पत्रकारिता मिशन नहीं, माल बनाने की मशीन : तीन राज्यों के चुनाव नतीजे से पता चल गया कि कौन कहां कितने पानी में है। यहां कौन से मेरा तात्पर्य सियासी दलों के साथ मीडिया घरानों से भी है। कारण, इन चुनावों ने मीडिया की चाल-ढाल को बेनकाब कर दिया। चुनाव से पहले नेता गले फाड़-फाड़ कर जीत का दावा कर रहे थे, उनके सुर में सुर मिलाने वालों में मीडिया वाले भी पीछे न थे। यह सब संभव हो रहा था दान-दक्षिणा के बूते। चढ़ावे के बगैर वैसे भी आज के दौर में कोई क्यों किसी की तारीफों के पुल बांधेगा। खासकर मीडिया में तो यह अब परंपरा सी बन गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो पूरा तालाब ही गंदा हो गया है। तभी तो पत्रकार अखिलेश अखिल पत्रकारिता को वेश्या व पत्रकारों को दलाल बताने को मजबूर होते हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी ‘पत्रकारिता कैसे की जाए’ के सवाल के साथ पत्रकारों को एकजुट होने की जरूरत जताते हैं।
दरअसल, पत्रकारिता आज मिशन नहीं बल्कि माल बनाने की मशीन में तब्दील हो गई है। और इसके जिम्मेदार वे लोग हैं, जिनके लिए येन-केन-प्रकारेन ऊंचाई पर पहुंचना ही एकमात्र मकसद रह गया है। यह ऊंचाई लोकप्रियता भी है, अर्थ की अंधी दौड़ भी और दलाली के दलदल का सिरमौर बनने की भी। तभी आए दिन मीडिया की अस्मत लुट रही है, अपनों के ही हाथ। कहें तो लुटते-लुटते उसका पूरा चरित्र ही बदलने लगा है। ऐसा लगने लगा है जैसे मीडिया धौंस जमाने का माध्यम और झूठ की हवा बहाने का जरिया भर बन कर रह गई है। भोग-विलास का सामान जुटाने की जमीन। हाल के दिनों में कई ऐसे वाकये पेश आए हैं, जिसने यह साबित किया है कि मीडिया अब माल की पुजारन बन गई है। ऐसे में गंभीर पत्रकारों की इस दुर्दशा पर व्यक्त पीड़ा अंदर तक कचोटती है।
अभी हाल ही में हरियाणा विधानसभा के चुनाव की ही बात करें, तो पत्रकारों और मीडिया घरानों का नंगापन खुल कर सामने आया है। चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ-साथ मीडिया भी दावे कर रही थी कि प्रदेश में कांग्रेस की लहर चल रही है। जोरदार लहर जिसमें हुड्डा के विरोधी उड़ जाएंगे। लेकिन, नतीजों के बाद ऐसे दावे कर रहे लोगों और दलाली का परचम उठाने वाले पत्रकारों की नीयत पर ढकी चादर ही उड़ती नजर आई। स्पष्ट है कि जब सैकड़ों करोड़ रुपए मीडिया मैनेज करने के लिए खर्च किए जाएंगे, तो निष्ठा तेल लेने जाएगी ही। बताया जाता है कि मीडिया में हुड्डा सरकार की लहर बहाने के लिए 300 करोड़ रुपए बहाए गए। अब ऐसे में कांग्रेस के दावों के साथ बहने में कोई क्यों पीछे रहता? हर किसी ने इसमें डुबकी लगाई। क्या पक्ष वाले, क्या विरोधी। पत्रकारिता में किसी अमुक सियासी दल की विचारधारा को समर्थन करने वाले पत्रकार या मीडिया घराने की बात तो सुनी थी, लेकिन अब तो सारी धाराएं ही पैसे के आगे कबूल है। पत्रकारिता की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है। बिना पेंदी का लोटा हो चुके ऐसे मीडिया घरानों और पत्रकारों से कौन से मिशन की उम्मीद की जा सकती है। बिक वे रहे हैं, लेकिन बाजार में पत्रकारिता के कपड़े उतरवा रहे हैं।
दुख इस बात से और भी होता है कि ऐसे बहकावे के दौर में भी खुद को बचाए रखे पत्रकारों को ‘खत्म’ पत्रकार या ‘दो कौड़िया’ कह कर सम्मानित किया जाता है। यानी जिसने सारी शर्म-हया बेच दी, वह बड़ा पत्रकार हो गया और जो आर्थिक संकट झेलते हुए भी पत्रकारिता के सिद्धांतों के साथ चल रहा हो, वह ‘टुटपुंजिया’ और ‘आईटीओ’ छाप पत्रकार है।
भई, स्वयंभू बड़े पत्रकारों की फौज! कुछ तो तो शर्म कीजिए। आप गंदे होकर भी खुद को सबसे ज्यादा काबिल और पाक साफ समझते हैं, तो समझिए। कौन क्या उखाड़ रहा है आपकी। लेकिन, सच्चों को गाली तो न दें। आप जो लहर बहा रहे हैं, मुबारक हो आपको। हमें उस लहर का हिस्सा बनने को मजबूर न करें। हम हरियाणा में कांग्रेस की लहर नहीं बहा सकते, जो आप चुनावों से पहले बहा रहे थे। हमने तो तब भी यही कहा ‘जोश है, होश नहीं’। यानी उत्साह में कांग्रेस ने जरूर समय पूर्व चुनाव करने का फैसला किया है, लेकिन उसकी हालत इतनी अच्छी नहीं जितना वह समझ रही है।
हो सकता है भड़वागीरी (अखिलेश अखिल का तकिया कलाम) करने वाले पत्रकार इसमें भी यह तर्क दें कि तुम्हें मलाई ऑफर नहीं हुई, इसलिए भड़ास निकाल रहे हो। पर यहां यह भी साफ कर दूं कि हम जैसों को भी मौके उपलब्ध कराए जाते हैं, पर हमारी आत्मा इसे स्वीकार करने का साहस नहीं पैदा कर पाती। हो सकता है हम किसी और लहर में बह रहे हों। तुम्हारी लहर तुम जानो।