आज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.
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शीघ्र पढ़ेंगे दनपा का उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’
: स्वर्गीय जय प्रकाश शाही की याद में लिखा गया है यह उपन्यास : स्वर्गीय बालेश्वर के जीवन के कई दुख-सुख हैं इसमें : ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और भोजपुरी समाज के क्षरण की कथा भर नहीं है बल्कि लोक भावनाओं और भारतीय समाज के संत्रास का आइना भी है।