पिछले दिनों प्राइवेट न्यूज चैनलों के मालिकों के संगठन न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने न्यूज चैनलों को सरकारी कोड आफ कंडक्ट से बचाने के लिए और खुद के जरिए आत्मसंयमित रखने के लिए अपनी तरफ से पहल करते हुए न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टैंडर्डस अथारिटी (एनबीएसए) के गठन की घोषणा की। आत्मनियंत्रण की इस पहल का नतीजा कितना सार्थक होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा पर इसी बहाने एक बहस की शुरुआत तो हो ही चुकी है। वरिष्ठ पत्रकार संजय द्विवेदी इस बहाने मीडिया पर पाबंदी और मीडिया के अनुशासन के पूरे दर्शन की पड़ताल एतिहासिक विकास क्रम के आइने को सामने रखते हुए कर रहे हैं।
-संपादक, भड़ास4मीडिया
भारत में लोकतंत्र आम हिंदुस्तानी की सांसों में इस तरह पैठा है कि वह किसी भी प्रकार की आचार संहिता या नैतिकी के प्रति बहुत एलर्जिक है। खासकर बात जब मीडियाकर्मियों की आती है तो वे भी अपने ऊपर किसी तरह का नैतिक बंधन या अनुशासन नहीं चाहते। शायद यही व़जह है कि जब कभी भी मीडिया को किसी कानूनी दायरे में बांधने की कोशिश की जाती है तो सबसे ज्यादा विरोध पत्रकार समुदाय से ही उठता है। पिछले दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया के न्यूज चैनलों पर लगाम लगाने की कोशिशों का भी ऐसा ही विरोध नज़र आया।
इतिहास की तरफ़ देखें तो 1447 में योहनेस गुटनबर्ग में प्रिंटिंग प्रेस का अविष्कार कर शब्द सत्ता के लोकव्यापीकरण का मार्ग प्रशस्त किया था। तब से लेकर आज तक शब्द अपनी आज़ादी के लिए तमाम सत्ताओं से जूझते आ रहे हैं। भारत में प्रिंट मीडिया की नींव 29 जनवरी 1780 को तब पड़ी, जब कोलकाता से जेम्स आगस्टस हिकी ने ‘बंगाल गजट एंड केलकेटा जनरल एडवरटाइजर’ नामक पत्र निकाला। हिकी को भी अपने दौर में लगभग उन्हीं संकटों से गुज़रना पड़ा, जैसा आज किसी भी सच कहने या लिखने वाले को गुज़रना पड़ता है। बावजूद इसके शब्द जूझते हुए सारथियों के भरोसे एक लंबी यात्रा तय कर चुके हैं। जिसमें संघर्ष हैं, यातनाएं हैं और शब्दों की बदौलत बदलती राजसत्ताएं हैं। आज भारत जैसे देश में 40 हजार से ज़्यादा नियतकालीन पत्र-पत्रिकाएं और उनका दस करोड़ से अधिक पाठक वर्ग खड़ा हो चुका है, वहीं आकाशवाणी के करीब 18 करोड़ श्रोता हैं और टेलीविजन एक लंबी यात्रा पूरी कर घर-घर तक जा पहुंचा है। इसी तरह इंटरनेट ने भारत के युवा वर्ग सहित प्रबुध्द वर्गों में अपनी जगह बनाई है।
मीडिया के इस विस्तारवाद के बावजूद उसकी विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और सच कहने का साहस एक गहरे संकट में है। क्या कारण है कि सत्ताएं बार-बार मीडिया को नियंत्रित और अनुकूलित किए जाने की चर्चाएं चलाती हैं। भले ही ऐसा साहस वे न कर पाएं।
ताज़ा दौर में मीडिया का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह ख़ुद ही अपना शत्रु और आलोचक बन बैठा है। उसके अपने लोग ही उसकी पारंपरिक आस्थाओं के प्रति आघात करते हुए उसके आलोचकों को यह मौका दे रहे हैं कि वे मीडिया पर सवाल खड़े करें। मीडिया का कोई भी स्वरूप हो, आज वह गहरे द्वंद का शिकार है। प्रिंट, इलेक्ट्रानिक या अन्य जनमाध्यमों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि इन सारे केंद्रों से संपादक की सत्ता का पतन हुआ, उसका बौद्धिक पराभव हुआ। बढ़ते बाज़ारवाद ने विचार की जगह ब्रांड को स्थापित करने की होड़ बढ़ा दी। नैतिक पतन के साथ अर्थ का प्रभाव बढ़ता जाना संकट का एक बड़ा कारण था। अप्रशिक्षित और बिना योजना के पत्रकारिता में आए मीडियाकर्मियों ने संकट को और बढ़ा दिया। राजनीति, सत्ता और बाज़ार तीनों के निशाने पर मीडिया था और उनकी नीयत यह थी कि कैसे भी मीडियाकर्मियों को भ्रष्ट किया जाए। जब पूरी की पूरी व्यवस्था मीडिया को पददलित करने में लगी हो, तो हालात बहुत बिगड़ ज़ाते हैं। शायद इसीलिए मीडिया पर सामाजिक सरोकारों से कटाव के आरोप भी लगे और यह भी कहा गया कि वह जनवाणी से ‘सत्ता की वाणी’ बन गया है।
