एक पत्रकार की डायरी के कुछ पन्ने : बेंत की कुर्सी से झूलते ललमुनिया थैले में अद्धे की बोतल और आठ-दस बीड़ा मगही पान! : तीन महीने से तनख्वाह नहीं, हवा पी कर कितने दिन काम चलेगा, आज चांप देते हैं ससुरे को : वह सन् सत्तर का दशक था। तब भी रोजगार की उतनी ही तलब थी, जितनी आज। यह भी कह सकते हैं कि पत्रकार जिंदगी भर नौकरी ही खोजता रहता है। मीडिया जगत में जितनी आज भागमभाग है, पहले इससे कम न थी। फर्क सिर्फ इतना लगता है कि उस जमाने में यह पेशा मिशनरी था। अपने चारो तरफ से जूझते हुए झटकेदार विचारों, संगठनों के साथ हो लेने की उद्दाम ललक। ऐसे में सिर्फ पत्रकारिता से पटरी बैठा लेने पर मन-मिजाज के मुताबिक आगे बढ़ लेने के लिए एक अदद गुंजायश दिखती थी। अबकी तरह नहीं कि जहां चार पैसा ज्यादा मिले, लपक कर पहुंच जाओ खबर के नाम पर लीद काछने के लिए। तभी तो प्रेस लिखे वाहनों की वकत पुलिसिया जीप से ज्यादा होती थी। तब वाहन थे भी कितने के पास! एक अदद साइकिल की सवारी या पांव-पांव फर्राटा मारते पहुंच लिए अखबार के दफ्तर। उन दिनों आजमगढ़ से एक अखबार निकलता था ‘देवल दैनिक’।
संपादक थे सदानंद। कोई शतानंद कहता। फक्कड़ मिजाज, झक्की और भयानक गुस्सैल। हर समय आंखों से पलीते टपकते थे। जुबान सटाकेदार, टूट पड़ने जैसी। कविताएं भी खूब लिखते थे। पूरे जिले में शोहरत थी उनकी। मंचों पर भी जाते थे। वहां भी भरपूर खड़जंजालगिरी। खड़खड़ा कर बरसती थीं उनकी कविताएं…… अपनी बस्ती, अपना घर, अपने हाथों तितर-बितर। एक बार ऐसे ही काव्य-मंच पर उन्होंने ‘हल्दीघाटी’ के रचयिता पंडित श्याम नारायण पांडेय से उनके महाकाव्य की पंक्तियों पर ऐसा लाजवाब सवाल कर डाला था कि पंडित जी हक्के-बक्के। मंच की अध्यक्षता कर रहे किसी महाकवि को सवाल नागवार गुजरना ही था। जिस पर शतानंद जी ने सवाल दागा था, ‘हल्दीघाटी’ की वे पंक्तियां थी……
निर्बल बकरों से बाघ लड़े
भिड़ गए सिंह मृगछौनों से
हाथी से हाथी जूझ पड़े
पैदल बिछ गए बिछौनों-से।
बात पते की कि नायक या हीरो वही होता है, जो अपने से बलशाली को पछाड़ दे। वह नहीं, जो कमजोरों पर हमला करे। सवाल था कि निर्बल बकरों से लड़ने वाला बाघ नायक कैसे हो सकता है? यही महाकवि पांडेय की गंभीर व्याकरणीय गलती थी। बाघ को यहां राणाप्रताप के रूप में दर्शाया गया था। मुझे आज भी याद है, वह सवाल सुनकर गुस्से से लाल हो उठे पंडित जी सिर्फ इतना भर बुदबुदाकर खामोश हो गए थे…’बहुत बदमाश है शतानंद’।
उन्हीं शतानंद की शागिर्दी में ‘देवल दैनिक’ के छाया तले उन दिनों आजमगढ़ की पत्रकारिता ने खूब तेवर दिखाए थे। उनके सिखाए-पढ़ाए पत्रकारों ने जिले से बाहर निकल कर वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा, दिल्ली, मेरठ, भोपाल, मुंबई तक मीडिया की राह पकड़ी थी। देवल दैनिक में उन दिनों नौसिखिए (ट्रेनीज) पत्रकारों को चार-छह महीने चप्पल घिसट लेने के बाद अधिक से अधिक दो-ढाई रुपये बमुश्किल मिल पाते थे। मैं भी बेरोजगार था। थोड़ा-मोड़ा कविताएं लिख मारने का शौक था। इसी नाते मंच से शतानंद जी से जान-पहचान हो चली थी। उन्हें मेरी बेरोजगारी का पता चला तो एक दिन अचानक बुलवा लिया ‘देवल दैनिक’ के दफ्तर। सिविल लाइन, आजमगढ़ रोडवेज के ठीक बगल में। वहीं पीठ पीछे दूसरी ओर है दीवानी कचहरी परिसर। …तो उस दिन जैसे ही देवल दैनिक परिसर में दाखिल हुआ, दरबान ने रोक लिया।
-किससे मिलना है?
–शतानंद जी से।
-कौन शतानंद?
–संपादक जी।
-अच्छा-अच्छा, खिलाड़ी बाबा से मिलना है।
–खिलाड़ी बाबा, ये कौन है?
