‘धर्मयुग’ का माहौल अत्यन्त सात्विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाकाहारी था। ‘धर्मयुग’ का चपरासी तक बीड़ी नहीं पीता था। सिगरेट-शराब तो दूर, कोई पान तक नहीं खाता था। कई बार तो एहसास होता यह दफ़्तर नहीं कोई जैन धर्मशाला है, जहाँ कायदे-कानून का बड़ा कड़ाई से पालन होता था। दफ़्तर में मुफ्त की चाय मिलती थी, जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे।
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मुनादी : एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
धर्म भारती की कालजयी कविता ”मुनादी” मौजूदा माहौल में बहुत मौजू है. इसे प्रकाशित करने का अनुरोध बिशन कुमार ने किया है और उन्होंने पूरी कविता को भड़ास4मीडिया के पास भेजा है. आप भी इस कविता को पढ़ें और देखें कि हालात जो पहले थे, बिलकुल वैसे ही हैं, और, कह सकते हैं कि सत्ता तंत्र पहले से ज्यादा जनविरोधी, ढीठ, थेथर और अलोकतांत्रिक हो चुका है. जय प्रकाश नारायण के लिए लिखी गई यह कविता अन्ना पर भी सटीक है. -एडिटर, भड़ास4मीडिया