जादू यह कि पूरे मीडिया को भ्रष्ट करने में लगी ताकतें ही मीडिया की शुचिता और पवित्रता का सवाल भी सबसे ज़्यादा उठाती हैं। मीडिया उनके अनुकूल तो ठीक, अन्यथा उस पर तरह-तरह के नाजायज हथकंडे अपनाकर उसे अनुकूलित करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। यहां यह देखना मौजूं है कि आखिर आचार संहिता को लेकर पत्रकार इतने एलर्जिक क्यों हैं? भारत जैसे देश में जहाँ सब चीज़ें कानून और विधि के द्वारा ही नियंत्रित हैं, तो आचार संहिता की आवश्यकता क्यों है? यहाँ यह समझना होगा कि कानून एक नियंत्रणकारी संस्था है, जबकि आचार संहिता एक प्रकार की प्रेरक प्रक्रिया है। यह व्यवसाय के मूल्यबोध से प्रेरित है। कानून एक अलग तरह का विषय है और एक ही विषय पर अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न कानून हो सकते हैं किंतु ‘मूल्य’ राज्य की सीमाओं से बदल नहीं जाते। जैसे गुजरात में शराबबंदी का कानून लागू है, जबकि अन्य राज्यों में शराब प्रतिबंधित नहीं है। किंतु शराबबंदी न होने के बावजूद समाज जीवन में शराब को लेकर कोई प्रशंसा भाव नहीं है। इस तरह आचार संहिता एक सकारात्मक और प्रेरक अवधारणा के रूप में सामने आती है।
मीडियाकर्मी क्योंकि एक संप्रेषक की भूमिका अदा करता है, ऐसे में उसका संचार कर्म सिर्फ प्रेषण तक का मामला नहीं है, बल्कि गहरे नैतिक अर्थ में वह एक आलोचना कर्म और इसलिए एक सांस्कृतिक कर्म भी हो जाता है। संचार कर्म एक सांस्कृतिक और सृजनात्मक कर्म में तब्दील होते ही एक बड़ी जिम्मेदारी बन जाता है। तब यही आचार संहिता संचारकर्मी में एक दायित्वबोध जगाती है। आज के दौर में जब पूंजी या बाज़ार की ताकतें मीडिया को नियंत्रित और अनुकूलित करने के जुगत में लगी हैं, तब यही संचार कर्म एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी में बदल जाता है। एक ओर जहाँ मीडियाकर्मी के संस्थान के आर्थिक हित हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक हित। यही संचारकर्म की नैतिक चुनौती है। इसलिए यह मामला मीडिया कर्मी का व्यक्तिगत विषय न होकर बहुत सारे मामलों में संस्थानिक हो जाता है।
प्रख्यात समाज वैज्ञानिक इवान इलिच इन्हीं संदर्भों पर कहते हैं कि ‘प्रत्येक संप्रेषण कर्म का दो प्रकार का एजेंडा होता है। एक घोषित एजेंडा, दूसरा गुप्त एजेंडा।’ ज़ाहिर तौर पर गुप्त एजेंडा ही असली एजेंडा होता है। इस संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार हैं- ‘दूसरों का अंकुश गिराने वाला होता है और अपना अंकुश उत्थानवादी।’ दुनियाभर में विविध व्यवसायों की आचार संहिता पर बहस चलती रही है। हर प्रोफेशन ने अपनी नैतिकताएं और आचार संहिताएं तय की, तो इसलिए ताकि उनका व्यवसाय समाज की नज़र में सम्मान पा सके।
अमेरिकन सोसायटी आफ न्यूजपेपर्स के एडिटर्स ने 1922 में आचार संहिता लागू कर एक बड़ी शुरुआत की। 30 अक्टूबर, 1995 को वहां एक परिवर्तित आचार संहिता अपनाई गई। ब्रिटेन में नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट ने 1934 में आचार संहिता की जरुरत को महसूस करते हुए 1936 में इसे स्वीकृति प्रदान की। 1966 में ब्रिटिश प्रेस कौंसिल ने एतदर्थ घोषणापत्र जारी किया। 1999 में वहां प्रेस कंप्लेंट कमीशन अस्तित्व में आया। आचार संहिताओं की यह विकास यात्रा पूरी दुनिया में धीरे-धीरे जारी थी। भारत में भी भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ के स्थापना सम्मेलन 1950 में थोड़े परिवर्तनों के साथ ब्रिटेन की आचार संहिता को स्वीकार कर लिया गया।
