यह बात अभी पन्द्रह दिन पहले की है. मेडिकल कॉलेज में दिखाकर उसे नैनीताल रवाना किया था. तब उसने सदा की तरह नेह से गले लगाते हुए उसने कहा था- ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं. मेरी बिल्कुल चिन्ता मत करना. ओके, फिर मिलेंगे’.
अब कभी मिलना नहीं हो पाएगा. हालांकि उससे जुदा होना भी कैसे हो पाएगा? वह यहीं रहेगा हम सबके बीच, गाता- मुस्कराता हुआ. उसकी ज्यादा फिक्र करने पर वह कहता भी था- ”…क्या हो रहा है मुझे. और मान लो कुछ हो भी गया तो मैं यहीं रहूंगा. तुम लोग रखोगे मुझे जिन्दा, तुम सब इत्ते सारे लोग.”
सन् 1943 में अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम में जन्मे गिरीश तिवारी को स्कूली शिक्षा ने जितना भी पढऩा- लिखना सिखाया हो, सत्य यह है कि समाज ही उसके असली विश्वविद्यालय बने.
उत्तराखण्ड का समाज और लोक, पीलीभीत-पूरनपुर की तराई का शोषित कृषक समाज, लखनऊ की छोटी-सी नौकरी के साथ होटल-ढाबे-रिक्शे वालों की दुनिया से लेकर अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क में इकन्नी-दुअन्नी की किताबों से सीखी गई उर्दू और फिर फैज, साहिर, गालिब जैसे शायरों के रचना संसार में गहरे डूबना, गीत एवं नाट्य प्रभाग की नौकरी करते हुए चारुचन्द्र पाण्डे, मोहन उप्रेती, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह की संगत में उत्तराखण्ड के लोक साहित्य के मोती चुनना और उससे नई-नई गीत लडिय़ां पिरोना, कभी यह मान बैठना कि इस ससुरी क्रूर व्यवस्था को नक्सलवाद के रास्ते ही ध्वस्त कर नई शोषण मुक्त व्यवस्था रची जा सकती है, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के भूमिगत क्रांतिकारी साथियों से तार जोड़ लेना… रंगमंच को सम्प्रेषण और समाज परिवर्तन का महत्वपूर्ण औजार मानकर उसमें विविध प्रयोग करना, फिर-फिर लौट आना लोक संस्कृति की ओर और उसमें गहरे गोते लगाना… गुमानी, गौर्दा, गोपीदास, मोहनसिंह रीठागाड़ी और झूसिया दमाई, हरदा सूरदास तक लोक साहित्य से लेकर हिन्दी साहित्य के मंचों को समृद्ध करना.
शुरुआती दौर में काली शेरवानी, करीने से खत बनी दाढ़ी और टोपी पहन कर वह प्रसिद्ध गीतकार नीरज के साथ कवि- सम्मेलनों का लोकप्रिय चेहरा भी हुआ करता था. लेकिन समाज के विश्वविद्यालयों में निरन्तर मंथन और शोधरत गिर्दा को अभिव्यक्ति का असली ताकतवर माध्यम लोकगीत-संगीत में ही मिला और एक लम्बा दौर अराजक, लुका-छिपी लगभग अघोरी रूप में जीने के बाद उसने लोक संस्कृति में ही संतोष और त्राण पाया. तभी वह तनिक सांसारिक हुआ, उसने शादी की और हमें वह हीरा भाभी मिली जिन्होंने गिर्दा की एेसी सेवा की कि गिरते स्वास्थ्य के बावजूद गिर्दा अपने मोर्चों पर लगातार सक्रिय रहे. गिर्दा के जाने पर हमें अपने सन्नाटे की चिन्ता है, लेकिन आज हीरा भाभी के खालीपन का क्या हिसाब!
