”कचहरी तो बेवा का तन देखती है”

अमिताभजी : अदालतों के बारे में तथ्‍यपरक सच्‍चाई कहना कोर्ट ऑफ कंटेम्‍प्‍ट नहीं है : “न्याय वहाँ सीता है और क़ानून मारीच.” “न्याय मिलता भी है पर राम को नहीं. रावण को और उसके परिजनों को.” “हत्यारों, डकैतों को जमानत मिलती है. हाँ, राम को तारीख मिलती है.” “कचहरी तो बेवा का तन देखती है, खुलेगी कहाँ से बटन देखती है.” ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जो दयानंद पाण्डेय जी के चर्चित उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध‘ में उपन्यास के मुख्य पात्र संजय के अपने मुकदमे के सिलसिले में न्यायपालिका की शरण में जाने के बाद में उसके अनुभवों के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं.

‘नरेंद्र जी कोई और नहीं वीरेंद्र सिंह जी हैं’

दयानंदजी : किसी संपादक में मुख्‍यमंत्री का भोज ठुकराने की ताकत ना तब थी ना अब है : रीढ़ वाले पत्रकार और संपादक थे वह : प्रिय अमिताभ जी, आप ने इस बार फिर एक संकट खड़ा कर दिया है. ‘अपने-अपने युद्ध‘ में नरेंद्र जी कौन हैं पूछ कर. आप से हारमोनियम के हज़ार टुकडे की तफ़सील में ही बताया था कि चरित्र कोई भी हो लेखक का व्यक्तिगत होता है, बेहद व्यक्तिगत.

सेक्स, प्यार और मोरालिटी

[caption id="attachment_19736" align="alignleft" width="83"]अमिताभ ठाकुर अमिताभ ठाकुर[/caption]मैं इधर दयानंद पाण्डेय जी का चर्चित उपन्यास “अपने-अपने युद्ध” पढ़ रहा था. मैंने देखा कि इसका नायक संजय, जो एक पत्रकार है और कई दृष्टियों से अपनी नैतिकता के प्रतिमानों को लेकर काफी सजग और चौकन्ना है. विभिन्न प्रकार की लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने में भी उतना ही महारथी है. पूरे उपन्यास में उसके संबंधों के बनने और फिर अलग-अलग कारणों से बिखर जाने का कार्यक्रम चलता ही रहता है.

‘दयानंद पांडेय एक पागल पोर्नोग्राफर है’

अपने-अपने युद्धSir, The so called masterpiece of DAYANAND / DANDACHAND is a cheap stuff. Can he ask his son or daughter to read it aloud in his presence? Certinly not. In his explanation he talked of TATALITY (SAMAGRATA). He quoted ancient literaure also. He fogot to say about porn sites like YOUPORN,  PORNTUBE,  and many others in his ZABAB HAZIR HAI to justify himself.

बी4एम के पाठक पढ़ेंगे एक चर्चित उपन्यास

मीडिया का महाभारत है ‘अपने-अपने युद्ध’ : भड़ास4मीडिया पर प्रत्येक शनिवार को चर्चित उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ का धाराविहक रूप में प्रकाशन किया जाएगा। मौजूदा दशक में मीडिया के भीतर, और बाहर भी चर्चित रहे दयानंद पांडेय के उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ को जितनी बार पढ़ा जाए, अखबारी दुनिया की उतनी फूहड़ परतें उधड़ती चली जाती हैं। मीडिया का जितनी तेजी से बाजारीकरण हो रहा है, उसके भीतर का नर्क भी उतना ही भयावह होता जा रहा है। ऐसे में  ‘अपने-अपने युद्ध’ को बार-बार पढ़ना नितांत ताजा-ताजा सा-लगता है। यह महज कोई औपन्यासिक कृति भर नहीं, मीडिया और संस्कृति-जगत के दूसरे घटकों थिएटर, राजनीति, सिनेमा, सामाजिक न्याय और न्यायपालिका की अंदरूनी दुनिया में धंस कर लिखा गया तीखा, बेलौस मुक्त वृत्तांत है। इसमें बहुत कुछ नंगा है- असहनीय और तीखा। लेखक के अपने बयान में—‘जैसे किसी मीठी और नरम ईख की पोर अनायास खुलती है, अपने-अपने युद्ध के पात्र भी ऐसे ही खुलते जाते हैं।’