दिलीप मंडल का दोगला चरित्र उजागर

जब से आईआईएमसी सवालों के घेरे में आया है तभी से वहाँ के हिन्दी पत्रकारिता के निदेशक प्राध्यापक आनन्द प्रधान चुप हैं. सूत्रों के अनुसार कुछ कहते भी हैं तो बस इतना ही कि जो हुआ वो कागजी या तकनीकी गलती के कारण हुआ. चलिए एक बार को ये मान भी लें तो कोई बात नहीं, जब कभी ऐसे मामले उजागर होने शुरू होते हैं तो आम तौर पर ऐसे ही नन्हे-मुन्ने बयान रटी-रटाई अवस्था में सामने आते हैं.

फेसबुक पर दिलीप मंडल पर बरसे अजीत अंजुम

दिलीप मंडल आपको अक्सर ‘दलित दलित’ करते मिल जाएंगे, यहां वहां जहां तहां. फेसबुक पर भी. हर चीज में ‘दलित एंगल’ तलाशेंगे. हर चीज पर ‘शक’ करेंगे. और ये करना कतई गलत काम भी नहीं है. शक करने का एक पूरा दर्शन है जो कहता है कि हर चीज पर शक करो. इस लोकतंत्र में हर किसी को कोई दर्शन मानने-जानने की छूट है. दिलीप जी अगर हर चीज पर शक करते हैं तो उससे एक अच्छी चीज ये हो रही है कि कम से कम कोई आंख मूंद कर भरोसा तो नहीं करेगा और आंख मूंद कर हम सभी ने जब जब जिस पर भरोसा किया, वो दिल तोड़ गया.

स्वतंत्र पत्रकार बन गए हैं दिलीप मंडल

वैसे तो पत्रकारिता में आजकल सबसे बेहतर काम स्वतंत्र पत्रकारिता करना है, भले ही वह आप अपना ब्लाग बनाकर करें, और जीने-खाने के लिए कोई और धंधा कर लें, लेकिन जिन लोगों ने पत्रकारिता को चौथे स्तंभ के साथ-साथ जीवन यापन का जरिया भी मान लिया है, उनके लिए कई बार बड़ा खराब होता है स्वतंत्र पत्रकारिता करना. दरअसल, उनके लिए स्वतंत्र पत्रकारिता का मतलब मजबूरी का दूसरा नाम होता है क्योंकि जाब न मिलने की दशा में आदमी स्वतंत्र पत्रकारिता करने लगता है.