वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी, लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी…

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (एक) : ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ गाते-बजाते लोक कवि अपने गांव से एक कम्युनिस्ट नेता के साथ जब सीधे लखनऊ पहुंचे तो उन्हें यह बिलकुल आभास नहीं था कि सफलता और प्रसिद्धि की कई-कई सीढ़ियां उनकी प्रतीक्षा में खड़ी हैं।

बिरहा भवन से लौट कर : देख नयन भरि आइल सजनी

दयानंद पांडेयआज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.

चले गए बालेश्वर

[caption id="attachment_19156" align="alignleft" width="107"]स्वर्गीय बालेश्वरस्वर्गीय बालेश्वर[/caption]: स्मृति-शेष : सुधि बिसरवले बा हमार पिया निरमोहिया बनि के :  अवधी की धरती पर भोजपुरी में झंडा गाड़ गया यह लोक गायक : जैसे जाड़ा चुभ रहा है देह में वैसे ही मन में चुभ रहा है आज बालेश्वर का जाना। इस लिए भी कि वह बिलकुल मेरी आंखों के सामने ही आंखें मूंद बैठे। बताऊं कि मैं उनको जीता था, जीता हूं, और शायद जीता रहूंगा।