दिल्ली के एक बड़े अखबार का मुख्य पेज देखकर तो एक दिन मैं चौंक ही गया। बिजली परियोजना से जुड़ी यह खबर पांच-छह लाइन की थीं। खबर में दो-दो रिपोर्टर का नाम था। इसी तरह राजस्थान के एक अखबार में महज दस लाइन की खबर में तीन-तीन रिपोर्टर का नाम लिखा हुआ था। अब भई कोई यह तो बताए कि चार-पांच लाइन वाली खबर में दो और दस लाइन की खबर में तीन रिपोर्टर ने किया क्या था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि एक रिपोर्टर बीट में गया हो, दूसरे ने फोन किया हो और तीसरे ने खबर कम्प्यूटर पर कंपोज की हो? अब सवाल उठता है कि बायलाइन (रिपोर्टर का नाम) के लिए क्या कोई ‘संविधान’ है या नहीं? यह सवाल मुझसे कई पत्रकार कर चुके हैं, लेकिन मैं हर बार यह कहकर उनकी बात टाल देता हूं कि पत्रकारों को और मिलता क्या है, उनके पास ले देकर एक बायलाइन ही तो है। पिछले दिनों एक पत्रकार साथी ने भी मुझसे ई-मेल के जरिए यह सवाल पूछा था। कभी-कभी तो ऐसी खबरें भी बायलाइन के साथ पढऩे को मिल जाती हैं, जिनको देखकर हंसी है कि रुकती ही नहीं। पहले तो वह खबर ही रिपोर्टर ने क्यों लिखी और दूसरा लिख भी दी तो बायलाइन वाली इसमें बात क्या है। बायलाइन की बढ़ती भूख के कारण हमारे कुछ पत्रकार साथी एजेंसी की खबरें भी उठाने से नहीं चूक रहे हैं।
एजेंसी की वेबसाइट खोली, खबर उठाई और हाथ-पैर तोड़े और फिर जोड़े, और लो तैयार हो गई बायलाइन खबर। अब ताजा उदाहरण स्वाइनफ्लू का ही लीजिए। दिल्ली के ही कुछ अखबारों ने इस खबर को रिपोर्टर के नाम के साथ परोसा तो तो कुछ ने ‘मेट्रो रिपोर्टर, नगर संवाददाता, हमारे संवाददाता लगाकर। अगर उन खबरों को गौर से पढ़ा जाए तो भाषा के अलावा कोई फर्क नजर नहीं आता है। आंकड़े और अधिकारियों से बातचीत तो एक ही है। तो क्या बायलाइन के लिए भी कोई संविधान बनाए जाने की जरुरत है?