हमारी पीढ़ी के लिए गिर्दा बड़े भाई से ज्यादा एक करीबी दोस्त थे लेकिन असल में वे सम्पूर्ण हिन्दी समाज के लिए त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की परम्परा के जन साहित्य नायक थे. जून 19६5 में लगी इमरजेंसी के विरोध में और फिर जनता राज की अराजकता पर वे ‘अंधा युग’ और ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड का अत्यन्त प्रयोगधर्मी मंचन करते थे तो लोकवीर गाथा ‘अजुवा-बफौल’ के नाट्य रूपांतरण ‘पहाड़ खामोश हैं’ और धनुष यज्ञ के मंचन से सीधे इन्दिरा गांधी को चुनौती देने लगते थे. कबीर की उलटबांसियों की पुनर्रचना करके वे इस व्यवस्था की सीवन उधेड़ते नजर आते तो उत्तराखण्ड के सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन में लोक होलियों की तर्ज पर ‘दिल्ली में बैठी वह नार’ को सीधी चुनौती ठोकते नजर आते थे.
वन आन्दोलन और सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन के दौर में उन्होंने फैज अहमद फैज की क्रांतिकारी रचनाओं का न केवल हिन्दी में सरलीकरण किया, बल्कि उनका लोक बोलियों में रूपान्तरण करके उन्हें लोकधुनों में बांधकर जनगीत बना डाला. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में तो उनका आन्दोलकारी- रचनाकार अपने सर्वोत्तम और ऊर्जस्वित रूप में सामने आया. जब यूपी की मुलायम सरकार उत्तराखण्ड आन्दोलन के दमन पर उतारू थी, देखते ही गोली मारने का आदेश था तो ‘गिर्दा’ रोज एक छन्द हिन्दी और कुमाऊंनी में रचते थे जिसे ‘नैनीताल समाचार’ के हस्तलिखित न्यूज बुलेटिन के वाचन के बाद नैनीताल के बस अड्डे पर गाया जाता था. इन छन्दों ने उत्तराखण्ड में छाए दमन और आतंक के सन्नाटे को तोड़ डाला था. ये छन्द ‘उत्तराखण्ड काव्य के नाम से खूब चर्चित हुए और जगह-जगह गाए गए.
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद उनका रचनाकार और भी सचेत होकर लगातार सक्रिय और संघर्षरत रहा. हर आन्दोलन पर वे अपने गीतों के साथ सबसे आगे मोर्चे पर डट जाते थे. नदी बचाओ आन्दोलन हो या कोई भी मोर्चा, गिर्दा के बिना जैसे फौज सजती ही नहीं थी.
अब गिर्दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे. अपनी विस्तृत फलक वाली विविध रचनाओं और अपने साथियों-प्रशंसकों की विशाल भीड़ में गिर्दा जीवित रहेंगे. लेकिन यह तय है कि उसके बिना चीजें पहले जैसी नहीं होंगी. उत्तराखण्ड की लोक चेतना और सांस्कृतिक प्रतिरोध के नित नए और रचनात्मक तेवर अब नहीं दिखेंगे. हां, जन-संघर्षों के मोर्चे पर ‘गिर्दा’ के गीत हमेशा गाए जाएंगे, ये गीत हमें जगाएंगे, लेकिन हुड़के पर थाप देकर, गले की पूरी ताकत लगाने के बावजूद सुर साधकर, हवा में हाथ उछालकर और झूम-झूम कर जनता का जोश जगाते गिर्दा अब वहां नहीं होंगे.