1952 में प्रथम प्रेस आयोग की स्थापना हुई। आयोग ने भी इस सवाल पर विचार मंथन किया परंतु खबरों और टिप्पणियों के प्रकाशन में उत्तरदायित्व की जिम्मेदारी और ऐसी भावना का विकास करने का काम प्रेस पर ही छोड़ दिया। 1965 में भारत में भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हुई। दिसंबर 1980 में नई दिल्ली में संपन्न नेशनल मीडिया कन्वेशन में 15 सूत्रीय आचार संहिता स्वीकार की गई। इसी तरह अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन ने भी 13 सूत्रीय आचार संहिता बनाई। आपातकाल के दिनों में 14 सूत्रों वाली एक आचार संहिता सरकार ने जारी की थी, जो चर्चा और विवादों के केंद्र में रही। भारतीय प्रेस परिषद ने सांप्रदायिक घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए एक गाइड लाइन भी जारी की। अक्टूबर 1990 में अयोध्या की घटनाओं के वक्त प्रेस परिषद ने 12 मूल सिद्धांत जारी किए। इस तरह देखें तो अनेक संगठनों की तमाम आचार संहिताओं ने भारतीय पत्रकार जगत को मार्गदर्शी सिद्धांत दिए। एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने भी सन 2002 में आचार संहिता बनाई, जिसे 19 दिसंबर 2002 को राष्ट्रपति ने जारी किया। कुछ समाचार पत्रों ने भी अपने स्तर पर अपने प्रकाशनों के लिए आचार संहिता बनाई, जिसमें टाइम्स आफ इंडिया का नाम उल्लेखनीय है। राजस्थान पत्रिका हिंदी का पहला ऐसा अखबार है, जिसने पाठकों के शिकायतों के निवारण के लिए रीडर्स एडिटर्स की नियुक्ति की।
प्रेस कौंसिल आफ इंडिया अपनी व्यापक भूमिकाओं के बावजूद एक नख-दंतहीन संगठन बनकर रह गया है, क्योंकि वह शिकायतों की सुनवाई और निंदा तक ही अधिकार रखता है। कई नैतिक नियंत्रणों और आचार संहिताओं के बावजूद यह प्रश्न अपनी जगह कायम है कि आखिर इन आचार संहिताओं को कौन और कैसे लागू कराएगा? आज प्रश्न सिर्फ प्रिंट मीडिया का नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और अन्य संचार के दूसरे माध्यम विवेकहीन संचार के प्रसार में लगे हैं। उन पर किसका अंकुश है। शायद इसीलिए प्रेस कौंसिल के बजाय मीडिया कौंसिल बनाने की मांग उठने लगी है। आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण जैसी बातें इस बाज़ारवाद में लगभग बेमानी हो जाती हैं। मीडिया की विश्वसनीयता और जनविश्वास को बनाए रखने की जिम्मेदारी अंतत: मीडिया से जुड़े लोगों की ही है। लोकतंत्र में मीडिया को उसे शक्ति देने वाला माना जाता है। सभी तंत्रों से निराश लोग मीडिया की तरफ बहुत आशा और विश्वास से देखते हैं। ऐसे समय में आत्मनियंत्रण के लिए मीडियाकर्मियों को ही आगे आना होगा। टीआरपी और प्रसार की होड़ में अपने विवेक को कायम रखना होगा। खोजी पत्रकारिता के नए स्वरूप के रूप में उभरे स्टिंग पत्रकारिता ने भी अलग तरह के संकट खड़े किए हैं। इसके साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया लगभग अदालत की भूमिका में कई बार सामने दिखता है।
मद्रास हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस रहे एपी शाह ने एक बार कहा था- ‘मीडिया द्वारा मुकदमों का विचारण हत्या के तुल्य है। मीडिया को इस तरह की अतियों से बचना होगा।’ ब्रिटेन के एक जज लार्ड डेनिंग ने कहा है कि ‘प्रेस की आज़ादी का मतलब यह नहीं होता कि प्रेस को किसी की प्रतिष्ठा नष्ट करने, भरोसा तोड़ने या न्याय की धारा को दूषित करने की आज़ादी दी जा सकती है।’
जाहिर है मीडिया पर यदि इस तरह से लक्ष्य से विचलन के आरोप लगने लगे हैं, तो उसे कहीं न कहीं अपना नियमन करना होगा। मीडिया का अतिवाद एक बड़े संकट का कारण बन सकता है। जिस जनविश्वास जो उसने सालों साल की परंपरा से अर्जित किया है, खंडित हो सकता है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि मीडिया से जुड़े लोग कहीं न कहीं अपनी सीमाओं पर भी बात शुरू करें। आचार संहिता पर भी बात करें और उसके पालन के लिए भी कोई संस्थागत इंतजाम करें। इस मामले में सरकार बीच में आई तो बड़ा घोटाला होगा। बेहतर यही होगा कि हम अपने घर को ख़ुद दुरुस्त करने की हिम्मत पालें।
(लेखक जी-चौबीस घंटे, छत्तीसगढ़ न्यूज चैनल के इनपुट एडिटर हैं)