हीही-हीही करते हुए दरबान ने खैनी होठ में दबाई, बोला- वो सामने बैठे हैं, जाओ मिल लो।
शतानंद उर्फ खिलाड़ी बाबा। उन्हें दफ्तर के लोग इसी नाम से जानते थे। न संपादक जी, न शतानंद जी। सिर्फ खिलाड़ी बाबा। वाकई खिलाड़ी बाबा थे शतानंद जी। खेल तरह-तरह के। मोनो कंपोजिंग का जमाना था। आज की तरह कट-पिस की कोई गुंजायश नहीं, फिर भी खिलाड़ी बाबा अखबार में रोजाना कुछ-न-कुछ ऐसे प्रयोग कर ही गुजरते, जिससे अगले दिन जिले भर में चांव-चांव हो। खबर से गुस्साए-तमतमाए दो-चार लोग रोजाना अखाबार के गेट पर आ धमकते। इसीलिए अखबार मालिक की मर्जी बगैर अक्खड़ देहाती दरबान तैनात कर लिया था खिलाड़ी बाबा ने। पहले ही दिन की मुलाकात, जैसा कि हुआ, खिलाड़ी बाबा का वैसा रूप पहले मैंने कभी नहीं देखा था।
बेंत की कुर्सी से झूलते ललमुनिया थैले में अद्धे की बोतल और आठ-दस बीड़ा मगही पान! कंपोजिटर सुमंगल से पता चला था कि यही रुटीन है उनका। सुबह ठीक दस बजे अपनी कुर्सी पर बैठते ही एक झटके में नीड आधा अद्धा सूत जाते हैं। आंखें लाल-लाल। फिर झोले से एक जोड़ा पान निकाला और पेज-दर-पेज खबरों की दुनिया में दौड़ पड़ते। गिना-चुना स्टॉफ। सो, अपना हाथ, जगन्नाथ। खिलाड़ी बाबा लिखते-लिखते थक जाते, झपकियां भी मार लेते बीच-बीच में। बाकी अद्धा शाम को दफ्तर छोड़ने से पहले। दिन भर सारा दफ्तर थरथर कांपता रहता। क्या मजाल कि एक पत्ता भी खड़क जाए बिना बाबा की मर्जी के। दुर्वासा ऋषि की तरह बराबर भृगुटियां चढ़ी हुईं। बात-बात पर गुर्राना, खिखियाना आदत में शुमार था।
पहले दिन जब मैं पहुंचा, नजारा और भयावह था। कुल चार-छह की संख्या वाले सारे कर्मचारी खिलाड़ी बाबा के सामने हाथ बांधकर सनाका मारे हुए। सबके चेहरे पर रोष। बाबा पूरा अद्धा सुबह ही डकार चुके थे। सो, गजब की फुफकार!………’दरबान को बुलाओ। रिक्शा मंगाओ। काम न चले तो ठेला ले आओ। मशीन रूम और दफ्तर का सारा सामान जल्दी से लादो। ले चलो गेट बाहर। कबाड़ी की दुकान पर। हद हो गई। तीन महीने से तनख्वाह नहीं। हवा पी कर कितने दिन काम चलेगा। आज चांप देते हैं ससुरे को।’ अखबार मालिक को सौ-सौ गालियां।
अखबार मालिक लखनऊ में मजे मार रहा है। नेतागिरी का भी सौख है। उन तक संदेश पहुंचा… ‘खिलाड़ी बाबा सारा सामान, लोहे की टाइप, छपाई मशीन, टेलीप्रिंटर आदि लदवाकर बेचने जा रहे हैं। जल्दी आ जाइए।’
लो, आ गए पांडेय जी लखनऊ से। यानी कल शाम को ही उनको खबर हो गई थी कि कल दफ्तर खुलते ही झमेला होना है।
तीन महीने की सेलरी सबको हाथोहाथ बंट गई।
चलो-चलो काम पर लग जाओ फटाफट…. खिलाड़ी बाबा की दहाड़।
ये सब होते-हवाते दोपहर के ढाई बज चुके थे। खिलाड़ी बाबा थोड़ा थम लिए थे। सेलरी बंट जाने के बाद माहौल में मीठी सुरसुरी घुल चुकी थी। एक पैर से अपंग उप संपादक वीरभद्र की तो बांछें एकदम खिल-खुल गई थीं। कूद-कूद कर तार फाड़ ले आता। तहियाकर रखता जा रहा था खिलाड़ी बाबा की टुटही टेबल पर। मुझसे थोड़ा घर-परिवार की बातें कर लेने के बाद खबरनबीसी में जुटा दिया गया। फिर तो तीन महीने तक खिलाड़ी बाबा ने मेरी जो दुर्गति की, बयान नहीं की जा सकती। दिन भर खबर लिखवाते। शाम को चलने से पहले मेरी सारी खबरें फाड़ कर डस्टबीन में डालने के बाद मुझे दिखाकर उसी पर सारी पीक उगल देते। यानी मेरी लिखी खबरें छापने लायक नहीं, थूकने लायक होतीं। आखिरकार, उसी घिन्नाहट में एक दिन अधजीवी नौकरी की नमस्ते हो ली। छोड़ आया अखबार का दफ्तर। बढ़ चला इलाहाबाद की ओर।
लेकिन खिलाड़ी बाबा के उसी सिखाए-पढ़ाए पर आज तक रोजी-रोटी चल रही है। चाहे जैसे भी!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दिल्ली में निवास करते हैं। वे नहीं चाहते कि डायरी पूरी होने से पहले उनका नाम सामने आए।