लेखक नवीन जोशी दैनिक हिंदुस्तान, लखनऊ के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं. उनका यह लिखा दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.
manoj patwal
August 24, 2010 at 11:28 am
girda ka jana ek yug ka samapt hona girda kud ko amar kar gaye
Prem Arora
August 24, 2010 at 4:04 pm
गिरीश तिवारी गिर्दा का हमसे बिछड़ कर चले जाना जब तबियत ख़राब थी तो यशवंत भाई को बताया कि कुछ अच्छा नहीं लग रहा अगले ही दिन निधन का समाचार पता चला. एक जन कवी जिसने उत्तराखंड के लिए ही नहीं जनमानस के लिए बहुत कुछ लिखा साहस से कहा भी गया भी और गुनगुनाया भी. रामनगर गणेश रावत को फ़ोन किया उसके बाद जन कवी बल्ली सिंह चीमा को फ़ोन किया. विश्वास हो गया कि गिर्दा हमारे बीच नहीं रहे. अभी चंद रोज़ पहले देहरादून में राजपुर रोड पर होटल अजंता में बैठे थे. राजेन तोद्रिया, नरेंदर नेगी (नरु दा) बचरी राम कोंसवाल, लीलाधर जगूड़ी, और में एक कमरे में बैठ कर बतिया रहे थे. तोद्रिया जी ने नरु दा से कहा कि गिर्दा को हिमालय फिल्म से तर्रुनाम में ले आओ. मेरे को कुछ आर्डर किया. प्रेम तू जा और डिनर की तियारी देख कर आ. चलते चलते कुछ हो जाये. दुसरे होटल में डिनर था. लेकिन १ घंटे तक हुई गुफ्तगू के बीच कुछ बातें जरुर खुल रहीं थी. पदम् श्री को को लेकर काफी देर तक बहस चलती रही. नरेन्द्र नेगी को नहीं मिला. हम कौन हैं भाई. फिर भी मूड खुश मिजाज़ हो गया था. थोडा फ्रेश होना है यार. कोंसवाल जी ने कहा लगता दा का अब थोडा फ्रेश महसूस कर रहे हैं. बाथरूम से आने के बाद फिर एक बार बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ. थोड़ी ही देर बाद शेखर पाठक जी का फ़ोन आ गया था कि डिनर के लिए आ जाएँ. डिनर के दौरान भी जन कवी गिर्दा की डिमांड बनी रही. हम एक ही टेबल पर बैठे थे. लेकिन बैटन ही बैटन में अहसास करवा दिया कि जिन्दगी जितने दिन की भी हो ख़ुशी से ही रहेंगे.
अक्टूबर में गिर्दा के लोक गीतों और एक कहानी के शूटिंग की बात नरु दा ने कही तो आखिर गिर्दा ने हाँ करी और अक्टूबर में शूटिंग तै हुई. ई टी वी से गोविन्द कपतियाल जी ने स्टूडियो आने का न्योता दिया. और फिर हम सब अपने अपने विश्राम की और चल दिए.
लेकिन किसी को भी एहसास नहीं हुआ कि आखिर गिर्दा क्यों मन कर रहे हैं. शायद उन्हें आभास था कि वोह जीते जी खुछ ही रहेंगे और खुछ ही रखेंगे.
लेकिन जब गिर्दा पञ्च तत्व में विलीन हो रहे थो तो सभी की ऑंखें नम थी रामनगर से गनेह्स रावत, प्रभात ध्यानी, हरी मोहन, मुनीश भाई, सलीम मालिक, काशीपुर से में और बाजपुर से बल्ली सिंह चीमा धूम कोट से मनीष सुन्द्रियाल हम सब भी पूरे रास्ते गिर्दा की बातें और कविताओं पर ही बातें करते रहे. कभी कभी बल्ली भाई कोई नज़म छेड़ देते. यह शायद कई लोगों को अटपटा लग रहा था कि राम नाम सत की जगह गिर्दा के जनगीतों की गूँज चरों और थी. राजीव लोचा दा, नवीन जोशी, पी सी तिवारी. शेखर पाठक सभी की ऑंखें नाम थी लेकिन सबने शब्प्थ भी ली कि गिर्दा तुम हमेशा अमर रहोगे. और हम तुम्हे हमेशा जीवित रखेंगे.
इश्वर हम सबको गिरीश तिवारी गिर्दा को अमर करने की शक्ति प्रदान करे
प्रेम अरोड़ा
काशीपुर
9012043100