्रभक्त’ लोग भी नहीं जागे। संसद के पतन की तरह मीडिया का यह पतन भी स्वाभाविक है। जिस तरह ईमानदार लोगों को राजनीति में भीतर ही भीतर लड़ना पड़ रहा है, उसी तरह मीडिया के भीतर भी एक लड़ाई मीडिया के लोगों को ही लड़नी होगी। तब शायद पत्रकारिता के चेहरे पर लगी कालिख थोड़ी मिट सके।
यह आलेख साप्ताहिक अखबार ‘द संडे पोस्ट’ में प्रकाशित हो चुका है। इसके लेखक विमल कुमार सुप्रसिद्ध कवि, कहानीकार और पत्रकार हैं। वह संवाद समिति ‘यूनीवार्ता’ में विशेष संवाददाता हैं। उनकी पुस्तक ‘चोर पुराण’ चर्चित रही। दो कविता संग्रह ‘सपने में एक औरत से बातचीत’ और ‘पानी का दुखड़ा’ भी आ चुके हैं। विमल से संपर्क [email protected] और 9868400416 के जरिए किया जा सकता है।